तीन तलाक और आर्टिकल 370 के बाद क्या भाजपा का अगला निशाना होगा आरक्षण

आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत चाहते हैं कि आरक्षण पर सौहार्दपूर्ण वातावरण में समर्थक और विरोधी आपस में चर्चा करें. इसके साथ ही आरक्षण का मसला एक बार फिर से चर्चा में आ गया है. क्या ऐसी चर्चा के जरिए आरएसएस और उसका अनुषंगी संगठन भाजपा आरक्षण को मजबूत करना चाहती हैं या फिर इनका इरादा आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों को नष्ट करना है?
जिस तरह बीजेपी ने अनुच्छेद 370 को खत्म करके वाहवाही लूटी है और तीन तलाक को अपराध बना दिया है, उसके बाद ये आशंका होने लगी है कि भाजपा अपने कोर वोट बैंक यानी सवर्ण तबके को खुश करने के लिए कोई बड़ा कदम उठा सकती है. ऐसा भी माना जाने लगा है कि अब उसका निशाना ओबीसी का आरक्षण हो सकता है. ये आशंका इसलिए भी है कि आरएसएस से लेकर भाजपा तक के तमाम नेता समय-समय पर आरक्षण खत्म करने की मांग करते रहे हैं. सवर्ण गरीबों को 10 परसेंट रिजर्वेशन देने का बीजेपी को जिस तरह का चुनावी लाभ मिला है, उसके बाद बीजेपी इस रास्ते पर आगे बढ़ सकती है.
एक बात जरूर है कि भाजपा ने जिस तरह से जोर-शोर से हंगामा करके अनुच्छेद 370 को खत्म किया, उस तरह से वह आरक्षण को खत्म शायद न करे. इसके पीछे कारण यह है कि साल-दर-साल आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने की प्रक्रिया पहले से ही जारी है और जब भाजपा की सरकार होती है यह प्रक्रिया और तेज हो जाती है.
कैसे खत्म हो रहा है आरक्षण
आज़ाद भारत में देखा जाए तो संवैधानिक बाध्यता के कारण अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान एक मजबूरी बन गयी थी, परंतु अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या का सही आंकड़ा ना होने का बहाना बनाकर इस वर्ग के आरक्षण को दशकों तक संविधान की किताबों में निष्क्रिय अनुच्छेद के रूप में पड़ा रहने दिया गया.
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आखिर आज़ादी के 43 साल बाद केंद्रीय नौकरियों में 27 परसेंट ओबीसी आरक्षण देकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश लागू की गई. रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इसमें समय-समय पर काट-छांट की जाती रही. अब दो बार प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई भाजपा नीत मोदी सरकार ने तो आरक्षण को रौंदने का मन बना लिया है. कुछ उदाहरणों से तो यही स्पष्ट होता है:-
(क) एससी/एसटी प्रोमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर सरकार के उदासीन रवैये के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने इसे राज्य सरकारों की दया पर छोड़ दिया है. इस संदर्भ में कर्नाटक सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखा जा सकता है.
(ख) ओबीसी का कई नौकरियों में कटऑफ सामान्य से अधिक जाने लगा है. रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स के विभिन्न ग्रुपों के ओबीसी का कट ऑफ सामान्य वर्ग से अधिक रहा है. इससे पूर्व राजस्थान लोक सेवा आयोग और अन्य परीक्षाओं में भी यह प्रवृत्ति देखी गयी है, वो भी तब जब वहां भाजपा सत्ता में थी.
(ग) एनईईटी यानी मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में भी एकाध राज्यों को छोड़कर सभी राज्यों में ऑल इंडिया कोटे के अंतर्गत सीटें खत्म कर दी गयी हैं. ओबीसी श्रेणी में आवेदन करने पर दाखिला नहीं हो पाता है, इसलिए ओबीसी बच्चे अब सामान्य के रूप में ही आवेदन करने लगे हैं.
(घ) केंद्रीय नौकरशाही में ज्वाइंट सेक्रेटरी के स्तर पर केंद्र सरकार लैटरल एंट्री के जरिए अफसर नियुक्त कर रही है. इन नियुक्तियों में आरक्षण लागू नहीं होगा.
इन उदाहरणों से मोदी सरकार की मंशा स्पष्ट होती है कि वह आरक्षण, विशेषकर ओबीसी आरक्षण को अर्थहीन करके आने वाले समय में इसे खत्म करने जैसा कदम उठा सकती है.
आरक्षण के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी भाजपा
भाजपा सरकार आरक्षण को बेअसर तो लगातार करती ही जा रही है, लेकिन साथ ही वह आरक्षण के खिलाफ जनमत भी तैयार करती जा रही है. भाजपा और आरएसएस के नेता समय-समय पर ऐसे बयान देते रहे हैं, जिनमें आरक्षण को प्रतिभाओं के साथ होने वाला अन्याय बताया जाता है. इसे देश के विकास से भी जोड़ दिया जाता है.
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जिस तबके को आरक्षण का लाभ मिलता है, उनके बीच भी संघ परिवार ये संदेश देने में सफल होता जा रहा है कि आरक्षण से कोई फायदा नहीं है. कम संख्या वाली जातियों को तो ये काफी ज्यादा प्रभावित करने में सफल रहा ही है. बड़ी संख्या वाली जातियों को भी संघ ये समझा रहा है कि आरक्षण का लाभ केवल कुछ संपन्न परिवारों को ही मिलता है.
सोशल मीडिया के दौर में आरक्षण के प्रावधान के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों वाले संदेश लगातार वायरल होते रहते हैं. खास बात यह है कि ये संदेश अधिकतर संघ परिवार से जुड़े लोगों की तरफ से ही शुरू होते हैं.
आरक्षण हटने से क्या फर्क पड़ेगा
एक बड़ा सवाल यह है कि जो आरक्षण ठीक से लागू हुआ ही नहीं, वह अगर हट भी जाए तो क्या फर्क पड़ेगा. इसका जवाब यह है कि आधे-अधूरे आरक्षण के सहारे ही सरकारी नौकरियों में कुछ भागीदारी तो बहुजनों की होने ही लगी है. आरक्षण के बिना वंचित जातियों के इतने लोग भी सरकार सेवाओं में न आ पाते.
इसके अलावा, धार्मिक या सनातनी आरक्षण और भ्रष्टाचार जनित आरक्षण तो समाज में लागू है ही जिसका फायदा तो अधिकतर सवर्ण समुदाय ही उठाता है. ऐसे में संविधान प्रदत्त जातिगत आरक्षण से स्थिति कुछ तो संतुलित होती है. जरूरत आरक्षण को सही तरीके से लागू करने की है, न कि आरक्षण हटाने की. वैसे भी कोई कानून अगर अपराध रोकने में बेअसर होता है, तो उस कानून को और कड़ा किया जाता है, न कि उस कानून को हटा दिया जाता है.
क्या कर सकती है भाजपा
भाजपा के कोर मतदाताओं की हमेशा से ये इच्छा रही है कि जातिगत आरक्षण पूरी तरह से खत्म हो. ऐसा लगने भी लगा है कि भाजपा अपने कोर मतदाताओं को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. भाजपा सरकार निम्न कदम उठा सकती है:
जिस तरह से ज्वायंट सेक्रेटरी पदों पर लेटरल एंट्री शुरू करके आरक्षण को बेअसर किया है, उसी तरह से अन्य उच्च पदों पर लेटरल एंट्री का प्रावधान कर सकती है. छोटे स्तर पर ठेका प्रथा या पदों की आउटसोर्सिंग का दायरा बढ़ा सकती है. नई नियुक्तियों की संख्या और कम की जा सकती है.
कंपनियों के निगमीकरण और फिर विनिवेशीकरण या पूरी तरह से निजी हाथों में बेचने के काम में तेजी ला सकती है. कंपनियों के निजी हाथों में जाते ही आरक्षण खत्म हो जाता है.
कांग्रेस शासित या विपक्ष शासित राज्यों में निकलने वाली भर्तियों को कोर्ट के जरिए रुकवा सकती है या उनमें देरी करा सकती है. ऐसा वह यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार के समय कुछ हद तक कर भी चुकी है. खर्च बचाने के नाम पर सरकारी नौकरियों में भारी कमी कर सकती है, जैसा कि सेना में भी करीब 27 हजार सैनिकों की कमी के प्रस्ताव पर विचार भी हो रहा है.
सवर्ण मतदाताओं की इच्छा और विपक्षी दलों की उदासीनता का फायदा उठाकर, संविधान की भावना का पूरी तरह से उल्लंघन करते हुए, संसद में प्रबल बहुमत के सहारे आरक्षण को पूरी तरह से खत्म करना भी भाजपा का एक संभावित कदम हो सकता है.
विपक्ष की तैयारी क्या है
आरक्षण पर खतरा सबसे ज्यादा इसलिए है क्योंकि भाजपा अगर इस दिशा में आगे बढ़ती है तो उसे रोकने के लिए विपक्ष की न तो तैयारी है और न ही मंशा. यहां तक कि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां भी इस मुद्दे पर या तो मौन हैं या केवल औपचारिकता के लिए बोलती हैं.
एक तरफ भाजपा आरक्षण के खिलाफ लगातार माहौल बनाने में लगी है, वहीं विपक्षी दल ये माने बैठे हैं कि जब भाजपा आरक्षण हटाएगी तो सारे एससी, एसटी और ओबीसी उससे नाराज होकर उसे सत्ता से हटा देंगे और इन दलों को सत्ता मिल जाएगी.
विपक्षी दलों में देखें, तो केवल कांग्रेस के ओबीसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ही इस मामले में थोड़े सक्रिय दिखते हैं, जिन्होंने छत्तीसगढ़ में आरक्षण आबादी के अनुपात में करने का ऐलान किया है. ओबीसी आरक्षण बढ़ाने का ऐलान कमलनाथ ने मध्यप्रदेश में भी किया है, लेकिन भाजपा की आरक्षण खत्म या बेअसर करने की कोशिश की काट उनके पास भी नहीं है. ऐसे में फिलहाल, केवल इंतजार ही किया जा सकता है कि भाजपा आरक्षण कब तक और किस तरह से खत्म करेगी.

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