RSS पर नीतीश की 'टेढ़ी' नज़र से बिहार में टकराव

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के बीच का गांठ पड़ा हुआ भरोसा फिर टूट की दिशा में बढ़ता हुआ दिखने लगा है. दोनों दल भले ही आपसी तालमेल बनाए रखने का दावा कर रहे हों, लेकिन इनके रिश्ते में उग आए कील-काँटे अब छिपाये छिप नहीं पा रहे हैं. बिहार में सक्रिय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और उसके सहयोगी 18 संगठनों से जुड़े सभी पदधिकारियों के बारे में पूरी जानकारी जुटाने का एक सरकारी प्रयास सबसे कड़ा काँटा बन गया है.
28 मई को राज्य पुलिस की स्पेशल ब्रांच के पुलिस अधीक्षक (एसपी) ने 'अति आवश्यक' विभागीय पत्र जारी करके सभी ज़िलों से ऐसी ख़ुफ़िया जानकारी माँगी थी. चूँकि, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पुलिस महकमे के भी मंत्री हैं, इसलिए समझा जाता है कि इतने संवेदनशील मामले पर उनकी सहमति ज़रूर रही होगी. ख़ासकर जब संघ परिवार से जुड़ी बीजेपी इस राज्य में नीतीश सरकार की साझीदार हो, तब ऐसी जासूसी कराना वाक़ई हैरत वाली बात है.
बचाव की कोशिश
आरएसएस और बीजेपी ख़ेमे में इस बाबत रोष और विरोध के स्वर तीखे होने लगे, इसलिए राज्य सरकार के विभागीय पुलिस प्रमुख ने इसे स्पेशल ब्रांच के एसपी की निजी पहल या रूटीन कार्रवाई बता कर बचाव की कोशिश की.
नीतीश ख़ुद ख़ामोश रहे क्योंकि राज्य सरकार के बचाव में दिए जा रहे तर्क अविश्वसनीय ही नहीं, बेतुके भी थे. विभागीय मंत्री या संबंधित बड़े अधिकारियों की जानकारी के बिना किसी एक पुलिस अफ़सर की ओर से ऐसी सूचनाएँ एकत्रित करने वाली बात किसी को पच नहीं रही थी. इस प्रकरण में अब तो बीजेपी नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को उनके ही दल से जुड़े कई नेता/कार्यकर्ता लपेटे में ले रहे हैं.
आरएसएस समर्थक खुलेआम पूछ रहे हैं कि जो सरकार संघ परिवार की जासूसी करा रही है, उस सरकार में सुशील मोदी कर क्या रहे हैं? इस मामले में खुलकर कुछ भी बोलने से अभी बच रहे सुशील मोदी और उनके खेमे के लोग सिर्फ़ इतना कह कर चुप हो जाते हैं कि 'यह रुटीन कार्रवाई थी, जिसे तूल नहीं देना चाहिए.'
यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि बिहार में दो तरह की बीजेपी नज़र आती है. एक वो, जो सुशील मोदी के साथ रह कर नीतीश कुमार की प्रबल पक्षधर बनी रहती है. दूसरी वो, जो सुशील मोदी के ख़िलाफ़ है और बीजेपी को नीतीश कुमार पर न्योछावर होते नहीं देखना चाहती है. लेकिन सुशील मोदी विरोधी बीजेपी ख़ेमे की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसको नेतृत्व देने वाला ही उभर कर फ्रंट पर नहीं आ पा रहा है. यानी बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी नीतीश कुमार को 'पीएम मेटीरियल' मानने वाले सुशील मोदी पर ही निर्भर रहने को अब तक विवश है.
लालू प्रसाद से गले लगने के बाद 2016 में नीतीश कुमार ने ही कहा था कि ' संघमुक्त भारत बनाने की ज़रूरत है.' अब अगर नीतीश सरकार संघ परिवार के पीछे ख़ुफ़िया पुलिस लगा देना चाहती है, तो इसमें अचरज कैसा? पिछले कुछ समय से कई मुद्दों पर सामने आ रहे जेडीयू के प्रतिकूल रवैयों पर बीजेपी ने कभी कोई सीधा प्रतिरोध नहीं किया. लेकिन, इस बार जब संघ परिवार पर नीतीश हुकूमत के छोड़े हुए तीर संघ समर्थकों को चुभे हैं, तब जवाबी त्रिशूल तान कर 'अब और बर्दाश्त नहीं' जैसी मुद्रा में संघ और बीजेपी के कई नेता दिखने लगे हैं.
अगर नीतीश कुमार इस मामले में अपने सत्ता-साथी के घाव पर नमक छिड़कने के बजाय थोड़ा झुक कर नरमी से स्थिति नहीं सम्हालेंगे, तो फिर तय है कि राम-सलाम की तैयारी भी तेज हो जाएगी. लगता है कि गिरिराज सिंह भी गरज कर नहीं रह जाएँगे, बरस भी सकते हैं. इस खेमे के लोग पहले से ज़्यादा मुखर हो कर सवाल करने लगे हैं कि यहाँ बीजेपी के उपमुख्यमंत्री अपने जेडीयू के मुख्यमंत्री को अपनी पार्टी से भी अधिक प्यार कब तक करते रहेंगे?
लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि जब प्रधानमंत्री ने जेडीयू को केंद्र में दो काबीना मंत्री देने से मना कर दिया था, तब बिहार के किस बीजेपी नेता का दु:ख में डूबा हुआ चेहरा मीडिया वालों के कैमरों से बच नहीं सका था.
बढ़ सकता है टकराव
इसलिए आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के ऐन मौक़े पर इन दोनों दलों के बीच अधिक तमाशा होने की झलक अभी से मिलने लगी है. उधर नीतीश कुमार लगातार इशारे दे रहे हैं कि बीजेपी से मतभेद वाले मुद्दों पर जेडीयू समर्पण नहीं करेगा, चाहे मौजूदा रिश्ता रहे या टूटे. पर, नीतीश कुमार को बहुत क़रीब से जानने वाले यह भी मानते हैं कि उसूल की बात करते-करते फ़ौरन पलट जाने और कुशासन में भी सुशासन का प्रचार करा लेने की कला में निपुण हैं नीतीश.

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