सिंहासन या राहुल गांधी की चरण पादुका, कांग्रेस के नए अध्यक्ष को क्या मिलेगा?

राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे को ट्वीट किया और ट्विटर पर अपने परिचय को भी बदल दिया. इस तरह, यदि आधुनिक संचार के नियमों को मानें तो, फैसला आधिकारिक है. अब सबके मन में एक ही सवाल है. अगला कांग्रेस अध्यक्ष कौन होगा? उससे भी अहम सवाल ये है कि स्वेच्छा से लिए वनवास से राहुल गांधी के लौटने तक उनके उत्तराधिकारी को क्या मिलेगा. सिंहासन या महज चरण पादुका.
ये पहला मौका नहीं है. जब कांग्रेस पार्टी ‘आगे कौन’ की दुविधा का सामना कर रही है. पार्टी को पहली बार 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के देहांत के बाद इस स्थिति से गुज़रना पड़ा था. लेकिन 2019 की स्थिति कुछ अलग है.
आशा से निराशा तक
कोई दल या व्यक्ति शाश्वत नहीं होता. एक समय आएगा जब कांग्रेस पार्टी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगी. ये वही पार्टी है. जिस पर विभाजन और भारत की आज़ादी के तत्काल बाद के दिनों में लोगों ने सर्वाधिक भरोसा जताया था. पर ये समझना एक भूल होगी कि एक सदी से भी अधिक पुरानी कांग्रेस केवल नेतृत्व के बदलने से ही युवा बन जाएगी.
लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस की पूर्ण पराजय भाजपा की शानदार जीत के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक थी. वास्तव में, नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी तो पहले से ही तय मानी जा रही थी. 2018 के विधानसभा चुनावों से लेकर 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणाम आने तक कांग्रेस की सियासी तकदीर पूरी तरह बदल गई.
2018 में राहुल गांधी के नेतृत्व में एक उत्साहित कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा को पराजित किया था और कर्नाटक में भाजपा को उसके ही खेल में मात देते हुए गठबंधन सरकार बनाई थी. उससे पहले दिसंबर 2017 में, गुजरात में कांग्रेस के चुनावी अभियान ने भाजपा को इस कदर चिंतित कर दिया था कि आसन्न हार को जीत में बदलने के लिए पार्टी के दिग्गज नेताओं को भाग कर गुजरात पहुंचना पड़ा था.
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कांग्रेस जब 2019 के चुनावों में वापसी की उम्मीद कर रही थी, राहुल गांधी को एक-एक कर कई झटके लगे. क्षेत्रीय दलों का साथ आने से इनकार करना, रणनीतिक गठबंधनों का टूटना, देश के मिज़ाज पढ़ने में उनकी नाकामी आदि. कांग्रेस पार्टी को कार्यशैली और सार्वजनिक छवि से लेकर अपनी मूल विचारधारा तक, हर स्तर पर खुद को नए सिरे से गढ़ने और कायाकल्प करने की ज़रूरत है.
तकनीकी दौड़ में पिछड़ना
हम आज तकनीकी क्रांति के दौर में है. जब ज़िंदगी के हर पहलू पर प्रौद्योगिकी हावी है. हमारे राजनीतिक पसंद-नापसंद पर भी. मतदाताओं की राय का निर्माण और सुदृढ़ीकरण अब अधिकाधिक डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर पार्टी विशेष के प्रदर्शन पर निर्भर करता है.
भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ और उसके भारतीय मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संबद्ध संगठनों ने एक समय टेक्नोलॉजी के खिलाफ एक तीखा अभियान चलाया था. पर भाजपा आज सोशल मीडिया के खेल में सबसे आगे है. उसने नई तकनीकों को अपनाया है और डिजिटल दुनिया में एक सफल राजनीतिक अभियान चलाने के लिए खुद को ज़रूरी विशेषज्ञता से लैस किया है. देश में तकनीकी क्रांति लाने का दावा करने वाली कांग्रेस, लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाने के लिए इन नई तकनीकों के इस्तेमाल में बुरी तरह पिछड़ गई है.
विश्वसनीयता के संकट का सामना
भाजपा के पास भारत के विकास के लिए एक निश्चित रोडमैप था और उसने प्रभावी तरीके से उसे जनता के बीच रखा. और यहीं पर कांग्रेस नाकाम साबित हुई. अपेक्षाकृत युवा नेता के हाथ में बागडोर होने के बावजूद कांग्रेस मतदाताओं, खास कर युवा और पहली बार वोट डालने वाले वोटरों से ‘तादाम्य’ स्थापित नहीं कर पाई.
क्या नेतृत्व में परिवर्तन से पार्टी की समस्याएं दूर हो सकती है? कांग्रेस को निश्चय ही एक नया नेता चाहिए. विरासत में राजनीतिक नेतृत्व मिलने के दिन बीत चुके हैं. पर नए कांग्रेस नेतृत्व को एक साथ कई काम करने होंगे. सर्वप्रथम, संसद में पार्टी की ताकत चाहे जो हो, पार्टी को राजनीतिक तौर पर निरर्थक साबित नहीं होना चाहिए. सत्तारूढ़ पार्टी के हर काम का विरोध करने की बजाय, कांग्रेस रचनात्मक विरोध और मुद्दा-आधारित सहयोग का रवैया अपना सकती है. साथ ही, पार्टी को लोगों को बेचैन करने वाले मुद्दों को उठाने और उनके वास्तविक समाधान पेश करने की भी ज़रूरत है.
 

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