जब जिन्ना ने तिलक का पुरज़ोर बचाव किया था

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सर्वमान्य नायक बाल गंगाधर तिलक की मौत को आज 97 साल बीत चुके हैं. ऐसा माना जाता है कि महात्मा गांधी से पहले अगर कोई राष्ट्रीय कद का नेता था तो वह तिलक ही थे. खुद महात्मा गांधी ने भी तिलक को श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें अपने दौर का सबसे बड़ा जननेता बताया था. लेकिन हालिया राजनीति और राजनीतिक दल तिलक से दूर जाते दिख रहे हैं. उन पर राजनीति में मज़हब घोलने का आरोप भी लगाया जाता है.
क्या तिलक एक हिंदूवादी नेता थे?
लोकमान्य तिलक पर '100 इयर्स ऑफ़ तिलक-जिन्ना पैक्ट' किताब लिखने वाले सुधींद्र कुलकर्णी इसे दुख की बात बताते हैं. सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं, "तिलक कभी भी हिंदुत्व के प्रणेता नहीं रहे, वामपंथी तिलक जी को सही रूप से समझ नहीं पा रहे हैं, भारत में हिंदू समाज सबसे बड़ा समाज है. तिलक जी का उद्देश्य था कि गणेश चतुर्थी और शिवाजी जयंती के जरिए इस समाज में एक नई जागृति लाकर ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ खड़ा किया जाए. लेकिन ये मुस्लिम विरोधी सोच का परिणाम नहीं था. वह मुहर्रम जैसे आयोजनों में भी शामिल हुए थे. लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने यहां तक कहा कि मुझे ब्रिटिश शासन का अंत करना है और ऐसे में अगर सत्ता अस्थायी तौर पर मुसलमानों के हाथ में भी चली जाए तो भी स्वीकार्य है क्योंकि वह हमारे अपने हैं. ऐसे में उन्हें हिंदूवादी कहना पूरी तरह ग़लत है."
तिलक की राजनीति
बाल गंगाधर तिलक ने साल 1908 से लेकर 1914 तक राजद्रोह के मामले में मांडले (वर्तमान म्यांमार) में जेल की सज़ा काटी. दरअसल, तिलक ने अपने अखबार 'केसरी' में मुज़फ्फरपुर में क्रांतिकारी खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के मुक़दमे पर लिखते हुए तुरंत स्वराज की मांग उठाई थी, इन दोनों पर दो यूरोपीय महिलाओं की हत्या का आरोप था. मामले की सुनवाई एक पारसी जज जस्टिस दिनशॉ डावर कर रहे थे और तिलक के वकील थे मुहम्मद अली जिन्ना. जिन्ना ने तिलक को ज़मानत दिलाने की कोशिश की, लेकिन ये कोशिश सफल नहीं हो सकी और तिलक को 6 सालों के लिए जेल भेज दिया गया.
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सुधींद्र कुलकर्णी बताते हैं, "सभी महापुरुषों की तरह तिलक के जीवन में भी अनुभवों के आधार पर चिंतन में बदलाव आया. शुरू के तिलक अलग थे और बाद के तिलक अलग. जब उन्हें मांडले जेल भेजा गया वह उनके जीवन में बहुत बड़ी घटना थी. जेल से लौटने के बाद तिलक की सोच और राजनीति बदली थी."
तिलक-जिन्ना और भारत के दो टुकड़े
ब्रिटिश राज से आज़ादी के 70 साल बाद भी भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्क विभाजन की त्रासदी झेल रहे हैं. लेकिन सुधींद्र कुलकर्णी की मानें तो अगर लोकमान्य तिलक कुछ और साल जिंदा रहते तो भारत का भविष्य कुछ और हो सकता था. 
वे कहते हैं, "तिलक जी अगर कुछ और साल जिंदा रहते तो भारत शायद विभाजन की त्रासदी को झेलने से बच जाता. इसका कारण ये है कि साल 1916 में हुए तिलक-जिन्ना पैक्ट में बाल गंगाधर तिलक ने हिंदू-मुस्लिम एकता और दोनों समाजों की सत्ता में भागीदारी का फ़ॉर्मूला निकाला था. यदि वह फ़ॉर्मूला अटूट रहता तो आगे चलकर भारत का विभाजन नहीं होता और होता भी तो ये त्रासदी में तब्दील न होती."
जिन्ना तिलक के क़रीब लेकिन गांधी से दूर
जिन्ना को आम तौर पर मुस्लिम नेता के रूप में देखा जाता है.कुलकर्णी बताते हैं कि जिन्ना अपने आप को मुस्लिम नेता नहीं मानते थे और राजनीति में मजहब नहीं लाना चाहते थे इसीलिए उन्हें गांधी जी का खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देना रास नहीं आया. लेकिन यही मुहम्मद अली जिन्ना तिलक के अंतिम दिनों में उनके क़रीब आ गए थे और दोनों में हिंदू-मुस्लिम समाज में राजनीतिक भागीदारी पर एक समझ विकसित हो चुकी थी, लेकिन साल 1920 में तिलक की मृत्यु के बाद जिन्ना कांग्रेस की राजनीति से दूर होते चले गए.

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