तीन तलाक़ के बाद बीजेपी के निशाने पर अब समान नागरिक संहिता?

मुसलिम महिलाओं को तीन तलाक़ से मुक्ति दिलाने और जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करने में मोदी सरकार को मिली सफलता के बाद एनडीए के घटक दलों ने देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की माँग शुरू कर दी है। शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे द्वारा समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर ज़ोर दिए जाने के बाद पार्टी के मुखपत्र में इस बारे में प्रकाशित संपादकीय इस संभावना को बल प्रदान करता है। बीजेपी ख़ुद अर्से से इसकी माँग करती रही है। तो क्या अब समान नागरिक संहिता की बारी है?
लेकिन सवाल उठता है कि क्या देश में समान नागरिक संहिता लागू करना सहज है? शायद नहीं। संविधान के अनुच्छेद 44 में भले ही एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करने की बात कही गयी है, लेकिन वास्तव में यह प्रावधान मृत प्राय है। इस तथ्य को देश की शीर्ष अदालत भी स्वीकार करती है और उसने 1985 के बहुचर्चित शाहबानो प्रकरण में अपने फ़ैसले में कुछ इसी तरह की राय भी व्यक्त की थी।
संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है, ‘शासन भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’ हालाँकि यह प्रावधान शुरू से संविधान में है लेकिन इसकी संवेदनशीलता और देश की सांस्कृतिक तथा पारंपरिक विविधता को देखते हुए इसे मूर्तरूप देने की दिशा में कभी भी कोई ठोस क़दम नहीं उठाया जा सका है।
सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता बनाने के बारे में अप्रैल, 1985 में संभवतः पहली बार कोई सुझाव दिया था। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने तलाक़ और गुजारा भत्ता जैसे महिलाओं से जुड़े मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में देश में समान नागरिक संहिता बनाने पर विचार का सुझाव दिया था। संविधान पीठ की राय थी कि समान नागरिक संहिता देश में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में मददगार होगी लेकिन उसे इस बात का भी अहसास था कि कोई भी समुदाय इस विषय पर रियायत देते हुए बिल्ली के गले में घंटी बांधने का प्रयास नहीं करेगा।
शाहबानो प्रकरण के बाद भी देश की शीर्ष अदालत ने इस बारे में सुझाव दिए क्योंकि वह महसूस कर रही थी कि समान नागरिक संहिता के अभाव में हिन्दू विवाह क़ानून के तहत विवाहित पुरुषों द्वारा पहली पत्नी को तलाक़ दिए बगैर ही धर्म परिवर्तन करके दूसरी शादी करने की घटनाएँ बढ़ रही थीं।
क्या है उलझन?
नब्बे के दशक में धर्म परिवर्तन कर दूसरी शादी करने से उपजे विवाद को लेकर एक मामला उच्चतम न्यायालय पहुँचा था। इस मामले में न्यायालय के समक्ष विचारणीय सवाल थे- क्या हिन्दू क़ानून के तहत विवाह करने वाला हिन्दू पति इसलाम धर्म अपना कर दूसरी शादी कर सकता है, क्या हिन्दू क़ानून के तहत पहला विवाह भंग किए बगैर किया गया दूसरा विवाह वैध होगा? क्या ऐसा करने वाला पति भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत दोषी होगा?
न्यायालय ने कहा कि पहले विवाह को क़ानूनी प्रावधानों के तहत विच्छेद किए बगैर ही इसलाम धर्म कबूल करके हिन्दू पति द्वारा किया गया दूसरा विवाह वैध नहीं होगा। इस तरह की दूसरी शादी भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के प्रावधानों के तहत अमान्य है और ऐसे मामले में पति इस धारा के तहत अपराध का दोषी है।
हालाँकि, न्यायालय ने धर्म का दुरुपयोग रोकने के इरादे से धर्म परिवर्तन क़ानून बनाने की संभावना तलाशने के लिए एक समिति गठित करने पर विचार करने का भी सुझाव दिया था और कहा था कि इस क़ानून में प्रावधान किया जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है तो वह अपनी पहली पत्नी को विधिवत तलाक़ दिए बगैर दूसरी शादी नहीं कर सकेगा और यह प्रावधान प्रत्येक नागरिक पर लागू होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू विवाह क़ानून के तहत पहली पत्नी के रहते हुए इसलाम धर्म कबूल कर दूसरी शादी करने को लेकर उपजे विवाद में कहा था कि ऐसी स्थिति में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर संदेह नहीं किया जा सकता है। लेकिन, इसके विपरीत, विधि आयोग का मानना है कि फ़िलहाल देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है। आयोग का मत है कि ऐसा करने की बजाय विभिन्न समुदायों और धर्मों से संबंधित कुटुम्ब क़ानूनों (पर्सनल लॉ) के साथ ही विशेष विवाह क़ानून, अभिभावक और आश्रित क़ाननू व कुछ अन्य क़ानूनों की ख़ामियों को चरणबद्ध तरीक़े से दूर करके इन्हें संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अनुरूप बनाना अधिक बेहतर होगा।
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समान नागरिक संहिता के बारे में उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों और सुझावों तथा विधि आयोग के परामर्श पत्र के बाद भी देश में इसे लागू करने की बात हास्यास्पद ही लगती है, क्योंकि विविधताओं से भरपूर हमारे देश में इसे मूर्तरूप देना व्यावहारिक नहीं लगता। वोट की राजनीति के लिए इस तरह के मुद्दे को हवा देते रहना एक अलग रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
क्या समान नागरिक संहिता संभव है?
राजनीतिक दल भले ही तीन तलाक़ को अपराध की श्रेणी में शामिल करने और जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों और अनुच्छेद 35ए ख़त्म किए जाने के राष्ट्रपति के आदेश से अतिउत्साहित होकर समान नागरिक संहिता बनाने की माँग करने लगें लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा करना संभव नहीं लगता है। इसकी मुख्य वजह संविधान के अनुच्छेद 371ए से अनुच्छेद 371आई तक के विशेष प्रावधान हैं जो असम, सिक्किम, अरुणाचल, नगालैंड, मिज़ोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा के संबंध में हैं। इन विशेष प्रावधानों को ख़त्म करने या निष्प्रभावी बनाना सरकार के लिए बेहद चुनौती भरा काम है।
मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान इस दिशा में पहल की थी और उसने 17 जून, 2016 को विधि आयोग से समान नागरिक संहिता के संदर्भ में कुछ बिन्दुओं पर विचार करने का आग्रह किया था। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डॉ. बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 31 अगस्त 2018 को सरकार को सौंपे अपने परामर्श प्रपत्र में विभिन्न क़ानूनों में उचित संशोधन करने का सुझाव देते हुए कहा कि फ़िलहाल समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है। आयोग का कहना था कि समान नागरिक संहिता बनाने के मार्ग में कुछ बाधाएँ हैं। इनमें पहली बाधा के रूप में आयोग ने संविधान के अनुच्छेद 371 और इसकी छठी अनुसूची की व्यावहारिकता का उल्लेख किया है।
संविधान का अनुच्छेद 371(ए) से (आई) तक में असम, सिक्किम, अरुणाचल, नगालैंड, मिज़ोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा के संदर्भ में कुछ विशेष प्रावधान हैं। संविधान के 13वें संशोधन के माध्यम से 1962 में अनुच्छेद 371-ए संविधान में शामिल किया गया था। इसमें कहा गया था कि नगा समुदाय की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नगा रूढ़िजन्य विधि और प्रक्रिया, दीवानी और दंड न्याय प्रशासन तथा भूमि और उसके संपत्ति स्रोतों के स्वामित्व और अंतरण पर संसद का कोई भी क़ानून उस समय तक लागू नहीं होगा जब तक राज्य विधानसभा इसे पारित नहीं करती है। अनुच्छेद 371-बी से 371-आई तक पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों को भी इसी तरह की छूट प्राप्त है। 

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