कर्नाटक के सियासी घटनाक्रम के बाद अटकलें लगाई जा रही थीं कि अब अगला नंबर मध्य प्रदेश का होगा जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का तख्ता पलटने का प्रयास करेगी. इस अटकलों को बल बीते दिनों पूर्व मंत्री और विधायक नरोत्तम मिश्रा के उस बयान से भी मिला था जहां उन्होंने कहा था, ‘गोवा के समुद्र तट से उठा मानसून कर्नाटक होते हुए मध्य प्रदेश पहुंच रहा है. प्रदेश का मौसम सुहावना होने वाला है.’
गौरतलब है कि गोवा में कांग्रेस के दस विधायक पार्टी छोड़कर सत्ताधारी भाजपा में शामिल हो गए हैं, तो वहीं कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाई है. बहरहाल, इन्ही अटकलों के बीच बुधवार को प्रदेश की विधानसभा में एक बड़ा सियासी घटनाक्रम देखने को मिला जहां विपक्षी भाजपा के दो विधायक कांग्रेस के खेमे में खड़े नजर आए.
मौका था, आपराधिक दंड संहिता विधेयक पर मत विभाजन का. हालांकि यह विधेयक सदन में सर्वसम्मति से पास हो गया था, बावजूद इसके सरकार को समर्थन दे रहे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विधायक संजीव सिंह कुशवाह ने इस पर मत विभाजन की मांग की.
भाजपा ने इसका विरोध किया था कि सर्वसम्मति से पास विधेयक पर मत विभाजन की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन बसपा विधायक की जिद के आगे मत विभाजन कराना पड़ा, जिसमें भाजपा के विधायकों ने हिस्सा नहीं लिया. मत विभाजन के नतीजे विपक्षी भाजपा के लिए चौंकाने वाले तब साबित हुए जब विधेयक के पक्ष में कुल 122 विधायकों ने वोट किया. जबकि कांग्रेस की ताकत सदन में समाजवादी पार्टी (सपा) के एक, बसपा के दो और चार निर्दलीय विधायकों को मिलाकर अधिकतम 120 होती.
अगर विधानसभा अध्यक्ष भी कांग्रेस के पक्ष में वोट डालते तो भी संख्या 121 ही हो पाती, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने वोट डाला नहीं था, जिसका सीधा मतलब था कि दो भाजपा के विधायकों ने पार्टी से बगावत की है.
मैहर से भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी और ब्योहारी से शरद कौल ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया, जिससे सरकार गिरने की वे सभी अटकलें फिलहाल धराशयी हो गईं, जो प्रदेश में कांग्रेस के सरकार बनाने से लेकर इस घटनाक्रम के घटने तक जारी थीं.
मतदान के बाद दोनों विधायक कमलनाथ के साथ प्रेस से भी रूबरू हुए और इसे कांग्रेस में अपनी घर वापसी करार दिया. मैहर विधायक नारायण त्रिपाठी 2014 तक कांग्रेस में हुआ करते थे. 2013 का विधानसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर ही जीता था. छह महीने के भीतर ही 2014 के लोकसभा चुनाव के ऐन पहले पाला बदलकर भाजपा में आ गए थे.
तब दल बदलने के पीछे उन्होंने कारण बताते हुए कहा था कि कांग्रेस में उपेक्षा से दुखी होकर वे पार्टी छोड़ रहे हैं. इस बार भी दल बदल के पीछे उनका यही कहना है. साथ ही, वे कहते हैं कि भाजपा में जबरन दबाव के चलते गए थे. उन्होंने कहा, ‘भाजपा झूठे वादे करती है. मैहर को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज ने बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो कर दीं लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ. क्षेत्र की जनता के सामने जवाब देना मुश्किल हो रहा था.’
अजीत डोभाल के जम्मू-कश्मीर से लौटते ही केंद्र सरकार ने की राज्य में 10 हजार अतिरिक्त जवानों की तैनातीगौरतलब है कि नारायण सबसे पहले सपा में हुआ करते थे. 2003 में विधायक भी चुने गए. 2008 में दल बदलकर जब कांग्रेस में आए तब सपा के प्रदेश अध्यक्ष थे. ये तीसरी बार है जब उन्होंने दल बदला हो.
वहीं, ब्यौहारी विधायक शरद कौल के पिता जुगलाल कौल पुराने कांग्रेसी हैं. हालिया विधानसभा चुनावों से पहले शरद भी कांग्रेस में थे लेकिन पार्टी से टिकट न मिलने के चलते भाजपा में शामिल हो गए थे. पार्टी छोड़ने के पीछे उन्होंने भाजपा की आदिवासी विरोधी सोच को कारण बताया है. शरद बसपा में भी रह चुके हैं.
हालांकि वे यह जरूर कहते हैं कि वर्तमान सरकार पर भविष्य में संकट जरूर आएगा. लेकिन यह संकट हाल फिलहाल साल के अंत में होने वाले निकाय चुनावों तक टल गया है. अगर कांग्रेस वहां लोकसभा चुनावों की तरह ही बुरी तरह हारती है तो भाजपा उसके लिए मुश्किल खड़ी करेगी.
साथ ही वे कहते हैं, ‘स्थानीय नेताओं ने तो मुंह की खा ली है और मोदी-शाह की रुचि यहां के मामले में दिख नहीं रही है. जो उन्होंने कर्नाटक में किया, अब तक वही नहीं सिमटा है. वहां मंत्री के दावेदार अधिक हैं और पद कम, खबरें आ रही हैं कि अब भाजपा के विधायक गायब होने लगे हैं. ऊपर से महाराष्ट्र और हरियाणा में भी जल्द ही विधानसभा चुनाव हैं. तो मोदी-शाह फिलहाल वहां फोकस करेंगे, यहां जोखिम नहीं लेंगे.’
इस बीच मध्य प्रदेश की झाबुआ विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव होने हैं. यह सीट भाजपा विधायक जीएस डामोर के सांसद चुने जाने के बाद खाली हुई है. बीते दिनों से चल रही सियासी खींचतान के बीच यह सीट दोनों ही दलों के लिए प्रासंगिक बनी हुई थी.
कांग्रेस इसे जीतकर अपने विधायकों की संख्या 115 पहुंचाना चाहती थी. अब अगर दल-बदल कानून के तहत दोनों विधायकों की सदस्यता रद्द भी होती है तो प्रदेश में सीटों की संख्या 227 रह जाएगी. इस लिहाज से 114 सीटें होने के कारण कांग्रेस अकेले ही दम पर पूर्ण बहुमत में होगी. कांतिलाल भूरिया की परंपरागत झाबुआ सीट भी यदि वह जीत लेती है तो उसकी स्थिति और मजबूत हो जाएगी.
वहीं, कांग्रेस नेता और मंत्री कहते नजर आ रहे हैं कि कांग्रेस के संपर्क में भाजपा के और भी विधायक हैं. हालांकि यह बात तो कमलनाथ काफी समय पहले से कहते आ रहे हैं कि भाजपा के करीब 10 विधायक उनके संपर्क में हैं. दो विधायकों के कांग्रेस के साथ दिखने के बाद कमलनाथ के उन दावों को और मजबूती मिल गई है.
वैसे भी सिवनी विधायक दिनेश राय मुनमुन और कटनी विधायक संजय पाठक को लेकर तो लंबे समय से कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगाए भी जाते रहे हैं. पिछले दिनों कमलनाथ के साथ इनकी नजदीकियां भी सुर्खियों में रही हैं.
संजय पाठक पूर्व में कांग्रेस के टिकट पर विधायक भी रहे थे जो 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे. उनके पिता सत्येंद्र पाठक दिग्विजय सरकार सरकार में मंत्री भी रहे हैं. यही कारण है कि भाजपा में भी छटपटाहट दिखाई दे रही है और प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ने बुधवार को ही दिल्ली से लौटकर विधायकों की बैठक बुलाई थी.