अंग्रेजों ने भारत में जाति व्यवस्था का बीज कैसे बोया था?

भारत की जाति व्यवस्था के बारे में बुनियादी जानकारी के लिए जब आप गूगल करेंगे तो आपको कई वेबसाइटों के सुझाव मिलेंगे, जो अलग-अलग बातों पर ज़ोर देते हैं. इनमें से जिन तीन प्रमुख बिंदुओं को आप रेखांकित कर पाएंगे, वे हैं: पहला, हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था का वर्गीकरण चार श्रेणियों में किया गया है, जिनमें सबसे ऊपर हैं ब्राह्मण. ये पुजारी और शिक्षक होते हैं.
इसके बाद क्षत्रिय होते हैं, जो शासक या योद्धा माने जाते हैं. तीसरे स्तर पर वैश्य आते हैं, जो आमतौर पर किसान, व्यापारी और दुकानदार समझे जाते हैं. और वर्गीकरण की इस सूची में सबसे निचला स्थान दिया गया है शुद्रों को, जिन्हें आमतौर पर मजदूर कहा जाता है. इन सभी के अलावा "जाति वहिष्कृत" लोगों का एक पांचवां समूह भी है, जिसे अपवित्र काम करने वाला समझा गया और इसे चार श्रेणी वाली जाति व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया.
दूसरा, जाति व्यवस्था का यह रूप हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ (हिंदू क़ानून का स्रोत समझे जाने वाले मनुस्मृति) में लिखे उपदेशों के आधार पर दिया गया है, जो हजारों साल पुराना है और इसमें शादी, व्यवसाय जैसे जीवन के सभी प्रमुख पहलुओं पर उपदेश दिए गए हैं. तीसरा, जाति आधारित भेदभाव अब गैर-क़ानूनी है और सकारात्मक भेदभाव के लिए कई नीतियां भी हैं. बीबीसी के एक आलेख में भी इन विचारों को एक पारंपरिक ज्ञान बताया गया है. समस्या यह है कि पारंपरिक ज्ञान में समय के साथ विद्वानों के किए गए शोध और निष्कर्षों के साथ बदलाव नहीं किया गया है.
एक नई किताब, 'The Truth About Us: The Politics of Information from Manu to Modi' में मैंने यह दर्शाया है कि आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां कैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विकसित की गई थी. इसका विकास उस समय किया गया था जब सूचना दुर्लभ थी और इस पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा था. यह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रंथों की मदद से किया गया था. 19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई.
अंग्रेजों ने भारत के स्वदेशी धर्मों की स्वीकृत सूची बनाई, जिसमें हिंदू, सिख और जैन धर्म को शामिल किया गया और उनके ग्रंथों में किए गए दावों के आधार पर धर्मों की सीमाएं और क़ानून तय किए गए.
जाति व्यवस्था की शुरुआत
जिस हिंदू धर्म को आज व्यापक रूप में स्वीकार किया गया है वो वास्तव में एक विचारधारा (सैद्धांतिक या काल्पनिक) थी, जिसे "ब्राह्मणवाद" भी कहा जाता है, जो लिखित रूप (वास्तविक नहीं) में मौजूद है और यह उस छोटे समूह के हितों को स्थापित करता है, जो संस्कृत जानता है.
इसमें संदेह नहीं है कि भारत में धर्म श्रेणियों को उन्हीं या अन्य ग्रंथो की पुनर्व्याख्या करके बहुत अलग तरीके से परिभाषित किया जा सकता है. कथित चार श्रेणियों वाली जाति व्यवस्था की शुरुआत भीउन्हीं ग्रंथों से किया गया है. वर्गीकरण की यह व्यवस्था सैद्धांतिक थी, जो काग़ज़ों में थी और इसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं था.
19वीं शताब्दी के अंत में की गई पहली जनगणना से इसका शर्मनाक रूप सामने आया था. योजना यह थी कि सभी हिंदूओं को इन चार श्रेणियों में रखा जाए. लेकिन जातिगत पहचान पर लोगों की प्रतिक्रिया के बाद यह औपनिवेशिक या ब्राह्मणवादी सिद्धांत के तहत रखा जाना मुमकिन नहीं हुआ.
1871 में मद्रास सूबे में जनगणना कार्यों की देखरेख करने वाले डब्ल्यूआर कॉर्निश ने लिखा है कि "...जाति की उपत्पति के संबंध में हम हिंदुओं के पवित्र ग्रंथों में दिए गए उपदेशों पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. यह अत्यधिक संदिग्ध है कि क्या कभी कोई ऐसा कालखंड था जिसमें हिंदू चार वर्गों में थे."
इसी तरह 1871 में बिहार की जनगणना का नेतृत्व करने वाले नेता और लेखक सीएफ़ मगराथ ने लिखा, "मनु द्वारा बनाई गई चार जातियों के अर्थहीन विभाजन को अब अलग रखा जाना चाहिए."
आश्चर्यजनक विविधता
अंग्रेजों के कार्यकाल से पहले के लिखित दस्तावेजों में पेशेवर इतिहासकारों और दार्शनिकों ने जाति का ज़िक्र बहुत कम पाया है. सामाजिक पहचान लगातार बदलती रही थी. "ग़ुलाम", "सेवक" और "व्यापारी" राजा बने, किसान सैनिक बने, सैनिक किसान बन गए.
एक गांव से दूसरे गांव जाते ही सामाजिक पहचान बदल जाती थी. व्यवस्थित जाति उत्पीड़न और बड़े पैमाने पर इस्लाम में धर्म परिवर्तन के बहुत कम ही प्रमाण मिलते हैं. जितने भी साक्ष्य मौजूद हैं वे अंग्रेजों के शासन से पहले भारत में सामाजिक पहचान की एक मौलिक पुनर्कल्पना की बात कहते हैं. जो तस्वीर देखनी चाहिए वह आश्चर्यजनक विविधता की है. अंग्रेजों ने इस पूरी विविधता को धर्म, जाति और जनजाति में बांट दिया.
जनगणना का उपयोग श्रेणियों को सरल बनाने और उसे परिभाषित करने के लिए किया गया था, जिसे अंग्रेज शायद ही समझते थे. इसके लिए उन्होंने सुविधाजनक विचारधारा और बेतुकी कार्यप्रणाली का इस्तेमाल किया था. अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में सुविधा के हिसाब से भारत में सामाजिक पहचान की स्थापना की. यह सबकुछ अंग्रेजों ने अपने मतलब के लिए किया ताकि भारत जैसे देश पर वो आसानी से शासन कर सके. मान्यता और सामाजिक पहचानों की विविधता को एक हद तक सरल बनाने की कोशिश की गई और पूरी तरह से नई श्रेणियां और औहदे बनाए गए.
असमान लोगों को एक साथ कर दिया गया, नई सीमाएं तय कर दी गईं. जो नई श्रेणियां बनाई गई थीं, वो अपने मूल अधिकारों के लिए एक और मजबूत होने लगीं. ब्रिटिश भारत में धर्म आधारित मतदाता और स्वतंत्र भारत में जाति आधारित आरक्षण ने इन जाति समूहों को और मजबूती प्रदान की.
यह धीरे-धीरे भारत की नियति बन गई. पिछले कुछ दशकों में जो कुछ भी हुआ है उससे यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास का पहला और परिभाषित मसौदा लिखा था. जनता की कल्पना में इस मसौदे को इतनी गहराई से उकेरा गया है कि अब इसे सच मान लिया गया है. यह अनिवार्य हो गया है कि हम इन पर सवाल उठाना शुरू करें.

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