28 साल पहले का वो दिन, जब मनमोहन ने देश को हमेशा के लिए बदल दिया

दुनिया की उभरती हुई महाशक्तियों में गिने जाने वाले भारत ने पिछले ढाई दशकों में तेज आर्थिक तरक्की की है. 28 साल पहले आज ही के दिन कुछ ऐसा हुआ था, जिसने वैश्विक बाजार के लिए भारत के दरवाजे खोले, अपनी नीतियां बदलीं और फिर भारत हमेशा हमेशा के लिए बदल गया. भारत को जिस तेज आर्थिक रफ्तार वाले देशों में शुमार किया जाने लगा है, उस रफ्तार का बीज आज ही के दिन 1991 में बोया गया था. मनमोहन सिंह की नई नीतियों ने सबकुछ बदल दिया था.

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का जनक माना जाता है. 1991 में जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था डावांडोल स्थिति में थी. भारत आर्थिक तौर पर खोखला होने की कगार पर था. तब पीवी नरसिंहराव ने मनमोहन सिंह को देश का वित्त मंत्री बनाया.
आज ही के दिन मनमोहन ने पेश की थी वो नीति
आज ही के दिन 1991 में मनमोहन सिंह ने संसद में बजट पेश किया जिसने भारत के लिए आर्थिक उदारीकरण के रास्ते खोले. इस प्रस्ताव में वि‍देश व्‍यापार उदारीकरण, वि‍त्तीय उदारीकरण, कर सुधार और वि‍देशी नि‍वेश का रास्ते को खोलने का सुझाव शामि‍ल था. इसका नतीजा यह हुआ कि सकल घरेलू उत्‍पाद की औसत वृद्धि दर (फैक्‍टर लागत पर) जो 1951 से 91 के दौरान 4.34 प्रति‍शत थी, वो 1991 से 2011 के दौरान बढ़कर 6.24 प्रति‍शत हो गई.

तब खस्ताहाल हो चुकी थी देश की अर्थव्यवस्था
1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव और वित्तमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की जोड़ी को स्वर्णभंडार गिरवी रखने की हद तक खस्ताहाल हो चुकी अर्थव्यवस्था मिली थी. इससे उबरने के लिए नई व्यवस्था बनाने की जरूरत थी. तब पूरी दुनिया में ग्लोबलाइजेशन यानि भूमंडलीकरण नाम की ‘सर्वाइबल आफ द फिटेस्ट’ की नई व्यवस्था का आगमन हो चुका था. भारत ने तब आर्थिक उदारीकरण के जरिए इसके लिए अपने दरवाजे खोलने का फैसला किया. उसके तहत विदेशी पूंजी का बेरोकटोक प्रवाह सुनिश्चित हो गया.

तब देश में था इंस्पेक्टर राज
80 के दशक तक देश में इंस्पेक्टर राज, लाइसेंस राज, एमआरटीपी अधिनियम और समाजवादी आर्थिक मॉडल में उत्पादन की सांस घुटी रहती थी. उत्पादन का बाज़ार की मांग से कोई सरोकार नहीं था. सरकार तय करती थी कि किस उद्योग में कितना उत्पादन किया जाएगा. सीमेंट से लेकर स्कूटर उत्पादन तक हर क्षेत्र में सरकारी नियंत्रण था. जिन लोगों ने 80 के दशक तक मकान बनवाने के लिए सीमेंट खरीदे हों या नया स्कूटर लेने के लिए जतन किया होगा, उन्हें मालूम होगा कि ये कितना मुश्किल था. कितनी भागदौड़ करनी होती थी. इनकी खरीद के लिए आवेदन लिखकर ना केवल इंस्पेक्टर से मंजूरी लेनी होती थी, बल्कि वेटिंग सूची में लगना होता था. यहां तक शादी ब्याह में भी अतिरिक्त चीनी के लिए विशेष मंजूरी लेनी होती थी.

लाइसेंस लेने के लिए लगाने होते थे ना जाने कितने चक्कर 
तब ज़मीन अधिग्रहण और संयंत्र लगाने के लिए उद्योगपति को सैकड़ों लाइसेंस लेने होते थे. तिस पर लेबर कानून की दिक्कतें थीं, कामगारों की यूनियनें खासी मजबूत थीं. कारोबारी इससे मुश्किल में रहते थे. कुल मिलाकर ऐसा माहौल था कि उद्योग पनपते ही नहीं थे. हड़तालें होती रहती थीं. जो थे, उनमें से ज्यादा केवल सरकारी थे. उनमें भी भ्रष्टाचार चरम पर थे.
प्रति व्यक्ति सालाना आय थी केवल 11,535 रुपए
तब सालाना प्रति व्यक्ति आय महज़ 11,535 रुपये थी. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 11 लाख करोड़ रु. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सिर्फ़ 13,00 करोड़ रु था. विदेशी मुद्रा भंडार 58,00 करोड़ रुपए. 18,000 करोड़ रुपये का निर्यात था. करीब 24हजार करोड़ रुपये का आयात. इस तस्वीर को बदला जाना जरूरी हो गया था.
फिर बड़े पैमाने विदेशी पूंजी आई
इसके बाद देश में पूंजी का प्रवाह हुआ. बड़े पैमाने पर पूंजी का निवेश हुआ. दुनिया के बड़े ब्रांड्स ने भारत में दस्तक दी. बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आईं. देखते ही देखते इस नए पूंजी प्रवाह और भूमंडलीकरण ने देश को बदलना शुरू किया. इसका असर ये हुआ कि देश की संरचना से लेकर मूलभूत सेक्टर्स में बड़े बदलाव होने लगे. नौकरियां और उद्योग बढ़े. जीवनशैली बदली. लोगों के पास ज्यादा पैसा भी आया. देश में नई समृद्धि और संपन्नता भी आई. इस देश में बड़े पैमाने पर नवधनाढ्यों की नई जमात पैदा हुई.

रुपए का अवमूल्यन किया गया
हालांकि इससे पहले बहुत कुछ और हुआ. जब पहली बार मनमोहन सिंह पहले रुपये का अवमूल्यन किया तो देशभर में उनकी बहुत आलोचना हुई.  डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा को कमज़ोर किया जाना किसी को तब रास नहीं आया था. इस कदम को राष्ट्रीय स्वाभिमान की गिरावट से भी जोड़कर देखा गया.

कुछ अहम क्षेत्रों को छोड़कर बाकी सभी विदेशी निवेश के लिए खोल दिए गए. लाइसेंस और परमिट राज ख़त्म कर दिया गया. ब्याज दरें और इम्पोर्ट ड्यूटी कम की गई. विदेशी निवेश के खुलते ही तमाम वैश्विक कंपनियां 84 करोड़ जनता की ओर दौड़ पड़ीं. मिडिल क्लास को सबसे बड़ी ताक़त बताया जाने लगा. उत्पादन के घोड़े सरपट दौड़ने लगे.

औद्योगिक उत्पाद दिनों-दिन बढ़ने लगा. रोज़गार के अवसर पैदा हुए. आर्थिक माहौल बदलने लग गया. पहले आमलोगों के लिए लोन एक सपना था, जिसको सोचा ही नहीं जा सकता था लेकिन अब बैंकों ने रीटेल सेक्टर में ब्याज दरें गिराकर आमजन को लोन मुहैया करवाए जिससे उपभोक्ता संस्कृति में उछाल आ गया.

24 जुलाई 1991 में जो हुआ वो ऐतिहासिक था. दिवालिया होने जा रहे 84 करोड़ के देश को नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उस ट्रैक पर डाल दिया, जहां से पीछे नहीं मुड़ा जा सकता. भारतीय अर्थव्यवस्था वो शेर बन गई, जिसने कई अर्थव्यवस्थाओं को पीछे धकेल दिया है. हालांकि इस विकास का नुकसान भी हुआ. मिश्रित अर्थव्यवस्था की मौत हो गई. इन नीतियों के ढाई से ज्यादा दशकों में देश में जितनी तेजी से खरबपतियों, अरबपतियों व करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है, उनके देश छोड़ जाने की गति उससे कहीं ज्यादा तेज होती गई है.

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