कश्मीर पर यूएन में चर्चा से किसको लगा झटका

जम्मू-कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद है. दोनों देश इस पर अपना दावा करते हैं. इसमें तीसरा देश चीन है. जम्मू-कश्मीर के 45 फ़ीसदी हिस्से पर भारत का नियंत्रण है, 35 फ़ीसदी पर पाकिस्तान का और 20 फ़ीसदी पर चीन का. चीन के पास अक्साई चिन और ट्रांस काराकोरम (शक्सगाम घाटी) है. अक्साई चिन को चीन ने भारत से 1962 की जंग में अपने नियंत्रण में ले लिया था और ट्रांस काराकोरम को पाकिस्तान ने चीन को दे दिया है. कश्मीर पर भारत के हालिया फ़ैसले से चीन भी सहमत नहीं है. इस मामले को पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में लेकर गया तो इसके स्थायी सदस्य चीन का भी समर्थन मिला. चीन और पाकिस्तान की दोस्ती जग-ज़ाहिर है और इसे भारत के लिए चुनौती के तौर पर भी देखा जाता है.
16 अगस्त को सुरक्षा परिषद के सदस्यों के बीच कश्मीर पर अनौपचारिक बैठक हुई थी. कश्मीर को लेकर सुरक्षा परिषद में 90 मिनट तक बैठक चली. इस बैठक को पाकिस्तान अपनी जीत बता रहा है. उसका कहना है कि किसी स्थायी सदस्य ने इस बैठक का विरोध नहीं किया और ये उसकी बड़ी जीत है. न्यूयॉर्क में सीएनएन से एक राजनयिक ने कहा है कि यह सुरक्षा परिषद की सबसे निचले स्तर की बैठक थी, जिसमें एक बयान तक नहीं जारी किया गया. कुछ लोगों का मानना था कि किसी भी तरह के बयान से तनाव और बढ़ेगा.
लेकिन चीन के राजदूत झांग जुन ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि सदस्य देश कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर चिंतित हैं. सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार बैठक में इस बात पर ज़ोर रहा कि मामले को द्विपक्षीय संवाद के ज़रिए सुलझाया जाए. भारत भी इसमें द्विपक्षीय संवाद की ही बात करता है लेकिन पाकिस्तान किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की बात करता है.
कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को ख़त लिखा था, जिसके बाद ही यह बैठक हुई. अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक़्क़ानी ने ट्वीट कर कहा है,"पाकिस्तान को केवल चीन ने समर्थन किया है जो कि वर्षों से करता आ रहा है. सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख़ को केवल चीन समर्थन मिल रहा है और कोई भी औपचारिक बैठक के लिए तैयार नहीं हुआ तो पाकिस्तान कश्मीर का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में सफल कैसे रहा?"
रूस ने क्या कहा?
इस बैठक के बाद संयुक्त राष्ट्र में रूसी राजदूत दिमित्री पोलियांस्की ने यूएनएससी मीटिंग से पहले पत्रकारों से बात करते हुए कश्मीर के विषय पर द्विपक्षीय वार्ता का समर्थन किया. उन्होंने कहा, "हम इस मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय वार्ता का समर्थन करते हैं. इस मुद्दे पर हमारे रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है. इस बैठक में हम विचारों के आदान-प्रदान के मक़सद से आए हैं." जब उनसे पूछा गया कि क्या आपको नहीं लगता है कि आपने काफ़ी लंबे समय से इस मुद्दे की सुध नहीं ली है, क्योंकि 1971 में काउंसिल ने इस पर बात की थी.
इस सवाल पर दिमित्री पोलियांस्की ने कहा, "मैं 1971 में पैदा भी नहीं हुआ था. ऐसे में मुझे इस बारे में नहीं पता है. हम देखेंगे." यह बैठक बंद कमरे में हुई. बैठक में पाकिस्तान और भारत शामिल नहीं हुए क्योंकि ये दोनों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य नहीं हैं. इससे पहले दिसंबर साल 1971 में भारत-पाकिस्तान का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पहुंचा था. जब दोनों देशों के बीच बांग्लादेश को बनाए जाने को लेकर युद्ध छिड़ा हुआ था.
साल 1965 की भारत-पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान भी दोनों देशों का मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा था. लेकिन इस बार साल 2019 में यह बैठक पाकिस्तान के ख़त लिखने के बाद हुई है. लेकिन अभी तक यह स्पष्ट तौर पर पता नहीं चला है कि आख़िर उस बैठक में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने भारत-पाकिस्तान से कहा क्या?
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में कहा क्या गया?
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ओर से इस बैठक के संदर्भ में अभी तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया है. इस बैठक के बाद से भारत लगातार इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि अनुच्छेद 370 और 35ए के तहत जम्मू-कश्मीर को मिला विशिष्ट राज्य का दर्जा और उससे जुड़े विभिन्न पहलू भारत के आंतरिक मामले हैं. संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुद्दीन ने पाकिस्तान और चीन पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे इस बैठक को तूल देने में लगे हुए हैं. कश्मीर घाटी में मौजूदा हालात को लेकर सवाल उठा रहा है. संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा पहली बार एक जनवरी 1948 को आया वो भी भारत के आग्रह पर.
वर्ष 1947 में क़बायली आक्रमण के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारत के साथ सम्मिलन की संधि पर हस्ताक्षर किए. भारतीय फ़ौज मदद के लिए पहुंची और वहां उसका पश्तून क़बायलियों और पाकिस्तानी फ़ौज से संघर्ष हुआ. इस संघर्ष के बाद राज्य का दो तिहाई हिस्सा भारत के पास रहा. इसमें जम्मू, लद्दाख और कश्मीर घाटी शामिल थे. एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास गया. भारत इस मसले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में लेकर गया जहां साल 1948 में इस पर पहला प्रस्ताव आया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सूची में यह प्रस्ताव नंबर 38 था. इसके बाद इसी साल प्रस्ताव 39, प्रस्ताव 47 और प्रस्ताव 51 के रूप में तीन प्रस्ताव और आए.
17 जनवरी 1948 को प्रस्ताव 38 में दोनों पक्षों से अपील की गई कि वे हालात को और न बिगड़ने दें, इसके लिए दोनों पक्ष अपनी शक्तियों के अधीन हरसंभव कोशिश करें. साथ ही ये भी कहा गया कि सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों को बुलाएं और अपने मार्गदर्शन में दोनों पक्षों में सीधी बातचीत कराएं. 20 जनवरी 1948 को प्रस्ताव संख्या 39 में सुरक्षा परिषद ने एक तीन सदस्यीय आयोग बनाने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत और पाकिस्तान की ओर से एक-एक सदस्य और एक सदस्य दोनों चुने हुए सदस्यों की ओर से नामित किया जाना तय किया गया. इस आयोग को तुरंत मौक़े पर पहुंचकर तथ्यों की जांच करने का आदेश दिया गया.
जनमत संग्रह की योजना ज़मीन पर क्यों नहीं उतर पाई
1947-48 में भारत-पाकिस्तान की जंग एक युद्धविराम के साथ ख़त्म हुई लेकिन कश्मीर समस्या का समाधान अटका ही रहा. जनवरी 1949 में यूनएन मिलिटरी ऑब्ज़र्वर ग्रुप को भारत और पाकिस्तान में भेजा गया. इस ग्रुप को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम का जायज़ा लेना था. तब युद्धविराम की शिकायतें मिल रही थीं और इस पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को रिपोर्ट सौंपनी थी. युद्धविराम के तहत दोनों देशों को अपने सैनिकों को वापस बुलाना था और जनमत संग्रह कराने की बात थी ताकि जम्मू-कश्मीर के लोग आत्मनिर्णय कर सकें.
कश्मीर पर नेहरू को विलेन बनाना कितना सही
भारत का तर्क था कि पूरा कश्मीर उसके पास नहीं है इसलिए जनमत संग्रह वो नहीं करा सकता. उधर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का पालन नहीं करते हुए अपने सैनिकों को वापस नहीं बुलाया. भारत का तर्क था कि 1948-49 के यूएन के प्रस्ताव की प्रासंगिकता नहीं रह गई है क्योंकि जम्मू-कश्मीर की मूल भौगोलिक स्थिति पर नियंत्रण बदल चुका था. पाकिस्तान ने कश्मीर के एक हिस्से को चीन को सौंप दिया था और उसके नियंत्रण वाले कश्मीर में डेमाग्रफ़ी भी बदल गई थी.
कश्मीर मुद्दा और शिमला समझौता
1971 में दोनों देशों की सेनाओं के बीच जंग के बाद साल 1972 में शिमला समझौता अस्तित्व में आया. इसमें सुनिश्चित कर दिया गया कि कश्मीर से जुड़े विवाद पर बातचीत में संयुक्त राष्ट्र सहित किसी तीसरे पक्ष का दखल मंज़ूर नहीं होगा और दोनों देश मिलकर ही इस मसले को सुलझाएंगे. उस समय इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो थे. भारत सरकार ने कहा कि कश्मीर की स्थिति और विवाद के बारे में पहले हुए तमाम समझौते शिमला समझौता होने के बाद बेअसर हो गए हैं. ये भी कहा गया कि कश्मीर मुद्दा अब संयुक्त राष्ट्र के स्तर से हटकर द्विपक्षीय मुद्दे के स्तर पर आ गया है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने कहा क्या है?
एक ओर जहां इस बैठक के बाद पाकिस्तान अपनी पीठ ठोक रहा है वहीं भारत का कहना है कि यह उसका आंतरिक मामला है और किसी भी बाहरी को इसमें दख़ल नहीं देना चाहिए. लेकिन अगर सिर्फ़ बैठक की बात करें तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की इस बैठक में मौजूद ज़्यादातर सदस्यों ने भारत और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों से आग्रह किया है कि वे कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय वार्ता से सुलझा लें. जैसा कि भारत भी शुरू से ही कहता रहा है.

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