बिल पास कराने में सरकार क्यों दिखा रही है इतनी हड़बड़ी?

भारी विरोध के बीच लोकसभा में बुधवार को ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन विधेयक यानी यूएपीए को पास कर दिया गया. यूएपीए संशोधन विधेयक पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी बहस हुई और कांग्रेस ने वॉकआउट कर अपना विरोध जताया. लेकिन जबसे सत्रहवीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हुआ है, मोदी सरकार ने एक के बाद एक कुल 14 विधेयकों को अपने प्रचंड बहुमत के बल पर संसद में पास करा लिया है.
एनआईए, आरटीआई, यूएपीए, मोटर यान और श्रम क़ानून जैसे कई संशोधन विधेयक बहुत तेज़ी से पास कराए गए जिनका दूरगामी असर पड़ने वाला है. तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने बुधवार को आरोप लगाया कि मोदी सरकार बिना जांच परख के संसद में बिल पास करा रही है और संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को इस तरह कुचला नहीं जा सकता.
बाद में बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "14वीं लोकसभा में 60 प्रतिशत विधेयक की स्क्रूटनी हुई, इसी तरह 15वीं लोकसभा में 71 प्रतिशत विधेयक की स्क्रूटनी हुई जबकि पिछली 16वीं लोकसभा में सिर्फ़ 26 विधेयकों को सेलेक्ट कमेटी को भेजा गया. मौजूदा 17वीं लोकसभा में अभी तक 14 विधेयक पास हुए हैं लेकिन एक भी विधेयक की स्क्रूटनी नहीं हुई. इससे संसद की परंपरा नष्ट हो रही है."
वो कहते हैं, "किसी भी विधेयक की स्क्रूटनी इसलिए होती है क्योंकि विधेयक को और बेहतर बनाने की मंशा होती है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो संसदीय लोकतंत्र को बंद करके राष्ट्रपति प्रणाली की ओर चले जाना होगा. ये बहुत ख़तरनाक़ ट्रेंड है."
विपक्ष की चिंता
डेरेक ओ ब्रायन ने सत्तारूढ़ दल पर बहुमत के दम पर विपक्ष को कुचलने का आरोप लगाया. विपक्ष का विरोध एनआईए, आरटीआई और यूएपीए संशोधन विधेयक को लेकर काफ़ी तीखा रहा है. यूएपीए (ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम संशोधन विधेयक) संशोधन विधेयक के अनुसार, अब सिर्फ़ संदेह के आधार पर ही किसी को आतंकवादी ठहराया जा सकता है और ऐसे व्यक्तियों की संपत्ति ज़ब्त की जा सकती है.
इस विधेयक से एनआईए को भी असीमित अधिकार मिलेगा. इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी जांच कर सकते हैं, शक के आधार पर किसी की गिरफ़्तारी की जा सकती है और किसी राज्य में स्थानीय पुलिस को सूचना देने की बाध्यता नहीं रह जाएगी. विपक्ष और आलोचकों का आरोप है कि इससे विरोधियों के ख़िलाफ़ दमन करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने का ख़तरा है.
इसी तरह आरटीआई संशोधन विधेयक को लेकर विपक्ष का आरोप है कि सरकार इसे कमज़ोर कर रही है. आरटीआई संशोधन विधेयक के मुताबिक़ अब सूचना आयुक्त के अधिकारों को सीमित किया गया है.
मूल आरटीआई एक्ट में प्रावधान था कि सूचना आयुक्त की हैसियत चुनाव आयुक्त के बरबार होगी जिनका क़द सुप्रीम कोर्ट के जज जैसा होता है. आरटीआई संशोधन विधेयक में प्रावधान किया गया है कि आयुक्तों की सेवा शर्तों को सरकार निर्धारित करेगी.
हैदराबाद नेशनल लॉ (नल्सार) यूनिवर्सिटी के वीसी और क़ानूनविद फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, "पहले की सेवा शर्तों की वजह से सूचना आयुक्त की एक स्वतंत्रता होती थी, संशोधन के बाद अब उनका क़द सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर नहीं रह जाएगा." विपक्ष इन्हीं चिंताओं को लेकर इस विधेयक को सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग कर रहा है.
विधेयक पास करने की प्रक्रिया पर सवाल
विपक्ष इसलिए भी नाराज़ है कि विधेयक पेश करने में ज़रूरी प्रक्रियाओं का ठीक पालन नहीं किया जा रहा है. लेकिन फ़ैजान मुस्तफ़ा का कहना है, "ऐसा नहीं है कि प्रक्रिया का पालन नहीं हो रहा है. सदन में पहली, दूसरी और तीसरी बार विधेयक को पढ़ा जाता है. एक-एक धारा पर बहस और संशोधन पर वोटिंग होती है. ये सारी प्रक्रिया अपनाई जा रही हैं."
वो कहते हैं, "लेकिन विधेयक लाने से दो तीन दिन पहले विधेयक के ड्राफ़्ट को वितरित किया जाता है, इसके अलावा उस पर बहस के लिए पर्याप्त समय दिया जाता है, जिसमें और सुधार की गुंजाइश है." असल में किसी विधेयक को सेलेक्ट कमेटी को भेजे जाने का मतलब होता है उस पर और व्यापक विचार विमर्श को आमंत्रित करना. कमेटी जनता से सुझाव मंगाती है, क़ानून की एक एक धारा पर बहस होती है और सबसे बड़ी बात पूरी संसद को भरोसे में लेने की कोशिश होती है.
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, "जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, क़ानून पास करने के लिहाज़ से संसदीय कार्यक्षमता बढ़ी है. ये एक अच्छी बात है. क्योंकि जब गठबंधन सरकार होती है तो विधेयक पास होने में रुकावट आती है."
टीएमसी नेता डेरेक ओ ब्रायन का कहना है कि संसद में इस तरह क़ानून पास नहीं किया जाता जिस तरह मोदी सरकार कर रही है.
विपक्ष की चेतावनी
वो कहते हैं, "इस तरह से कोई क़ानून पास होता है. लोकसभा में भले ही आपका बहुमत है लेकिन परम्परा ये है कि अहम विधेयकों को स्टैंडिंग कमेटी या सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाए. लेकिन ये नहीं हो रहा है. ये बहुत ख़तरनाक़ है."
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार के कार्यकाल में बिल पास करने में सेलेक्ट कमेटियों का इस्तेमाल कम से कम होता गया है. ये कमेटियां बहुत अहम होती हैं क्योंकि ये क़ानून की बारीकी से जांच करती हैं. विपक्ष को इस बात का डर भी सता रहा है कि जिस तरह संशोधन विधेयक पेश हो रहे हैं, अगर सरकार चाहे तो विपक्ष पर निशाना साधने के लिए इनका इस्तेमाल कर सकती है.
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डेरेक ओ ब्रायन कहते हैं, "हम सत्तापक्ष के लिए कोई खुला मैदान नहीं छोड़ने जा रहे हैं. हम संसदीय लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए एक एक इंच लड़ेंगे. लेकिन हम डरते नहीं हैं. हम सभी विपक्षी पार्टियां मिलकर लड़ेंगे." उनका कहना है कि क़ानून पास कराने की यह आपाधापी संविधान विरोधी है "हमारा देश संसदीय लोकतंत्र है और ये सीधे उस पर प्रहार है."
बढ़ सकता है टकराव
पहले ही सत्र में जिस तरह अहम बिल बिना बारीक विचार विमर्श के पास हो रहे हैं इसके दूरगामी असर तो देखने को मिलेंगे ही लेकिन ये भी साफ़ दिखाई दे रहा है कि विपक्ष ऐसे ही हार मानने वाला नहीं है. आने वाले समय में अन्य विधेयकों को लेकर विपक्ष का रवैया और कड़ा हो सकता है और सत्तापक्ष और विपक्ष में टकराव बढ़ सकता है. वैसे भी विपक्ष ने राज्यसभा में सात विधेयकों को ज्वाइंट सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने की मांग करने का फ़ैसला किया है.
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, "हमारे यहां कहा जाता है जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड यानी न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है. उसी तरह जस्टिस हरीड इज़ जस्टिस बरीड यानी हड़बड़ी वाले न्याय का मतलब न्याय को दफ़न कर देने जैसा है."
वो कहते हैं, "गठबंधन की सूरत में विधेयक पास न होना और बिना ठीक से विचार विमर्श किए बिल पास कर देना दोनों ही ग़लत है. संसदीय कार्यक्षमता अच्छी हो लेकिन उसकी गुणवत्ता न हो ये भी लोकतंत्र की सेहत के लिए बहुत अच्छी बात नहीं है." वेंकैया नायडू ने उपराष्ट्रपति बनने के बाद राज्यसभा में कहा था कि अपोज़िशन की 'से' होगी यानी विपक्ष को बोलने की आज़ादी होगी और गवर्नमेंट्स 'वे' होगा यानी जो सरकार चाहती है वो होगा.

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