राहुल की नौटंकी से मंझधार में कांग्रेस, कामराज प्लान ही लगा सकेगा नैया पार?

आजकल कांग्रेस के आसमान में भ्रम के काले बादल छाये हैं. नेतृत्व का सूरज निकल ही नहीं पा रहा. लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी अपना पद तो छोड़ना ही चाहते हैं, साथ ही कांग्रेस नेतृत्व में आमूलचूल परिवर्तन का निश्चय भी कर चुके हैं. राहुल की चाहत सार्वजनिक हो गई है. इसके बाद कई बार मान-मन्नौवल किए जाने के बावजूद वो अपने फैसले पर टिके हैं लेकिन अजीब है कि पार्टी में ऊपर से लेकर नीचे तक कोई एक संदेश साफ-साफ नहीं पहुंचा है, और शायद यही वजह है कि इस्तीफों पर कंफ्यूज़न बना हुआ है.
ना तो पार्टी के दिग्गज खुद कुर्सियों से उतर रहे हैं, ना ही वो राहुल को उनके मन की करने दे रहे हैं. वरिष्ठ नेताओं के यथास्थिति बनाने की कोशिश में एक भ्रम पैदा हो गया है जिससे निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं कि दबाव बनाकर राहुल से वो कराया जा रहा है जिसे वो करना नहीं चाहते.
राहुल ने इस्तीफे की बात कहीं तो दिया क्यों नहीं?
आज राहुल गांधी कांग्रेस शासित सूबों के सभी मुख्यमंत्रियों से मुलाकात करने जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि वो पार्टी में अपनी हालिया भूमिका छोड़ने से पहले सबसे मिल लेना चाहते हैं. उनसे मिलने के लिए राजस्थान सीएम अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश सीएम कमलनाथ, पंजाब सीएम अमरिंदर सिंह, छत्तीसगढ़ सीएम भूपेश बघेल, पुडुचेरी सीएम वी नारायणसामी दिल्ली पहुंच रहे हैं.बैठक को लेकर एजेंडा साफ नहीं किया गया है लेकिन सभी को याद है कि लोकसभा नतीजों के बाद 25 मई को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने गहलोत और कमलनाथ पर अपने बेटों को पार्टी से आगे रखने पर नाराज़गी ज़ाहिर की थी. अब जब वो सीधे ही अपने दोनों मुख्यमंत्रियों से मिलेंगे तो शायद जवाब मांगें.
गौरतलब है कि यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से मुलाकात के दौरान एक कांग्रेस नेता ने उनसे पूछा कि जब ये हार सामूहिक है तो फिर इस्तीफा सिर्फ आप ही क्यों देंगे..इस पर राहुल ने भावुक होते हुए कहा कि उन्हें इस बात का दुख है कि उनके इस्तीफे के बाद भी किसी सीएम, पार्टी महासचिव या प्रदेश अध्यक्षों ने हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा नहीं दिया. मीडिया में राहुल के इस बयान की चर्चा निकली तो खलबली मच गई. मध्यप्रदेश से कमलनाथ की सफाई आ गई कि मैंने हार के बाद इस्तीफे की पेशकश रखी थी.
दूसरी ओर मध्यप्रदेश कांग्रेस महासचिव दीपक बाबरिया, दिल्ली प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष राजेश लिलोठिया, तेलंगाना कार्यकारी अध्यक्ष पोनम प्रभाकर, छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष भूपेश बघेल, कांग्रेस के विधि एवं आरटीआई प्रकोष्ठ अध्यक्ष विवेक तन्खा, किसान कांग्रेस प्रकोष्ठ के प्रमुख नाना पटोले और कांग्रेस के राजस्थान प्रभारी सचिव तरुण कुमार ने अपनी ज़िम्मेदारियां छोड़ दीं. यूपी में कई बड़े नेताओं के इस्तीफे हो गए. राजबब्बर तो कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से पहले ही त्यागपत्र दे चुके थे. सभी ज़िला कमेटियां ये कह कर भंग कर दी गईं कि अब अनुशासन समिति बनाकर उन लोगों पर कार्रवाई होगी जिन्होंने चुनाव में भितरघात किया.
कांग्रेस के राज्यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने भी कांग्रेस के विदेश मामलों के विभाग का उपाध्यक्ष पद छोड़ते हुए कहा कि राहुल गांधी को फ्री हैंड देने के लिए पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए.
क्यों राहुल गांधी कांग्रेस को मनमुताबिक नहीं चला पा रहे?
अब लाख टके का सवाल है कि आखिर पार्टी में किसकी हैसियत है जो राहुल गांधी के मन की नहीं होने दे रहा?
राजनीतिक जानकारों की मानें तो राहुल गांधी अपनी पार्टी के ही दिग्गजों से परेशान हैं. ना तो वो खुद निराश पार्टी में जान फूंकने के लिए कुछ कर पा रहे हैं और ना उन कुर्सियों को छोड़ना चाहते हैं जिनसे वो लंबे वक्त से चिपके हैं. इससे पहले भी राहुल की कई योजनाएं इसलिए गर्त में चली गईं क्योंकि वरिष्ठों ने उसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई. सच तो ये है कि राहुल ने भले ही कांग्रेस का नेतृत्व संभाल रखा है मगर पार्टी को अब तक पुराने नेताओं के कब्ज़े से पूरी तरह नहीं छुड़ाया जा सका है.
क्या था कामराज प्लान और किस तरह राहुल कर सकेंगे लागू?
3 बार तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने के बाद गांधीवादी कुमारास्वामी कामराज ने  1963 में गांधी जयंती के दिन पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने महसूस किया कि जीत के बावजूद पार्टी कमज़ोर पड़ रही है. वो तत्कालीन पीएम नेहरू के पास पहुंचे और संगठन में लौटने की इच्छा जताते हुए खुद को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की बात कही. उन्होंने कहा था कि कांग्रेस के सब बुजुर्ग नेताओं में सत्ता का लोभ घर कर रहा है. उन्हें वापस संगठन में लौटना चाहिए. लोगों से जुड़ना चाहिए. उनकी ये बात नेहरू को जंच गई. उन्होंने कामराज से पूरी योजना को विस्तार से लिखने को कहा. इसके बाद ये योजना पूरे देश में लागू की गई. भारतीय राजनीति में ये कामराज प्लान कहलाया.
इसका नतीजा रहा कि केंद्र से 6 कैबिनेट मंत्रियों को पद छोड़ना पड़ा जिनमें दिग्गज मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम और एसके पाटिल जैसे लोग शामिल थे. सूबों में उत्तर प्रदेश के चंद्रभानु गुप्त, मध्यप्रदेश के मंडलोई, ओडिशा के बीजू पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियों ने अपने पद से इस्तीफा दिया. कामराज प्लान की सफलता ने के कामराज की ऊंचाई बढ़ा दी. उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. पंडित नेहरू को इस प्लान से ये फायदा हुआ कि वो उन नेताओं का प्रभाव सीमित करने में सफल हुए जिनका कद तेज़ी से बढ़ रहा था.
यूपीए-2 में जब घोटालों के आरोपों से कांग्रेस घिर गई ती तब भी छवि सुधारने के लिए इस प्लान को लागू करने की चर्चा चली थी पर शायद दिग्गजों को काबू करने में तब का नेतृत्व असफल रहा. आज जब कांग्रेस सिकुड़ती जा रही है और राहुल के नेतृत्व में भी कोई चमत्कार नहीं हो सका तो एक बार फिर कामराज प्लान की ओर नज़रें हैं. कुछ साल पहले पी चिदंबरम ने इस फॉर्मूले की वकालत की थी. राहुल गांधी के हालिया बयानों और तेवर से लगता है कि वो कामराज प्लान लागू करना चाहते हैं, पूरी तरह नहीं तो सीमित ढंग से ही.
अभी भी कांग्रेस में पुराने नेताओं का प्रभाव कायम है. सबके अपने गुट हैं. अगली पीढ़ी को स्थापित करने की कोशिशें हो रही हैं. ऐसे में वंशवादी राजनीति को बुरा बताने वाले राहुल बेबस दिख रहे हैं. खुद भी उसी तरह की राजनीति का नतीजा होने की वजह भी राहुल को बांधकर रखती है लेकिन जिस तरह कांग्रेस सिमटती-सिकुड़ती जा रही है तब एकमात्र उपाय पार्टी को खंगाल देना ही है. राहुल ने महीने भर पदत्याग की इच्छा ज़ाहिर करके भी कुछ ठोस नहीं किया जिसने आम कार्यकर्ताओं में ऊहापोह पैदा हो गया है और किसी एक्शन के अभाव में अब वो नौटंकी ज़्यादा लगने लगा है. लोकसभा चुनाव की करारी हार वो मौका हो सकती है जब राहुल गांधी पूरी ताकत से कांग्रेस का रूप परिवर्तन कर दें. राजस्थान और मध्यप्रदेश के नतीजों ने स्थानीय क्षत्रपों को भी डिफेंसिव होने को मजबूर किया है. इस मजबूरी ने राहुल को वो नैतिक बल दे दिया है कि उनके सुधारवादी कदमों का विरोध करना मुश्किल है. इस मौके को आज़माने में यदि राहुल देर करेंगे तो सिर्फ नुकसान को बड़ा करेंगे. देश की राजनीति मज़बूत विपक्ष के अभाव में आवारा ना हो इसके लिए राहुल को ज़िम्मेदारी निभानी होगी, फिर चाहे वो दल की ज़िम्मेदारी छोड़कर ही क्यों ना पूरी हो.

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