सुषमा-मोदी की केमिस्ट्री: कितनी सच्ची, कितनी झूठी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दिवंगत सुषमा स्वराज के संबंधों के कई आयाम हैं. पर उन्हें देश या भाजपा की राजनीति में परस्पर सामंजस्य वाली जोड़ी के रूप में शायद नहीं देखा जाता. फिर इसे किस रूप में देखा जाना चाहिए, यह सवाल बहुत से लोगों के मन में उठता है. भारतीय राजनीति में जोड़ियों की अक्सर चर्चा होती है. इसमें दो जोड़ियों की चर्चा ज़्यादा होती है. एक, जवाहर लाल नेहरू- सरदार पटेल और दूसरी, अटल बिहारी वाजपेयी- लाल कृष्ण आडवाणी की. इत्तेफ़ाक़ से दोनों ही देश के प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री की जोड़ियां है. इन जोड़ियों में एक नेता को उदार और दूसरे को कट्टरपंथी समझा जाता था.
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पर दोनों एक दूसरे के विचार का सम्मान करते थे. सरदार पटेल के निधन से नेहरू-पटेल की जोड़ी आज़ादी के बाद ज़्यादा समय तक बनी नहीं रह पाई. मोदी और सुषमा की जोड़ी में बाक़ी दोनों जोड़ियों की तरह एक बात सामान्य है कि इसमें शामिल नेता राजनीतिक जीवन में एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी रहे हैं. सरदार पटेल प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे तो लाल कृष्ण आडवाणी भी. सुषमा स्वराज 2009 से 2014 तक लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता थीं. उस समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. भारत ने ब्रिटेन की जिस वेस्ट मिनिस्टर पद्धति को अपनाया है, उसमें प्रतिपक्ष का नेता 'शैडो प्रधानमंत्री' माना जाता है. पर भारत में यह परम्परा चली नहीं. साल 1969 से पहले लोकसभा में कोई प्रतिपक्ष का नेता रहा ही नहीं. क्योंकि किसी विपक्षी पार्टी को इतनी सीटें नहीं मिलीं कि उसे यह दर्जा मिल सके. कांग्रेस के विभाजन के बाद पहली बार राम सुभग सिंह लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता बने.
हम यहां मोदी और सुषमा स्वराज की बात कर रहे हैं. मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने के संकेत पहली बार साल 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद मिले. उस समय दिल्ली में भाजपा के दूसरी पीढ़ी के नेता एक दूसरे को निपटाने में जुटे थे. अन्ना आंदोलन से जनमानस के मन में एक बात घर कर गई कि देश को इस समय एक ईमानदार और निर्णायक नेतृत्व की ज़रूरत है. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दस साल के कामकाज से मोदी की ऐसे नेता की छवि बन गई थी. फिर शुरू हुआ भाजपा में नेतृतव के संघर्ष का दौर. लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी का एक ख़ेमा मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के ख़िलाफ़ था. सुषमा आडवाणी के सेनापति की भूमिका में थीं. सुषमा स्वराज के उदार चेहरे के सामने मोदी का अनुदार या कट्टर चेहरा था.
पहले बात आई चार राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति की. आडवाणी ख़ेमा मोदी को यह ज़िम्मेदारी भी देने के लिए तैयार नहीं था. उस समय तक राजनाथ सिंह एक बार फिर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, की तर्ज़ पर वे मोदी के साथ हो गए. सुषमा स्वराज उस समय तक आडवाणी के सबसे विश्वस्त सिपहसालार के रूप में स्थापित हो चुकी थीं. दरअसल भाजपा में मोदी के केंद्र में आने की संभावना मात्र से दूसरी पीढ़ी के नेता आशंकित थे. सबके ज़ेहन में बहुत से मुद्दे थे. पर सुषमा स्वराज के ज़ेहन में शायद एक घटना स्थायी रूप से दर्ज हो चुकी थी. बात 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव की थी.
मोदी हरेन पंड्या को टिकट नहीं देना चाहते थे. दिल्ली से अटल बिहारी वाजपेयी के कहने पर आडवाणी, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू गांधीनगर गए. मोदी के साथ बैठक हुई. आडवाणी ने कहा कि पार्टी चाहती है कि पंड्या को टिकट मिले. मोदी ने कहा आप चाहें तो उन्हें दिल्ली ले जाएं. कहेंगे तो राज्यसभा में भिजवा सकता हूं लेकिन विधानसभा का टिकट नहीं दूंगा.
आडवाणी नहीं माने तो मोदी का जवाब था कि फिर किसी और के नेतृतव में विधानसभा चुनाव लड़वा लीजिए. मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा. तीनों नेता चुपचाप दिल्ली लौट आए. साल 2008 में राजस्थान विधानसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी नेतृत्व प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन चाहता था. वसुंधरा राजे सिंधिया ने धमकी दी कि ऐसा किया तो पार्टी तोड़कर क्षेत्रीय दल बना लेंगी. सुषमा स्वराज को बात पता चली तो बिफर गईं, बोलीं इस पार्टी में सब नरेन्द्र मोदी बनना चाहते हैं. कोई अनुशासन मानने को तैयार नहीं है.
मई 2013 में गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी. पहली बार ऐसा हुआ कि आडवाणी बैठक में नहीं आए. इस उम्मीद में कि वे नहीं जाएंगे तो मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला टल जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. सुषमा स्वराज गोवा से ग़ुस्से में लौटीं. अब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का फ़ैसला संसदीय बोर्ड की बैठक में होना था. वहां आडवाणी गुट का बहुमत था. मोदी के उम्मीदवार बनने की संभावना से नीतीश कुमार एनडीए छोड़ने की धमकी दे रहे थे. सुषमा ने उन्हें आश्वस्त किया कि संसदीय बोर्ड में यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाएगा. पर संसदीय बोर्ड की बैठक में पहुंचते ही सुषमा स्वराज को अंदाज़ा हो गया कि मोदी ने बाज़ी पलट दी है.
पर सुषमा अपने रुख़ पर क़ायम रहीं. उन्होंने कहा तुम सब लोग पछताओगे. मेरी असहमति औपचारिक रूप से दर्ज करो. उनकी असहमति भी दर्ज हुई और मोदी के पक्ष में प्रस्ताव भी पास हुआ. मोदी और सुषमा का पार्टी के अंदर यह पहला सीधा मुक़ाबला था, जो मोदी जीते. भाजपा में मोदी विरोधियों की अब एक ही उम्मीद बची थी. यह कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा और सरकार बनाने के लिए सहयोगी दलों की शर्त होगी कि भाजपा मोदी के अलावा किसी और को नेता चुने. सुषमा, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी तीनों को इसमें अपने लिए संभावना नज़र आ रही थी. पर मतदाताओं ने सबको निराश किया. भाजपा को अकेले दम पर बहुमत मिल गया.
मंत्रिमंडल बनने से पहले पार्टी में सब मानकर चल रहे थे कि मोदी सुषमा स्वराज की असहमति को भूले नहीं होंगे. इसलिए सुषमा का नाम मंत्रियों की सूची में नहीं होगा. पर ऐसा नहीं हुआ. शपथ के बाद कहा गया कि उन्हें कोई महत्वहीन मंत्रालय दे दिया जाएगा. पर मोदी ने उन्हें देश की पहली पूर्णकालिक विदेश मंत्री बनाया. इंदिरा गांधी के बाद पहली बार कोई महिला कैबिनेट की सबसे अहम सुरक्षा मामलों की समिति की सदस्य बनीं. इसके बाद पांच साल तक दोनों की केमिस्ट्री ऐसी रही जैसे कभी कोई कड़वाहट थी ही नहीं. उसके दो कारण थे.
मोदी की जीत के बाद सुषमा ने पार्टी के फ़ैसले को स्वीकार कर लिया और पांच साल में कभी मोदी के ख़िलाफ़ सार्वजनिक या निजी रूप से कुछ नहीं बोला. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के मुताबिक़ प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी को भी लगा कि वे युद्ध जीत चुके हैं. सुषमा स्वराज की ख़ूबियों को वे जानते थे. यही कारण है कि जिस भी कार्यक्रम में दोनों होते थे प्रधानमंत्री अपनी विदेश मंत्री की तारीफ़ करना भूलते नहीं थे. सुषमा ने भी प्रधानमंत्री की प्रशंसा करने में दरियादिली दिखाई. कड़वाहट और प्रतिद्वन्द्विता से शुरु हुआ मोदी और सुषमा का संबंध आख़िरी दौर में दूध और पानी के मेल जैसा बना रहा. पर पार्टी में आज भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जिनको इस केमिस्ट्री पर यक़ीन नहीं होता. अंग्रेज़ी में कहते हैं न कि 'इट्स टू गुड टु बी ट्रू.'

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