निर्माण नहीं, 'राष्ट्र' के ध्वंस में है आरएसएस की भूमिका!

मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार ई.एच.कार अपनी चर्चित किताब 'व्हाट इज़ हिस्ट्री' में लिखते हैं कि 'इतिहास भूत और वर्तमान के बीच अविरल संवाद है।' यानी अपने दौर को प्रभावित करने वाला हर विचार या घटना इतिहास का हिस्सा होती है जिनका सिरा आपस में जुड़ता भी है, चाहे प्रभाव सकारात्मक हो या नकारात्मक।इस लिहाज से लगभग 94 वर्षों से सक्रिय राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों को इतिहास का हिस्सा मानने में कुछ भी ग़लत नहीं है। ख़ासतौर पर तब, जब उसकी विकासयात्रा ने भारतीय राजनीति के आकाश का रंग ही बदल दिया है। लेकिन सवाल इसके स्वरूप का है। नागपुर के राष्ट्रसंत तुकाडोजी महाराज विश्वविद्यालय में बीए हिस्ट्री के दूसरे वर्ष के पाठ्यक्रम में 'राइज़ एंड ग्रोथ ऑफ़ कम्युनलिज्म' नाम से एक पर्चा था जिसे हटाकर 'राष्ट्र निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका' पढ़ाया जायेगा।
कांग्रेस को छोड़, बीजेपी को क्यों वोट देने लगे सवर्ण वोटर
नागपुर आरएसएस का मुख्यालय है और वहाँ के एक विश्वविद्यालय में होने वाली शुरुआत किसी दूरगामी इरादे से हुई है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। केंद्र में लगातार दोबारा सरकार बनाने की चमत्कारी सफलता पाने के बाद इतिहास में सम्मानजनक हैसियत पाने की आरएसएस की इच्छा स्वाभाविक है। पर क्या यह सत्य को उलटे बिना संभव है?
अगर नए पर्चे के शीर्षक से 'पाठ' का अंदाज़ा लगाया जाए तो स्पष्ट होता है कि भारत नाम के 'राष्ट्र' के निर्माण में आरएसएस की कोई सकारात्मक भूमिका रही है या है। वैसे आरएसएस की मानें तो भारत हमेशा से एक 'राष्ट्र' है जिसकी पूजा करना हर भारतीय का कर्तव्य है, लेकिन यह प्रचार इतना अमूर्त है कि 'राष्ट्र' का ठीक-ठीक मतलब किसी को समझ में नहीं आता।
ज़ाहिर है, बात उस 'राष्ट्र राज्य' की है जिसका उदय 15 अगस्त 1947 को हुआ। इस लिहाज से देखें तो भारतीय राष्ट्रवाद का कोई सकारात्मक अर्थ तभी संभव है जब वह संविधान के संकल्पों पर आधारित हो। लेकिन क्या आरएसएस का राष्ट्रवाद इसकी पुष्टि करता है? क्या इस 'राष्ट्र' को जन्म देने या विकसित करने में आरएसएस की कोई भूमिका रही है?
आरएसएस अपने जन्म से ही एक आधुनिक, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र के विरुद्ध युद्धरत है और ये सभी हमारे संविधान के संकल्प हैं। आरएसएस ने न आज़ादी का स्वागत किया था और न ही तिरंगे को सलामी दी थी। संविधान भी उसकी नजर में एक पाश्चात्य दस्तावेज़ था जिसने भारतीय परंपराओं पर प्रहार किया था। 
हिंदू कोड बिल का आरएसएस ने कैसा जबरदस्त विरोध किया था, यह किसी से छिपा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ उसने मुसलसल दुष्प्रचार किया और इसे मुसलिम तुष्टीकरण का दूसरा रूप बताया।
स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम विचारशील नेता मानते थे कि भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है। उनका सपना स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मूल्यों के आधार पर एक बिलकुल ही नया राष्ट्र बनाना था जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी। डॉ.आंबेडकर का साफ़ मानना था कि भारत जाति व्यवस्था के रहते राष्ट्र बन ही नहीं सकता क्योंकि राष्ट्र होने के लिए ज़रूरी है कि लोग एक-दूसरे के दुख में दुखी हों। जातिभेद के रहते ऐसा संभव नहीं है। यही नहीं, वह 'हिंदू राष्ट्र' को लोकतंत्र के लिए 'महाविपत्ति' के तौर पर देखते थे जो कि आरएसएस का एक महास्वप्न है।

More videos

See All