जम्मू कश्मीर: यह ख़ामोशी ही इस वक़्त की सबसे ऊंची आवाज़ है

15 अगस्त. भारत ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है और राजधानी दिल्ली के ट्रैफिक भरे चौराहों पर चिथड़ों में लिपटे नन्हे बच्चे राष्ट्रीय ध्वज और कुछ अन्य स्मृति चिह्न बेच रहे हैं, जिन पर लिखा है, ‘मेरा भारत महान’. ईमानदारी से कहें तो इस पल ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा क्योंकि लग रहा है जैसे हमारी सरकार धूर्तता पर उतर आई है.
पिछले सप्ताह सरकार ने एकतरफा फैसला लेते हुए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, की उन मौलिक शर्तों को तार-तार कर दिया जिनके आधार पर जम्मू-कश्मीर की पूर्व रियासत भारत में शामिल हुई थी. इसकी तैयारी के लिए 4 अगस्त को पूरे कश्मीर को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया गया. सत्तर लाख कश्मीरी को अपने घरों में बंद कर दिए गए, इंटरनेट और टेलीफोन सेवाएं भी बंद कर दी गई.
5 अगस्त को भारत के गृह मंत्री ने संसद में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त कर देने का प्रस्ताव रखा. यह अनुच्छेद ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, में तय कानूनी दायित्वों को परिभाषित करता है. विपक्षी दल भी हाथ मलते रह गए. अगली शाम को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया.

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इस एक्ट के माध्यम से जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जा समाप्त हो गया जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को अपना अलग संविधान और अलग झंडा रखने का अधिकार था. इसके एक्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया. पहला, जम्मू-कश्मीर जिसे केंद्र सरकार द्वारा संचालित किया जाएगा, जिसके पास निर्वाचित विधानसभा तो होगी लेकिन उसके पास शक्तियां बहुत कम होगी. दूसरा लद्दाख, इसे भी केंद्र सरकार संचालित करेगी पर इसके पास अपनी विधानसभा नहीं होगी.
संसद में इस एक्ट के पारित होते ही, ब्रिटिश-परंपरा के अनुसार, मेज थपथपाकर इसका स्वागत किया गया. सदन में उपनिवेशवाद की बयार बह रही थी. हुक्मरान खुश हो रहे थे कि एक अक्खड़ उपनिवेश को, निसन्देह उसके अपने फायदे के लिए, आखिरकार शाही ताज के अधीन कर लिया गया गया है.
भारतीय नागरिक अब अपने इस नये अधिकार क्षेत्र में ज़मीन खरीद सकते हैं और वहां बस सकते हैं. इन नये प्रदेशों के दरवाजे व्यापार के लिए भी खुले हैं. देश के सबसे अमीर उद्योगपति- रिलायंस के मुकेश अंबानी ने शीघ्र ही कई नई घोषणाएं करने का वादा तक कर दिया है.
इस सबका असर लद्दाख और कश्मीर में स्थित हिमालय की नाज़ुक पारिस्थिकी, विशाल ग्लेशियरों वाले भूखंड, अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित झीलों और वहां की पांच मुख्य नदियों पर क्या होग – इसकी परवाह किसी को नहीं है.
प्रदेश के विशेष कानूनी दर्जे को खत्म करने से अनुच्छेद 35ए भी खत्म हो गया जिसके चलते वहां के निवासियों को वे हक़ और विशेषाधिकार प्राप्त थे जो उन्हें अपने प्रदेश का प्रबंधक भी बनाते थे. इसलिए, यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि ‘व्यापार के लिए दरवाजे खोल देने’ का अर्थ वहां इजराइल की तरह बसावट या तिब्बत की तरह आबादी के तबादले के लिए दरवाजे खोल देना भी हो सकता है.
कश्मीरियों का सबसे पुराना और असल डर यही रहा है. उनका सबसे डरावना ख्वाब कि उनकी हरी-भरी घाटी में एक अदद मकान की इच्छा रखने वाले विजयी भारतीयों का तूफान उन्हें बहाकर ले जाएगा, आसानी से सच भी हो सकता है.
जैसे ही इस एक्ट के पारित होने का समाचार प्रचारित हुआ, हर तरह के भारतीय राष्ट्रवादी झूम उठे. मुख्यधारा का मीडिया, ज़्यादातर इस निर्णय के समक्ष नतमस्तक दिखा. लोग गलियों में नाच रहे थे और इंटरनेट पर भयानक स्त्रीद्वेषी माहौल था.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राज्य के विषम लिंगानुपात को सुधारने संबंधी अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए मज़ाक किया, ‘हमारे धनखड़ जी कहते थे कि हम बिहार से लड़कियां लायेंगे. अब कहा जा रहा है कि कश्मीर भी खुला है, वहां से भी लड़कियां ला सकते हैं.’
इस तरह के असभ्य उत्सव के शोर-शराबे से कहीं ज्यादा – गश्त लगाते सुरक्षाबलों से भरी और बैरिकेडों से बंद गलियों और उनमे रहने वाले कैद और कांटेदार तारों से घिरे, करीब सत्तर लाख अपमानित कश्मीरी, जिन पर ड्रोन से लगातार चौकसी की जा रही है और जो बाहर की दुनिया से कोई संपर्क साध पाने की स्थिति में नहीं हैं, के सन्नाटे की आवाज़ आज सबसे ज्यादा बुलंद है. 
सूचना के इस युग में, कोई सरकार कितनी आसानी से एक पूरी आबादी को बाकी दुनिया से कैसे काट भी सकती है; इससे पता लगता है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं.
कश्मीर के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह ‘विभाजन’ के अधूरे कामों में से एक है. ‘विभाजन’- जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप के बीच में अत्यंत लापरवाही से एक लकीर खीच दी और यह मान लिया गया कि उन्होंने ‘संपूर्ण’ को विभाजित कर दिया है. सच यह है की ‘संपूर्ण: जैसा कुछ था नहीं.
ब्रिटेन के अधीन भारत के अतिरिक्त ऐसे  सैकड़ों आज़ाद रजवाड़े थे जिनसे अलग-अलग मोल-तोल किया गया कि वे किन शर्तों पर भारत या पाकिस्तान के साथ जायेंगे. जो रियासतें इसके लिए तैयार नहीं थीं, उनसे जबरदस्ती मनवा लिया गया.
एक और विभाजन और उसके दौरान हुई हिंसा ने उपमहाद्वीप को पीड़ा और कभी न भर सकने वाले जख्म दिए, वहीं दूसरी ओर उस दौर की हिंसा और बाद के सालों में भारत और पाकिस्तान में हुई हिंसा का, कई इलाकों के अनुकूलन (assimilation) की प्रक्रिया से वैसा ही वास्ता है जैसा विभाजन से.
राष्ट्रवाद के नाम पर अन्य प्रदेशों की इस सम्मिलन अथवा अनुकूलन परियोजना का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि 1947 के पश्चात कोई भी साल ऐसा नहीं गया जब भारतीय सेना को भारत में ही ‘अपने लोगों’ के विरुद्ध तैनात न किया गया हो: और यह सूची बहुत लंबी है– कश्मीर, मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर, हैदराबाद, असम.
अनुकूलन की प्रक्रिया न सिर्फ अत्यंत जटिल एवं पीड़ादायी रही है बल्कि इसने हजारों जानें भी ली हैं. आज पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर की सीमा के दोनों ओर जो हो रहा है वह अधकचरे अनुकूलन का नमूना है.
पिछले सप्ताह जो कुछ भारतीय संसद में हुआ वह इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ के अंतिम-संस्कार जैसा था. जटिल स्थितियों से उत्पन्न से इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे पहले से ही भरोसा खो चुके हिंदू डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह ने. उनकी अस्थिर और खस्ताहाल रियासत भारत और पाकिस्तान की नई सीमा के बीचों बीच फंस कर रह गई थी. 

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1945 में उनके खिलाफ हुई बगावत ने जोर पकड़ लिया था और विभाजन की आग ने इसे और भड़का दिया. पुंछ के पश्चिमी पर्वतीय जिले के बहुसंख्यक मुसलमान महाराजा की सेना और हिंदू नागरिकों से भिड़ गए. और उधर दक्षिण स्थित जम्मू में महाराजा की सेना ने दूसरी रियासतों की फ़ौज की मदद से मुसलमानों का कत्लेआम शुरू कर दिया.
इतिहासकारों और अन्य कई रिपोर्टों के अनुसार जम्मू और आसपास के शहरों की गलियों में 70,000 से 2,00,000 बीच लोग मौत के घाट उतार दिए गए. जम्मू में हुए नरसंहार की खबर सुनकर उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश के पर्वतों से उतरे पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर घाटी में आगजनी और लूटपाट से हाहाकार मचा दिया.
हरि सिंह कश्मीर से जम्मू दौड़े और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु से मदद के लिए गुहार लगाईं. जिस दस्तावेज के तहत भारत की सेना को कश्मीर में कानूनी रूप से दाखिल हो पाई, उसे ही ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है. स्थानीय लोगों की मदद से भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कबायलियों को पीछे तो धकेल दिया, पर सिर्फ घाटी के मुहाने के पहाड़ों तक ही. और इस तरह पूर्व डोगरा राज्य भारत और पाकिस्तान में बंट गया.
‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ नाम के इस दस्तावेज़ की, जम्मू-कश्मीर के लोंगों के बीच, एक जनमत संग्रह के माध्यम से उनकी राय लेकर पुष्टि की जानी थी. जिस जनमत संग्रह का वादा किया गया था वह कभी पूरा नहीं हुआ. और इसी के साथ भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे अशिष्ट और खतरनाक राजनीतिक समस्या का जन्म हुआ.
तबसे बीते 72 साल में आई हर केंद्र सरकार ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ की शर्तों के साथ तब तक खिलवाड़ किया जब तक यह सिर्फ दिखावे मात्र का नहीं रह गया. अब उस बचे-खुचे दिखावे को भी उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है.
यहां तक आने में क्या जोड़-तोड़ हुए, उसका सार लिखना की कोशिश एक बेवकूफी ही होगी। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि यह सब उतना ही जटिल और भयानक है, जितना 50 और 60 के दशक में अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम में अपने कठपुतली शासकों के साथ खेला था.
चुनावी जोड़-तोड़ के लंबे अध्याय के बाद 1987 में वो विभाजनकारी दौर आया, जब नई दिल्ली ने नीचता की हद तक जाकर राज्य के चुनावों में बड़े स्तर पर धांधली की. 1989 आते-आते आत्म-निर्णय की यह अहिंसक मांग पूरी तरह आजादी की एक लड़ाई में बदल गई. हजारों लोग सड़कों पर उतर आये और एक के बाद एक कत्लेआम के शिकार होने लगे.
जल्द ही कश्मीर घाटी, पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित और हथियारों से लैस करवाए गए कश्मीरी आतंकी- जिनमें सीमा के दोनों ओर के कश्मीरी थे- और विदेशी लड़ाकों से भर गई, जिनका अधिकांश इलाके में कश्मीरी लोगों ने भी साथ दिया.
एक बार फिर कश्मीर पूरे उपमहाद्वीप पर छाये राजनीतिक बवंडर में फंस गया– एक तरफ पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आया इस्लाम का कट्टर रूप, जिससे कश्मीरी संस्कृति का कभी कोई वास्ता नहीं रहा था और दूसरी ओर भारत में धर्मांध हिंदू राष्ट्रवाद अपने उभार पर था.
इस विद्रोह की पहली बलि चढ़ा, सदियों पुराना कश्मीरी मुसलमानों और स्थानीय तौर पर कश्मीरी पंडित के नाम से जाना जाने वाले अल्पसंख्यक हिंदुओं का रिश्ता.
स्थानीय संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के अनुसार, जब हिंसा शुरू हुई तो आतंकवादियों द्वारा करीब 400 पंडितों को निशाना बनाकर उनकी हत्या कर दी गई. सरकारी अनुमान के मुताबिक 1990 के आखिर तक 25,000 पंडित परिवार घाटी छोड़ कर चले गए.
कश्मीरी पंडितों से न सिर्फ अपना घर और जन्मभूमि बल्कि जो कुछ भी उनके पास था, सब छिन गया. अगले कुछ वर्षों में हजारों और चले गए– लगभग सारे पंडित परिवार. संघर्ष जब और बढ़ा तो हजारों मुसलमानों के अलावा, केपीएसएस के अनुसार 650 पंडित भी मारे गए.
तब से बड़ी संख्या में पंडित जम्मू स्थित शरणार्थी शिविरों में अत्यंत विकट स्थितियों में रह रहे हैं. बीते 30 सालों में किसी भी सरकार ने उनको घर लौटाने का कोई प्रयास नहीं किया. उन्हें यथास्थिति में बनाये रख उनके गुस्से और कड़वाहट को कश्मीर के बारे में सबसे प्रभावी राष्ट्रवादी नैरेटिव के रूप में इस्तेमाल किया. गया.
इस पूरी त्रासद-कथा के एक पक्ष पर हो-हल्ला मचाकर बड़ी चतुराई से बाकी पूरे भयावह कथानक पर पर्दा डाल दिया गया. आज कश्मीर दुनिया के सबसे बड़े सैन्य क्षेत्रों में से एक है – या शायद दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य क्षेत्र.
मुठ्ठी भर ‘आतंकवादियों’ को काबू करने के लिए पांच लाख सैनिक नियुक्त किए गए हैं, इस तथ्य को सेना ने भी स्वीकार किया है. पूर्व में भले ही इस बारे में संदेह भी रहा हो पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि वास्तविक दुश्मन कश्मीरी लोग हैं.
भारत ने पिछले 30 वर्षों में कश्मीर में जो कुछ किया है वह अक्षम्य है. इस संघर्ष में अब तक करीब 70,000 लोग, जिनमें आम नागरिक, आतंकी और सेना के जवान सभी शामिल हैं, मारे गए हैं. सैकड़ों  लोग लापता हैं. हजारों लोग इराक की अबु-गरेब जेल जैसी पीड़ा से गुज़रे हैं. 
पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों किशोरों को पैलेट गन के छर्रों ने अंधा किया है. सुरक्षा संस्थानों के लिए पैलेट गन भीड़ को नियंत्रित करने का पसंदीदा हथियार है. कश्मीरी लड़ाकों में अधिकांश  नौजवान है जिन्हें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित किया जाता है और उन्हें हथियार मुहैया कराये जाते हैं.
वे यह भली भांति जानते होते हैं कि हाथ में बंदूक लेने के बाद उनकी जिंदगी छह महीने से ज्यादा की नहीं है. जब भी कोई ‘आतंकवादी’ मारा जाता है तो हजारों कश्मीरी उसे एक शहीद के तौर पर सम्मान देते हुए उसकी जनाज़े में शामिल होते हैं.
तीस साल से सेना के कब्ज़े का यह मोटा-मोटा लेखा-जोखा है. बीते दशकों में इस कब्जे के क्या-क्या भयानक प्रभाव पड़े हैं, उन सबका ब्यौरा इस छोटे-से लेख में दे पाना नामुमकिन है.
प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में उनके कट्टर रुख के चलते कश्मीर में हिंसा की स्थिति बदतर ही हुई है. इसी साल फरवरी में, जब कश्मीर में एक आत्मघाती हमले में  सुरक्षाबल के 40 जवान मारे गए तो भारत ने पाकिस्तान पर हवाई हमला कर दिया. पाकिस्तान ने भी ठीक उसी रूप में इस हमले का जवाब दिया.
इतिहास में यह पहली बार हुआ कि दो देश, जो न्यूक्लियर ताकतें भी हैं, ने एक दूसरे पर हवाई हमले किए हों. मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले दो महीने में सरकार ने अपनी सबसे खतरनाक चाल चल दी है और यह काम बारूद को चिंगारी दिखाने जैसा है.
हद तो तब हो गई जब इस सारे काम को बड़े सस्ते, धोखेबाजी और शर्मनाक तरीके से अंजाम दिया गया. जुलाई के अंतिम सप्ताह में किसी न किसी बहाने से कश्मीर में 45,000 आतिरिक्त सुरक्षाबल तैनात कर दिए गए.
इस बात को सबसे ज्यादा उछाला गया कि अमरनाथ यात्रियों पर पाकिस्तानी ‘आतंक’ का साया मंडरा रहा है.
अमरनाथ यात्रा में हर साल लाखों हिंदु श्रद्धालु ऊंचे पहाड़ों के बीच से पैदल (या कश्मीरी पिट्ठू ढोने वालों की मदद से) अमरनाथ गुफा तक जाते हैं और प्राकृतिक रूप से बर्फ से निर्मित एक आकृति- जिसे वे शिव का अवतार मानते हैं-  की पूजा करते हैं.
1 अगस्त को कुछ भारतीय टीवी चैनलों ने एक खबर प्रसारित की जिसके अनुसार अमरनाथ यात्रा के रास्ते पर एक बारूदी सुरंग पाई गई है, जिस पर पाकिस्तानी निशान अंकित है. 2 अगस्त को सरकार ने एक नोटिस जारी किया और न केवल अमरनाथ यात्रियों को बल्कि सामान्य पर्यटकों को भी, जो अमरनाथ यात्रा के रास्ते से काफी दूर थे, तुरंत घाटी छोड़ने का आदेश दे दिया.
करीब दो लाख प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों की फिक्र किसी को नहीं थी. मेरे ख्याल से वे इतने गरीब थे कि उनकी परवाह कोई मायने नहीं रखती. 3 अगस्त शनिवार तक सभी तीर्थयात्री और पर्यटक चले गए और पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाबलों तैनात हो गए.
रविवार की आधी रात तक घेराबंदी कर कश्मीरियों को अपने-अपने घर तक सीमित कर दिया गया और संचार के सभी साधन ठप कर दिए गए. अगली सुबह हमें पता लगा कि जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूख अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ़्ती को गिरफ्तार कर लिया गया है.
ये सब मुख्यधारा के भारत समर्थक राजनेता हैं जो मुश्किल हालात में भी भारत के साथ खड़े रहें हैं. अखबारों में खबर है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस से हथियार ले लिए गए हैं. जम्मू-कश्मीर के पुलिसकर्मी हमेशा किसी भी संघर्ष में अग्रणी पंक्ति में रहे हैं. उन्होंने फ़ौज के लिए जमीनी काम किया, उसकी हर तरह से मदद की.

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