एंटी इनकम्बेंसी मंत्री, विधायकों के खिलाफ तो थी पर सीएम के नहीं

मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों का इस दृष्टि से भी विश्लेषण किया जा सकता है कि कांग्रेस कुछ भी नहीं करने के बावजूद जीत का सट्टा बाजार बनते हुए पूरी तरह से आक्रामक मुद्रा में कैसे थी और भाजपा अपना सबकुछ दाव पर लगा देने के बाद भी किसी अपराध भाव से ग्रसित होकर हार के डर के साथ बचाव का कवच क्यों ओढ़े हुए थी। पार्टी के डर की बाकी बची कसर बागियों और असंतुष्टों ने ऊपर से थोपे हुए अनुशासन को ध्वस्त करके पूरी कर दी।
शिवराज अकेले दम पर आखिर तक लड़ते रहे और अंत में कांग्रेस को आपस में लड़ने के लिए छोड़कर अपनी सरकारी की दावेदारी पेश करने से अलग हो गए। शिवराज अब विधानसभा में विपक्ष के नेता अजय सिंह की हर खाली कुर्सी पर बैठकर कम-से-कम लोकसभा चुनावों तक तो नई सरकार पर दबाव बना ही सकते हैं कि ‘अब वायदे भी पूरे करके दिखाओ महाराज।’ मुख्यमंत्री पद को लेकर कांग्रेस में अभी जो संग्राम चल रहा है वह अगर ट्रेलर है तो कल्पना कर लेना चाहिए कि पार्टी की फिल्म के लोकसभा के बॉक्स ऑफिस पर क्या कलेक्शन होने वाले हैं।
किसी भी विधानसभा चुनाव में पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया कि एंटी इनकम्बेंसी सरकार के मंत्रियों, विधायकों और नौकरशाही के खिलाफ तो थी पर मुख्यमंत्री के खिलाफ नहीं थी, अगर ऐसा नहीं होता तो मध्यप्रदेश भी छत्तीसगढ़ हो जाता। चुनाव ऐसा हुआ कि शिवराज को माफी भी मिल गई और महाराज का गुस्सा भी पूरी तरह से फूट नहीं पाया।

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