बीआर अंबेडकर का हवाला देकर धारा 370 हटाने के फैसले को सही बताना कितना सही है?

दुष्यंत कुमार: जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के नरेंद्र मोदी सरकार के फ़ैसले पर राजनीतिक बहस जारी है. कांग्रेस सहित कई विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं, उधर, विपक्ष को झटका देते हुए बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और देश की बड़ी दलित नेता मायावती ने इसका समर्थन किया है. उन्होंने विपक्षी दलों के हालिया जम्मू-कश्मीर दौरे पर सवाल उठाते हुए संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर का हवाला दिया है. बीते सोमवार को एक ट्वीट में मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी ने धारा 370 को हटाए जाने के फ़ैसले का इसलिए समर्थन किया क्योंकि अंबेडकर इस प्रावधान के पक्ष में नहीं थे. बसपा सुप्रीमो का कहना था कि अंबेडकर हमेशा समानता, एकता और अखंडता के पक्षधर रहे.
यह पहली बार नहीं है जब धारा 370 को हटाए जाने के फ़ैसले को सही साबित करने के लिए बीआर अंबेडकर का हवाला दिया गया हो. मायावती से पहले केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल भी जम्मू-कश्मीर को लेकर अंबेडकर के एक कथित बयान के आधार पर कह चुके हैं कि अगर वे होते तो उनकी सरकार के इस फ़ैसले का समर्थन करते. यहां तक कि उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडूने भी अपने एक लेख में मोदी सरकार के इस क़दम को सही साबित करने के लिए अंबेडकर का ही सहारा लिया. उन्होंने भी कश्मीरी नेता शेख़ अब्दुल्ला से कहे अंबेडकर के उसी कथित बयान का ज़िक्र किया, जो कुछ यूं है :
आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, आपकी सड़कें बनाए, आपको खाना मुहैया कराए और आपको अपने जैसे ही अधिकार दे. लेकिन आप भारत और भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं देना चाहते. आप चाहते हैं कि कश्मीर में भारत सरकार की शक्तियां सीमित हों. ऐसे प्रस्ताव को सहमति देना भारत के हितों के ख़िलाफ़ एक ख़तरनाक क़दम होगा, और मैं देश का क़ानून मंत्री होने के नाते ऐसा नहीं करूंगा. मैं अपने देश के हितों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता.  
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क्या यह सच है?
बहुत जानकारों, जिनमें कई दलित चिंतक और वेबसाइटें शामिल हैं, का दावा है कि डॉ बीआर अंबेडकर के जिस बयान के हवाले से केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल, उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू तथा अन्य भाजपाई नेताओं ने कश्मीर से धारा 370 हटाने के फ़ैसले को सही साबित करने की कोशिश की, वह सच नहीं है. द वायर के उप-संपादक अजोय आशीर्वाद महाप्रशस्त लिखते हैं कि यह अंबेडकर के लेखों, साक्षात्कारों, पत्रों और भाषणों के औपचारिक दस्तावेज़ का हिस्सा नहीं है. उनके मुताबिक़ इस बयान का आधार 2016 में आई भारतीय राजस्व सेवा के पूर्व अधिकारी एसएन बुसी की एक किताब है. इसका नाम है डॉ बीआर अंबेडकर : फ्रेमिंग ऑफ इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन. और इस किताब में भी डॉ अंबेडकर के बारे में यह बात बलराज मधोक के हवाले से छापी गई है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लंबे समय तक जुड़े रहे बलराज मधोक भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे थे. जम्मू से ताल्लुक रखने वाले मधोक जिंदगी भर अनुच्छेद 370 के खिलाफ अभियान चलाते रहे. यही वजह है कि खुद एसएन बुसी सहित कई लोग मानते हैं कि मधोक के इस बयान के राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं.
बीआर अंबेडकर के संसदीय भाषण बताते हैं कि वे कश्मीर को भारत का हिस्सा मानते थे, लेकिन उसकी सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च के चलते भारत का विकास प्रभावित होने से वे चिंतित भी थे. उनका मानना था कि कश्मीर की सुरक्षा में ख़र्च होने वाला बजट देश की तरक़्क़ी में एक बड़ी बाधा है. इसीलिए उन्होंने तत्कालीन नेहरू सरकार से कहा था कि वह कश्मीर मसले का जल्द से जल्द समाधान करें. 1950 के अपने एक बयान में अंबेडकर कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि हम ये नहीं समझते कि कश्मीर समस्या का हल जितनी जल्दी हो उतना हमारे लिए अच्छा है.’ लेकिन यह समाधान वे सिर्फ एक सही लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिये ही चाहते थे. इस वजह से उन्होंने ‘क्षेत्रीय जनमत-संग्रह’ का भी सुझाव दिया था. इस संबंध में उन्होंने 1951 में कहा था, ‘वे (भारत सरकार) सिर्फ़ (कश्मीर में) सेना की तैनाती की बात करते हैं... जनमत-संग्रह का सवाल दुनिया में नया नहीं है. कोई इतिहास में देखे तो ऐसे उदाहरण मिलेंगे जब इस तरह की समस्या का हल जनमत-संग्रह द्वारा किया गया है.’
इसके अलावा उन्हें धारा 370 या ऐसे किसी भी संवैधानिक प्रबंध का विरोध करने से ज़्यादा चिंता इस बात की थी कि क्या इससे कश्मीर की समस्या हल हो जाएगी. 1951 में दिया गया उनका एक बयान इसका संकेत देता है. इसमें अंबेडकर का कहना था, ‘कश्मीर मुद्दे पर अहम सवाल यह नहीं है कि वहां कौन सही है, बल्कि यह है कि कश्मीर के लिए क्या सही है.’
इसका मतलब यह हुआ कि अंबेडकर कश्मीर समस्या का जल्द से जल्द समाधान तो चाहते थे लेकिन ऐसा पूरी तरह से लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ते से कश्मीर के हितों को सबसे आगे रखते हुए किया जाना चाहिए था. ऐसे में उनके जिस कथन का इस्तेमाल किया जा रहा है वह या तो अंबेडकर का है ही नहीं या फिर शेख अब्दुल्ला से किसी खास संदर्भ में उन्होंने ऐसा कहा होगा.
कश्मीर विभाजन का सुझाव
1951 में ही शेड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन यानी एससीएफ़ (1942 में दलित समुदाय के अधिकारों के लिए बना संगठन) के चुनावी घोषणापत्र में बीआर अंबेडकर ने लिखा, ‘भारत सरकार ने कश्मीर मुद्दे पर जो नीति अपनाई है वह एससीएफ़ को स्वीकार्य नहीं है. अगर यही नीति जारी रही तो इससे भारत और पाकिस्तान हमेशा के लिए शत्रु बन जाएंगे और दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावना बन जाएगी.’
इसमें आगे लिखा गया था, ‘एससीएफ़ का मानना है कि दोनों देशों के लिए एक-दूसरे का अच्छा पड़ोसी होना हितकर है. इस संबंध में पाकिस्तान को लेकर अपनाई जाने वाली नीति दो विचारों पर आधारित होनी चाहिए. पहला, भारत के विभाजन की समाप्ति के विषय में कोई बात नहीं होनी चाहिए. विभाजन को स्थायी तथ्य मानते हुए इस पर दोबारा बहस न हो और दोनों देश अलग स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बने रहें. दूसरा, कश्मीर का विभाजन होना चाहिए. मुसलमानों वाला इलाक़ा पाकिस्तान (जो भी कश्मीरी वहां जाना चाहे) में चला जाए और ग़ैर-मुस्लिम इलाक़ा जम्मू और लद्दाख में शामिल हो जाए.’
1950 में संविधान सभा की बैठक में कश्मीर के सवाल पर अंबेडकर ने कहा था, ‘अनुच्छेद 370 के बाद संसद के पास कश्मीर को लेकर कोई भी प्रावधान बनाने का अधिकार नहीं है. अब से कश्मीर के लोगों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर जम्मू-कश्मीर सरकार की राय अंतिम है.’ वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर अपने एक लेख में कहते हैं, ‘अंबेडकर 1956 तक जीवित रहे और ऐसा कोई डॉक्युमेंट नहीं है हमारे पास कि बाद में उन्होंने इस मामले में अपनी राय बदली.’
डॉ बीआर अंबेडकर की कश्मीर विभाजन की इस राय को मौजूदा भारतीय राजनीति के माहौल में किस तरह लिया जाता, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. इससे यह साफ़ होता है कि कश्मीर और धारा 370 के संबंध में अंबेडकर के विचारों को अपनी-अपनी सुविधा से जैसे चाहे पेश किया जा रहा है.
जैसा कि आईआईटी में प्रोफेसर रहे और अब सामाजिक कार्यकर्ता राम पुनियानी कहते हैं, ‘मेघवाल शायद कश्मीर के मुद्दे को उसकी समग्रता में समझ ही नहीं सके. वे इधर-उधर से इतिहास की कुछ घटनाओं को उठाकर उनका इस्तेमाल अपनी पार्टी के मनमाने निर्णय को सही ठहराने के लिए कर रहे हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इस निर्णय में पारदर्शिता और प्रजातांत्रिकता दोनों का अभाव है. बाबासाहब की राजनीति पूरी तरह पारदर्शी और सिद्धांतों पर आधारित थी। वे जो सोचते थे वही कहते थे और जो कहते थे वही करते थे. अंबेडकर, संविधान की मसविदा समिति के अध्यक्ष थे और इस समिति ने संविधान का जो मसविदा तैयार किया था, उसमें अनुच्छेद 370 शामिल था.’
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क्या अंबेडकर कश्मीर समस्या को इस तरह हल किए जाने का समर्थन करते?
अब सवाल यह उठता है कि डॉ बीआर अंबेडकर धारा 370 को हटाए जाने के मोदी सरकार के तरीक़े का समर्थन करते या नहीं. यह सवाल राजनीतिक या वैचारिक होने के साथ व्यक्तिपरक भी है. इसलिए इस पर किसी तरह की प्रतिक्रिया देने से पहले अंबेडकर के व्यक्तित्व को भी समझना होगा.
20 मार्च, 1927 की तारीख़ दलित क्रांति के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है. उसी दिन डॉ भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में हज़ारों ‘अछूतों’ ने महाराष्ट्र के महाड स्थित चवदार तालाब का पानी पिया था. सवर्णों के ख़िलाफ़ यह खुला विद्रोह था, लिहाज़ा उन्होंने अछूतों को सबक़ सिखाने की ठान ली. अंबेडकर पर लिखी अपनी किताब में लेखक वसंत मून बताते हैं कि कट्टरपंथी सवर्णों ने अलग-अलग टोलियां बना कर अछूतों पर हमले किए और कइयों के सिर फोड़ दिए.
अमूमन वंचित समाज के लोग ऐसी बातों पर कुछ नहीं कहते थे, लेकिन इस बार उन्होंने हिंसा का जवाब हिंसा से देने का फ़ैसला कर लिया. लेकिन यह अंबेडकर थे जिन्होंने अपने समाज के लोगों को बुरी तरह घायल देखने के बाद भी उन्हें संयम बरतने और शांति बनाए रखने को कहा. उधर, सवर्णों ने तालाब के ‘शुद्धिकरण’ के लिए उसमें गोबर और गोमूत्र डलवा दिया. उसके बाद अंबेडकर ने एक और सत्याग्रह की तैयारी की, लेकिन उसे भी उन्हें स्थगित करना पड़ा. आख़िरकार उन्होंने कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. नौ साल के अदालती संघर्ष के बाद दिसंबर, 1936 में उन्होंने क़ानूनी तरीक़े से अछूतों को चवदार तालाब का पानी पीने का अधिकार दिलवाया.
बीआर अंबेडकर के जीवन संघर्ष से जुड़े ऐसे कई अनुभव हैं जो बताते हैं कि वे न सिर्फ़ संविधान और नियम-क़ानून को लेकर हमेशा दृढ़ और विवेकशील रहे, बल्कि बेहद तनावपूर्ण स्थितियों में भी उन्होंने संयम ही बरता. वे समस्याओं का हल हिंसा या दबाव के ज़रिये निकालने के समर्थक नहीं थे. यह सब जानने के बाद क्या दावा किया जा सकता है कि अंबेडकर कश्मीर और कश्मीरियों से जुड़े किसी ऐसे फ़ैसले का समर्थन करते जिसमें संवैधानिक रूप से जरूरी होने के बावजूद उनकी और उनके राजनीतिक नेतृत्व की सहमति नहीं ली गई! राम पुनियानी कहते हैं, ‘बाबासाहब की प्रजातंत्र में अटूट आस्था थी और अगर वे आज होते तो निश्चित रूप से कहते कि कश्मीर के लोगों की राय को सर्वोपरि माना जाना चाहिए.’

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