लद्दाख में कैसे लहराया भगवा, बौद्ध बहुल क्षेत्र में भाजपा के उभार की कहानी

बहुत पीछे नहीं लेकिन 1989 तक तो जाना ही होगा. इसी साल लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) घोषित किए जाने की मांग को लेकर यहां बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए थे.
बौद्धों का ताक़तवर धार्मिक संगठन 'लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन' (एलबीए) इन प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहा था.
एलबीए की ताक़त की मिसाल देते हुए लेह के मुख्य बाज़ार में एक दुकानदार ने कहा कि आज अगर किसी वजह से एलबीए दुकानें बंद करने को कहे और भाजपा खोले रखने का आग्रह करे तो यहां एलबीए की चलेगी, भाजपा की नहीं. एलबीए लद्दाख के नेताओं के लिए एक ‘पॉलिटिकल लॉन्चपैड’ भी रहा है और यहां के कई बड़े नेता एलबीए से ही निकले हैं.
तो साल 1989 के प्रदर्शनों की अगुवाई एलबीए कर रहा था और इसकी कमान 42 साल के थुप्सतान छेवांग के हाथों में थी. इन प्रदर्शनों में तीन नौजवानों की जान चली गई थी. उन्हें आज भी एलबीए ‘शहीद’ मानता है.
ये प्रदर्शन 'यूटी आंदोलन' में मील का पत्थर साबित हुए क्योंकि राजीव गांधी सरकार इस पर बात करने को तैयार हुई. यूटी का दर्जा तो नहीं मिला लेकिन कुछ साल बाद ‘स्वायत्त हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ के रूप में जम्मू-कश्मीर सरकार से अलग कुछ फ़ैसले करने का अधिकार मिल गया.
स्थानीय अख़बार 'रीच लद्दाख' की संपादक रिंचेन आंगमो के मुताबिक, इस आंशिक सफलता ने थुप्सतान छेवांग को एक सम्मानित और जनप्रिय नेता के तौर पर स्थापित किया.
जब हिल काउंसिल बनी तो छेवांग ही उसके पहले चीफ़ एग्ज़ीक्यूटिव काउंसलर हुए और इस तरह वह सक्रिय प्रशासनिक-राजनीति में आए. राजनीतिक करियर के शुरुआती चार-पांच साल उन्होंने कांग्रेस में गुज़ारे.
लेकिन यूटी की मांग अब भी अधूरी थी. लिहाज़ा साल 2002 में उन्होंने कांग्रेस, एनसी, पीडीपी और दूसरी पार्टियों में सक्रिय सभी अहम क्षेत्रीय नेताओं को साथ लेकर एक नया संगठन बनाया- 'लद्दाख यूनियन टेरेटरी फ्रंट' यानी एलयूटीएफ. इसमें तमाम विचारों के नेता थे लेकिन सबका मक़सद एक था- लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्ज़ा दिलवाना.
एलयूटीएफ़ को ज़बरदस्त शुरुआती सफलता मिली. दो विधायक निर्विरोध चुन लिए गए. 2004 में पहली बार थुप्सतान छेवांग एलयूटीएफ़ के बैनर तले निर्दलीय लोकसभा चुनाव जीत गए.
अतीत में कांग्रेस में रहे और अब पूर्णकालिक पत्रकारिता कर रहे सेवांग रिगज़िन बताते हैं कि एलयूटीएफ़ लद्दाख वालों के लिए एक भावनात्मक मुहिम बन गया था और तमाम आम लोगों के साथ वो ख़ुद इससे जुड़ गए थे.
एलयूटीएफ़ वहां स्थानीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधि संगठन बन गया था और उसके रहते वहां भाजपा-कांग्रेस की दाल नहीं गल सकती थी. 

रिगज़िन बताते हैं, "एलयूटीएफ़ 2002 में बनी मुफ़्ती मोहम्मद सईद की अगुवाई वाली पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार का भी हिस्सा था. कांग्रेस से एलयूटीएफ़ में आए विधायक रिगज़िन ज़ोरा का कांग्रेस-प्रेम नवंबर 2004 में फिर जाग उठा और उन्होंने अपने दफ़्तर में पार्टी का झंडा फहरा दिया. संकेत साफ़ था. एलयूटीएफ़ का एक धड़ा टूटकर कांग्रेस में चला गया. यहां से एलयूटीएफ़ के पतन और भाजपा के उत्थान की शुरुआत हुई." 

लोगों को लगा कि एलयूटीएफ़ को कमज़ोर करके कांग्रेस ने लद्दाखियों के साथ धोखा किया है और इसका नतीजा पार्टी को अगले काउंसलर चुनावों में झेलना पड़ा जब वह 26 में से सिर्फ़ चार सीटें जीत सकी. 22 सीटें एलयूटीएफ़ के खाते में गईं. 

इससे भाजपा को दूसरा फ़ायदा ये मिला कि यहां कांग्रेस की छवि ख़राब हुई और थुप्सतान छेवांग एक सक्षम कांग्रेस विरोधी चेहरा बन गए. 

रिगज़िन कहते हैं, “भाजपा को एलयूटीएफ़ में वो मछली नज़र आने लगी जिसे निगलकर लद्दाख की बाज़ी जीती जा सकती थी.” 

इसकी भूमिका भी तैयार होने लगी थी. कई बड़े नेताओं के चले जाने से एलयूटीएफ़ कमज़ोर होने लगा था. 2008 विधानसभा चुनाव में ख़ुद थुप्सतान सेवांग चुनाव हार गए. 2009 लोकसभा चुनाव में तो एलयूटीएफ़ लड़ाई में भी नहीं रहा और निर्दलीय चुनाव लड़ रहे कारगिल के मोहम्मद हसन जीत गए.
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एलयूटीएफ़ ख़त्म हुआ
एलयूटीएफ़ अब कारगर नहीं रह गया था. यूटी का सपना पूरा करने के लिए थुप्सतान छेवांग को एक नई ताक़त की ज़रूरत थी. 2010 में वो बचे हुए एलयूटीएफ़ नेताओं को लेकर भाजपा में शामिल हो गए. 

इस तरह भाजपा को पहली बार लद्दाख में एक लोकप्रिय और सक्षम संगठन मिला और इसका फ़ायदा तुरंत 2010 के काउंसलर चुनाव में दिखा, जब भाजपा पहली बार चार सीटें जीत गई. 

फिर आया 2014 का लोकसभा चुनाव जिसमें थुप्सतान छेवांग भाजपा उम्मीदवार बनाए गए. उनके चुनाव प्रचार में लेह आए नितिन गडकरी ने वादा किया कि सत्ता में आने के छह महीनों के भीतर लद्दाख को यूटी का दर्जा दिया जाएगा. 

नतीजे आए तो थुप्सतान 36 वोटों से ही सही, चुनाव जीत गए और भाजपा को लद्दाख से अपना पहला सांसद मिला. 

जम्मू से छपने वाले अख़बार स्टेट टाइम्स के लेह ब्यूरो चीफ़ सेवांग रिगज़िन कहते हैं, “भाजपा की सफलता की बड़ी वजह यही रही कि उसने खुलकर कहा कि सत्ता में आने के बाद वो लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा देगी." 

लेकिन यूटी का वादा पूरा नहीं हुआ और इसीलिए भाजपा को एक बड़ा झटका लगा. 2019 लोकसभा चुनावों से चंद महीने पहले भाजपा सांसद थुप्सतान छेवांग ने निराश होकर अपनी सांसदी और पार्टी की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी में उन्होंने कहा कि ‘झूठे वादे और ग़लत फ़ैसले’ उनके इस्तीफ़े का कारण हैं. 

कुछ अख़बारों और समाचार वेबसाइटों ने लिखा कि लद्दाख में शुरुआती कामयाबी के तुरंत बाद थुप्सतान छेवांग को नाराज़ करके भाजपा ने अपनी क़ब्र खोद ली है और यहां के दु:साध्य पहाड़ों से वह फिसलने लगी है.
लद्दाख जैसे सामरिक लिहाज़ से अहम क्षेत्र के सांसद के हाथ छुड़ाकर चले जाने से भाजपा को बड़ा झटका लगा था. 

वहां भाजपा के लिए उभरती हुई नाराज़गी को पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व समझ रहा था. 

लिहाज़ा फरवरी 2019 में डैमेज कंट्रोल की कोशिश शुरू हुई और जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने लद्दाख को 'डिविज़नल स्टेटस' दे दिया. 

लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) के मौजूदा अध्यक्ष पीटी कुंज़ांग कहते हैं, "जैसे जम्मू डिविज़न है, जैसे कश्मीर डिविज़न है, वैसे लद्दाख डिविज़न हो गया. इससे यहां भाजपा को फिर से ऑक्सीजन मिली. लोगों में उम्मीद पैदा हुई कि भाजपा यूटी का सपना भी पूरा कर सकती है." 

उधर थुप्सतान छेवांग के पार्टी छोड़ जाने का फायदा एक नौजवान को मिला जो 2014 के चुनाव में उनके निजी सहयोगी (पीए) थे. 2014 के बाद से ही 34 वर्षीय जमयांग सेरिंग नमग्याल सक्रिय राजनीति में आ गए थे और 2018 तक हिल काउंसिल के चीफ़ एग्ज़ीक्यूटिव काउंसलर बन चुके थे. 

लद्दाख को डिविज़नल स्टेटस मिलने के बाद जमयांग की लोकप्रियता भी बढ़ी. नई उम्मीदों पर सवार भाजपा ने छात्र राजनीति के प्रशिक्षण वाले जमयांग को 2019 चुनाव में लोकसभा उम्मीदवार बना दिया. इस बार भी भाजपा के घोषणापत्र में यूटी एक प्रमुख मुद्दा था. 

रिंचेन आंगमो बताती हैं, “मुस्लिम-बहुल कारगिल ज़िले से दो उम्मीदवारों के खड़े होने से मुसलमानों के वोट बंट गए. इसका फ़ायदा जमयांग को मिला और वो बड़े अंतर से चुनाव जीत गए.” 

जमयांग की जीत के बाद लद्दाख की लोकप्रिय पत्रिका 'स्तावा' में पत्रकार मुर्तज़ा फ़ज़ीली ने लिखा, "लद्दाख में भाजपा का उभार एक अहम राजनीतिक घटना है. वो अब लगातार दो लोकसभा चुनाव जीत गई है. साथ ही उसे कारगिल से भी वोट मिले हैं जो एक बड़ा बदलाव है. यह अभी साफ़ नहीं है कि भाजपा के उभार के लद्दाख के लिए क्या मायने होंगे और इस दल की विचारधारा को लद्दाखी परिप्रेक्ष्य में किस तरह व्यक्त किया जाएगा." 
इसके बाद की कहानी सबको याद है. एनडीए सरकार ने लद्दाख को यूटी बना दिया. सांसद जमयांग ने जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक के समर्थन में राज्यसभा में ज़ोरदार भाषण दिया जिसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई और अपने संसदीय क्षेत्र में भी वह 'हीरो' बन गए.
पत्रकार सेवांग रिगज़िन बताते हैं कि इस बीच भाजपा को एक अच्छी ख़बर और मिली.
यूटी की मांग पूरी होने के बाद नाराज़ होकर राजनीति से संन्यास लेने वाले थुप्सतान छेवांग भी भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ जश्न मनाते देखे गए.
भाजपाई पटका पहनकर उन्होंने कार्यकर्ताओं को संबोधित किया. स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि 72 साल के थुप्सतान अब सियासत में सक्रिय नहीं हैं.
हालांकि लेह भाजपा कार्यालय के नए पत्रकों में उन्हें लद्दाख भाजपा का 'पैट्रन प्रेसिडेंट' लिखा गया है.
वहां उनकी तस्वीरें नरेंद्र मोदी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ लगाई गई हैं. थुप्सतान छेवांग को एक मामूली चोट लग जाने की वजह से उनसे बात नहीं हो सकी.
ये तो भाजपा संगठन की बात हुई. लेकिन कुछ जानकार यह दावा भी करते हैं कि भाजपा के उभार में कुछ योगदान पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के क्रियाकलापों का भी है. 

दिवंगत केसी सुदर्शन, इंद्रेश कुमार और मनमोहन वैद्य जैसे संघ के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी यहां आते रहे हैं. 

हालांकि दूसरा मत ये है कि संघ सक्रिय तो है लेकिन अपने तमाम प्रयासों के बावजूद इस बौद्ध बहुल समाज में वह ऐसी पकड़ नहीं बना पाया है कि जनचेतना को प्रभावित कर सके. 

हमने वहां संघ की भूमिका और क्रियाकलापों की जानकारी भी जुटाई. 

लेह में हमने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय का पता कुछ आम लोगों से पूछा लेकिन जवाब नहीं मिला. वजह, संघ यहां 'फंदे सोग्सपा' नाम से काम करता है जिसका शाब्दिक अर्थ है, 'लद्दाख कल्याण संघ.' 

‘फंदे सोग्सपा’ का दफ़्तर ही संघ कार्यालय है.
हरियाणा के रहने वाले प्रमित लेह में संघ के ज़िला प्रचारक हैं. संघ के नाम बदलकर काम करने की वजह बताते हुए वह कहते हैं, “यहां लोग संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं समझते. वे आसानी से इससे ख़ुद को जोड़ सकें इसलिए स्थानीय भाषा में नाम रखा है.” 

लद्दाख में संघ के विभाग कार्यवाह विजय चेलिंगपा से मिली जानकारी के मुताबिक, लेह और कारगिल दोनों ज़िलों में संघ के स्कूल हैं, कंप्यूटर और सिलाई केंद्र हैं और कुछ एकल विद्यालय भी हैं. 

लेकिन यहां संघ का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम हर साल होने वाला 'सिंधु दर्शन' ही है. 
लेह शहर से दस-एक किलोमीटर की दूरी पर सिंधु नदी बहती है. संघ बीते 23 साल से यहां हर साल जून में सिंधु दर्शन का कार्यक्रम कराता है जिसमें बाहरी और स्थानीय ‘श्रद्धालुओं’ को सिंधु नदी के तट पर ले जाया जाता है. वहां लोग हिंदू पद्धति से पूजा-अर्चना करते हैं. 

1997 में जब सिंधु दर्शन का कार्यक्रम शुरू हुआ था, सेवांग दोरजे स्कूल में पढ़ते थे. 

वह बताते हैं, "इसके लिए डॉक्यूमेंट्री बनाई जानी थी जिसके काम में मैं भी शामिल था. पांचजन्य के संपादक रहे तरुण विजय को इसकी ज़िम्मेदारी दी गई थी. हमें बताया गया था कि हिंदू शब्द, सिंधु से आया है. हम लोग सुनते थे कि इस प्रोजेक्ट पर उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का वरदहस्त था. मुझे ये भी लगता है कि इसका दूरगामी मक़सद सिंधु से मानसरोवर का रास्ता खोलना भी था." 
प्रत्यक्ष तौर पर इस कार्यक्रम का आयोजन सिंधु दर्शन यात्रा समिति करती है जिसके मार्गदर्शक संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार हैं. तारीख़ तय है. 23 से 26 जून के बीच यह कार्यक्रम होता है और हर साल इंद्रेश कुमार यहां आते हैं.
कुछ स्वर ज़रूर उभरे थे. कांग्रेस नेताओं ने आरोप लगाए थे कि यह बौद्ध-तिब्बती संस्कृति में घुसपैठ की कोशिश है. लेकिन इतने बरस बाद भी यह कार्यक्रम स्थानीय लोगों में अपेक्षित लोकप्रियता हासिल नहीं कर सका है. 

हालांकि संघ ने इसे एक ऐसे मंच के तौर पर ज़रूर विकसित कर लिया है जहां वह अलग-अलग तबकों के स्थानीय नेताओं और प्रभावशाली हस्तियों को निमंत्रित करके अपनी स्वीकार्यता को पुष्ट करने की कोशिश करता है. इस बार इंद्रेश कुमार ने कहा कि 2021 में सिंधु दर्शन को बड़े स्तर पर आयोजित किया जाएगा जिसमें हज़ारों लोग शामिल होंगे.
सिंधु दर्शन के मंच पर आने वाले स्थानीय नेताओं में बौद्ध भी हैं और मुसलमान भी. 

इस बार इस कार्यक्रम के अतिथियों में स्थानीय सुन्नी नेता डॉ. अब्दुल क़य्यूम भी शामिल थे. 

लेह के एक स्थानीय पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि संघ की पहुंच यहां बेहतर हुई है लेकिन उसके पास पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का अभाव है. उन्होंने कहा, "संघ यहां तब तक कुछ बड़ा नहीं कर सकता जब तक वह लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) को न साध ले." 

इस बीच एक दिलचस्प बात ये हुई कि इसी 24 अगस्त 2019 को लद्दाख में संघ ने एक सेमिनार करवाया, जिसका विषय था- 'भारत की अवधारणा.' 

ज़िला प्रचारक प्रमित ने जब इसके न्योते का पत्रक फ़ेसबुक पर साझा किया तो स्थानीय पत्रकारों में सुगबुगाहट शुरू हो गई.
इस न्योते में तीन अहम बातें थीं. भारत माता की तस्वीर के साथ गौतम बुद्ध की तस्वीर. संघ की ओर से 'फंदे सोग्सपा' की जगह, अपने असल नाम का इस्तेमाल. 

और तीसरी, मुख्य अतिथि थे लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष पीटी कुंज़ांग. 

इसके ये मायने भी निकाले गए कि लद्दाखी समाज में अपेक्षित स्वीकार्यता न मिलने पर संघ एलबीए को साधने की कोशिशें लंबे समय से कर रहा था और अब उसे कुछ कामयाबी मिलती दिख रही है. 

पत्रकार सेवांग रिगज़िन कहते हैं, "इसका अच्छा संदेश नहीं जाएगा. इसे इस तरह देखा जाएगा कि बौद्ध समाज अब संघ को संरक्षण दे रहा है."
लद्दाख में दो ज़िले हैं. बौद्ध बहुल लेह और शिया मुसलमानों की बहुलता वाला कारगिल. एक स्थानीय पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि लद्दाख में बौद्ध और मुसलमानों के बीच सहज संबंध नहीं हैं. ख़ास तौर से लेह और कारगिल में एक स्पष्ट मतभेद दिखता है, जो इस बार यूटी का दर्ज़ा दिए जाने के बाद भी नज़र आया. उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं है कि ये समुदाय एक दूसरे के दुश्मन हैं. लेकिन एक मतभेद, एक दरार ज़रूर है. यहां के बौद्ध कश्मीरी नेताओं को पसंद नहीं करते और यूटी आंदोलन का मुख्य मक़सद ही उनसे छुटकारा पाना रहा है."
"लेकिन कारगिल के मुसलमानों के संबंध में ये बात नहीं कही जा सकती. इस मतभेद का इस्तेमाल करके संघ एलबीए को हमसफ़र बनाने की कोशिश कर रहा है."
इसके अलावा यहां बौद्ध लड़कियों और मुसलमान लड़कों की शादी भी एक मसला रहा है.
बाक़ी देश में मुस्लिम लड़कों की ओर से अंतर्धामिक विवाहों को संघ 'लव जिहाद' कहता रहा है. 2017 में लेह की एक बौद्ध लड़की और कारगिल के एक मुसलमान लड़के की शादी पर हुए विवाद को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जगह मिली थी. संघ ज़िला प्रचारक प्रमित कहते हैं, "लद्दाख में इस तरह की जो घटनाएं हुई हैं वो संघ के लिए चिंता का विषय है." यह भी एक ऐसा मसला है जिस पर एलबीए और संघ के बीच एक वैचारिक समानता है.
एलबीए के लिए भी ये शादियां बरसों से चिंता का विषय रही हैं.
एलबीए के विचार
अपनी एक पत्रिका ‘व्हाय यूनियन टेरेटरी फॉर लद्दाख’ में एलबीए ने लिखा है कि 1992 से 99 के बीच लेह ज़िले की 28 बौद्ध लड़कियों का इस्लाम में धर्मांतरण किया गया और उनमें से अधिकतर को 'फुसलाकर' कारगिल ले जाया गया. 

इसी पत्रिका में एलबीए ने ये भी लिखा है, "1989 से 99 के दशक में लेह शहर में बौद्ध रिहाइशी इलाक़ों में छह मस्जिदें बनाई गईं और 540 से ज़्यादा परिवार आकर लेह में बसे, जिनमें से अधिकांश कारगिल से आए थे." 

लेह की एक सड़क पर मिले जम्मू से पढ़ाई कर रहे बौद्ध नौजवान तोंदुप ने कहा कि एलबीए ख़ुद यहां संघ की तरह काम करता है. वह समाज में कल्याणकारी योजनाएं तो चलाता है लेकिन उसके और संघ के कुछ साझा हित हैं. 

ये हित क्या हैं, ये पूछने के लिए हम फिर से एलबीए अध्यक्ष पीटी कुंज़ांग से मिलने गए. 

जब हमने उनके संघ के मंच पर जाने के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि लेह के साथ-साथ नागपुर से भी उन्हें संघ का न्योता मिला है और वे वहां भी जाएंगे. 

तो क्या दोनों संगठनों में कोई वैचारिक समानता है, पूछने पर वह कहते हैं, "वो तब होगा जब वे (संघ) यहां कुछ बड़ा कर रहे हों. वे स्कूल चलाते हैं और सिंधु दर्शन करते हैं. हम लोग भी सिंधु दर्शन में जाते हैं. हमारा उनसे रिश्ता न बहुत मज़बूत है, न ख़राब है. लेकिन हम उनका सम्मान करते हैं." 

पीटी कुंज़ांग ने ये भी बताया कि पिछले साल भी उन्हें नई दिल्ली में संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक सेमिनार में बुलाया गया था. 

वह बताते हैं, "विज्ञान भवन में हमने तीन दिन मोहन भागवत जी के विचारों को सुना. हम उनसे मिले. हमने उन्हें लद्दाख आने का न्योता दिया. उन्होंने कहा कि हम आएंगे, पर आप नागपुर आइए. आपकी संस्था और हमारी संस्था एक है. हम भी लोगों की मदद करते हैं." 

लद्दाख में संघ के विभाग कार्यवाह विजय चेलिंगपा हिंदू और बौद्ध धर्म में एक स्वाभाविक संबंध मानते हैं.

वह कहते हैं, "भगवान बुद्ध को हम भगवान विष्णु का ही अवतार मानते हैं. सिर्फ़ हमारी पूजा पद्धति अलग है." 

हालांकि एलबीए अध्यक्ष पीटी कुंज़ांग स्वीकार नहीं करते कि बौद्ध धर्म के अनुयायी हिंदू धर्म से ख़ुद को जोड़कर देख सकते हैं. 

एक बौद्ध भिक्षु स्तानज़िन से पूछा तो उन्होंने ज़रूर कहा कि हिंदुओं और बौद्धों के बीच ‘स्वाभाविक सहअस्तित्व’ का संबंध है क्योंकि दोनों शांतिप्रिय धर्म हैं.
ऐसा लगा कि इसी स्वाभाविक सहअस्तित्व को मज़बूत करने का काम संघ कर रहा है. लेकिन यह एक संकरी पगडंडी है. 

लद्दाख के लोग अपनी पहचान, विशेष संस्कृति और पर्यावरण को लेकर बहुत संवेदनशील रहे हैं. वे अपनी संस्कृति में कोई बड़ा दख़ल नहीं चाहते. 
यहां के पहाड़ भी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे नहीं हैं. 11 हज़ार फ़ीट से भी ज़्यादा ऊंचे इन पहाड़ों पर हरियाली नहीं, सिर्फ़ बर्फ़ टिकती है.
जिंजर-लेमन टी पर एक पत्रकार से चर्चा में मैंने पूछा, ‘क्या मैदानी लोगों और मैदानी संगठनों के लिए यहां टिकना वाकई मुश्किल है?’ 

उस पत्रकार ने शहद घुलाते हुए कहा, “बर्फ़ में संघ का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. लेकिन एलबीए का रिकॉर्ड शानदार है.”

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