कांग्रेस नया अध्यक्ष चुनने से पहले सोनिया गांधी 3 यक्ष प्रश्‍न हल करें

कांग्रेस अध्यक्ष पद पर मंथन शुरू तो बहुत पहले हुआ था, अब जोर पकड़ चुका है. माना तो इसे आखिरी दौर ही जा रहा है. फिर तो कोई न कोई कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ ही जाएगा. रेस में नाम तो कई हैं, लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने जो स्टैंड लिया है - उससे प्रियंका गांधी वाड्रा को लेकर सस्पेंस गहराने लगा है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने साफ तौर पर कह दिया था कि वे दोनों ही नये अध्यक्ष की चयन प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे. लेकिन इस स्‍टैंड में देर रात पलटी मारी गई. सोनिया गांधी को नया अध्‍यक्ष चुने जाने तक पार्टी की कमान सौंप दी गई. राहुल गांंधी को कांग्रेस अध्‍यक्ष बनाने वाली सोनिया गांधी अब अंतरिम अध्‍यक्ष हैं. कांग्रेस अध्‍यक्ष पद के चुनाव को लेकर जोे रायशुमारी की प्रक्रिया अपनाई गई है, उसमें नानुकुर करते प्रियंका गांधी को भी जोड़ लिया गया है. हां, राहुल गांधी इस पूरी माया से दूर हैं.
एक बात तो साफ है कि ये अस्थायी व्यवस्था है और पूर्णकालिक अध्यक्ष कांग्रेस के संविधान की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए ही चुना जाएगा. माना जा सकता है कि वैसी स्थिति में प्रियंका गांधी भी चुनी जा सकती हैं. वैसे भी हाल फिलहाल कांग्रेस के कई नेता प्रियंका गांधी वाड्रा को अध्यक्ष बनाये जाने को लेकर पैरवी कर रहे थे. शशि थरूर इस मुहिम की अगुवाई करते देखे गये, जो आज सोनिया गांधी को बधाई दे रहे हैंं.
अच्छी बात है. कांग्रेस देर सवेर अपने लिए एक अदद अध्यक्ष खोज ही लेगी. एक ऐसा अध्यक्ष जो पार्टी के दायरे में अपेक्षित पैमानों पर फिट बैठता हो, कुर्सी पर भी बैठ ही जाएगा, लेकिन कुछ ऐसी चीजें हैं जो कांग्रेस के लिए नया अध्यक्ष चुनने से भी ज्यादा जरूरी लगती हैं - मसलन, मौजूदा हालात में कांग्रेस की देश राजनीतिक भूमिका क्या होनी चाहिये? अंतरिम अध्‍यक्ष के रूप में सोेनिया गांधी के सामने पार्टी का नया नेता चुनने से ज्‍यादा जरूरी पार्टी लाइन तय करना हो गइ है. 
क्या हो कांग्रेस की देश की राजनीति में भूमिका
कांग्रेस को विपक्ष में रहने के मौके सरकार चलाने के मुकाबले काफी कम मिले हैं. फिर भी कांग्रेस नेतृत्व विपक्ष की राजनीति करने की मजूबरी को पचा नहीं पाता. आम चुनाव में सोनिया गांधी को उम्मीद रही कि जैसे 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को हराया था, नरेंद्र मोदी को भी वैसे ही सत्ता से बेदखल कर देंगे - ऐसा होना तो दूर बीजेपी पहले के मुकाबले ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही.
सत्ता तो दूर कांग्रेस के लिए तो लगातार दूसरी बार विपक्ष का नेता पद हासिल करना दूभर हो गया. ये ठीक है कि कांग्रेस तकनीकी तौर पर नेता, प्रतिपक्ष के पद से इस बार भी वंचित है, लेकिन लोक सभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को वैसा ही आदर भाव मिल रहा है - जैसा विपक्ष के नेता रहे पर मिलता. पिछली पारी में मल्लिकार्जुन खड्गे इस भूमिका में रहे, लेकिन अक्सर उनका विरोध सिर्फ विरोध के नाम पर ही नजर आता. वो लोकपाल की नियुक्ति वाली मीटिंग में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में बुलाये जाने का विरोध करते रहे.
ये सारी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन कांग्रेस अब तक ये नहीं तय कर पायी है कि देश की विपक्ष की राजनीति में उसे किस रोल में बने रहना है - ऐसा भी नहीं कि ये सब राहुल गांधी के अचानक कुर्सी छोड़ देने के कारण हो रहा है.
1. किसी भी मुद्दे पर राजनीतिक स्टैंड को लेकर उलझन - ये ठीक है कि विपक्ष की राजनीति में हर बात के विरोध का जन्म सिद्ध अधिकार मिला होता है. कांग्रेस इस अमल ही नहीं कर रही, बल्कि आंख मूंद कर अमल कर रही है. ताजातरीन मामला जम्मू-कश्मीर को लेकर धारा 370 का है.
कांग्रेस ने धारा 370 के मामले में संसद में ब्लाइंड शॉट खेल दिया है. फिर क्या था, संसद से सड़क तक कोहराम मच गया. बाहर लोगों के बीच तो जो फजीहत हुई वो हुई ही, पार्टी के अंदर ही दो गुट बन गया - एक मोदी सरकार के फैसले के सपोर्ट में और दूसरा निष्ठावान नेताओं का विरोध में.
जब CWC की मीटिंग में बहस होने लगी तो धारा 370 हटाये जाने का सपोर्ट करने वाले जनभावना की दुहाई देने लगे. गुलाम नबी आजाद 45 मिनट तक कांग्रेस नेताओं की काउंसिलिंग करते रहे - लेकिन ले देकर पी. चिदंबरम ही उनकी दलीलों पर मिसाल देते रहे. अंत भला तो सब भला. राहुल गांधी ने विरोध के रूख पर मुहर लगायी तो फाइनल हो गया कि विरोध कायम रखना है. मगर, मजबूरी में स्टैंड में बदलाव करना पड़ा - धारा 370 को हटाये जाने की प्रक्रिया का विरोध करने का फैसला हुआ है.
देश के इतने बड़े मुद्दे पर क्या ऐसे ही खिलवाड़ किया जाना चाहिये? इतना आगे पीछे तो मोहल्ले की राजनीति में भी नहीं देखने को मिलता है. अगर सोच समझ कर शुरू से ही एक सही पॉलिटिकल लाइन बनायी गयी होती तो क्या इस फजीहत से बचा नहीं जा सकता था?
2016 में उड़ी अटैक के बाद राहुल गांधी ने 'खून की दलाली' वाला बयान देकर फजीहत करायी थी, पुलवामा हमले और बालाकोट एयरस्ट्राइक पर शुरू में तो कांग्रेस ने सरकार के साथ खड़े होने की बात कही, लेकिन 21 विपक्षी दलों का प्रस्ताव मीडिया के सामने पढ़ कर नयी मुसीबत बुला ली. जब पाकिस्तान की टीवी बहसों में 21 विपक्षी दलों के प्रस्ताव का जिक्र होने लगा तो बीजेपी ने कांग्रेस नेतृत्व को घेर लिया. पूरा माहौल ही बीजेपी के पक्ष में और कांग्रेस के खिलाफ हो गया. बेहतर तो यही होता कि कांग्रेस ऐसे मामलों में खूब सोच विचार कर स्टैंड लेती और आखिर तक उस पर अड़ी रहती. ऐसा करने के लिए तो कांग्रेस की कोर कमेटी ही काफी है - अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी का बैठे रहना जरूरी थोड़े ही है.
2. बीजेपी जैसा बनना है या 'कांग्रेस' ही बने रहना है - कांग्रेस को ये भी तय करना होगा कि वो बीजेपी की कॉपी करती फिरे या फिर अपने मूल स्वरूप में फिर से खड़े होने की कोशिश करे. राहुल गांधी ने बीजेपी को शिकस्त देने के लिए वो सब कर लिया है जो उसके समर्थकों के मिजाज को सूट करता है, लेकिन अब तक कोई फायदा नहीं मिल सका है.
गुजरात चुनाव से ही राहुल गांधी ने जो मंदिर और मठों का दौरा शुरू किया वो थमने नहीं दिया. लगातार खुद को जनेऊधारी हिंदू शिवभक्त साबित करने के लिए जूझते रहे - और बीजेपी ने जहां भी कमजोर देखा रगड़ दिया. कांग्रेस नेताओं को ये क्यों नहीं समझ आता कि विरोध का अपना पक्ष होता है और उसी में लोगों को एक उम्मीद नजर आती है. अगर कांग्रेस भी बीजेपी जैसी ही नजर आने लगे तो किसे फर्क समझ आएगा - जो भी संसाधनों में भारी पड़ेगा चुनाव जीतता चला जाएगा. ऐसे में अच्छा तो यही होता कि कांग्रेस अपनेआप पर यकीन करे. ऐसी राजनीतिक करे जिसमें लोगों को एक विकल्प नजर आये. गलतियों को स्वीकार करे और भविष्य में न दोहराने के वादे करे - और ये सब करने के लिए भी कांग्रेस की कोर कमेटी काफी है. 
3. सरकार से ऐसे सवाल पूछो कि जवाब न मिले - अगर कांग्रेस को बीजेपी की कॉपी ही करनी है तो 2005-2009 तक विपक्ष की भूमिका को एक बार ठंडे दिमाग से याद कर ले. बीजेपी की ओर से राज्य सभा में अरुण जेटली और लोक सभा में सुषमा स्वराज ने कैसे मनमोहन सरकार की नाक में दम कर रखा था. अगर राहुल गांधी को कुछ सीखना है तो राज्य सभा टीवी आर्काइव से रिकॉर्डिंग देख लें. खेलों की दुनिया में विरोधी टीम के खिलाफ रणनीति तैयार करने में ऐसे उपाय बेहद कारगर होते हैं.
राज्य सभा में अरुण जेटली का अंदाज ही नहीं, उनकी तैयारियों पर भी गौर किया जाना चाहिये. कैसे अरुण जेटली हाइलाइटर के साथ दस्तावेज पेश करते रहे - और सरकार को जवाब देना भारी पड़ता रहा. कैसे लोक सभा में सुषमा स्वराज सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा कर देतीं तो जवाब देना भारी पड़ा रहा.
अब ये भी ठीक नहीं होगा कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के भाषण सुनने के बाद कांग्रेस नेता मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप वैसे ही लगाने शुरू कर दे जैसे यूपीए की दूसरी पारी में हुआ था. अभी का मुद्दा अब के हिसाब से तय करना होगा. मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप की परिणति क्या होती है, 'चौकीदार चोर है' का जप कर राहुल गांधी नतीजे देख ही चुके हैं.
विरोधी टीम को शिकस्त देने की रणनीति कैसे तैयार करते हैं, इसके लिए राहुल गांधी चाहें तो शाहरूख खान की फिल्म 'चक दे इंडिया' देख सकते हैं. कई बर गूढ़ बातें एक बार में समझ नहीं आतीं. ऐसे में रिप्ले का ऑप्शन भी होता है और उसमें कोई बुराई नहीं है. ये फिल्म देख कर ये भी सीखा जा सकता है कि टीम को कैसे मैनज और मोटिवेट किया जाता है.
सबसे अच्छा यही होगा कि कांग्रेस पहले मुद्दों की तलाश करे. देश की अर्थव्यवस्था कहां जा रही है. नौजवानों के लिए रोजगार का क्या इंतजाम है? ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. बुनियादी चीजों से लोगों को बहुत दिन तक बरगलाया नहीं जा सकता - कांग्रेस को ये सब जितना जल्दी समझ में आ जाये वही अच्छा है. वरना, अब फिर से अच्छे दिन तो आने से रहे. अंंतरिम अध्‍यक्ष की भ‍ूमिका रहीं सोनिया गांधी के सामने पार्टी का नया उत्‍तराधिकारी ढूंढने से ज्‍यादा बड़ी चुनौती कांग्रेस का वजूद तलाश करना है. मौजूदा राजनीतिक माहौल में कांग्रेस की पार्टी लाइन तय करना बेहद क्रिटिकल हो गया है. राहुल गांधी की अप्रोच को तो बीजेपी और मोदी सरकार ने नॉन-सीरियस साबित कर दिया. सोनिया गांधी और कांग्रेस के सामने चैलेंज है, उस छाप से बाहर आने की. इसके लिए उन्‍हें संतुलित लाइन लेनी होगी, जो तर्कों के आधार पर हो. मणिशंकारों के नहीं.

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