शीला दीक्षित के अचानक चले जाने से कांग्रेस तो दिल्ली में अनाथ ही हो गयी

शीला दीक्षित नहीं रहीं. 81 साल की उम्र में दिल्ली के एक अस्पताल में 20 जुलाई को उनका निधन हो गया. कुछ दिनों से वो बीमार जरूर थीं, फिर भी कांग्रेस को खड़ा करने के लिए आखिरी दम तक जूझती रहीं. ये भी सच है कि कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों की वजह से उन्हें तनाव के दौर से भी गुजरना पड़ा होगा. दिल्ली की सबसे लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को राजधानी में विकास के कामों के लिए याद किया जाएगा. खास बात ये भी है कि शीला दीक्षित के विरोधी भी इस बात को श्रद्धांजलि के साथ साथ स्वीकार कर रहे हैं. शीला दीक्षित का अचानक चले जाना कांग्रेस के लिए तो बहुत बड़ी क्षति है - क्योंकि वो ऐसे नाजुक मौके पर साथ छोड़ गयी हैं जब कांग्रेस उनकी बहुत जरूरत रही.
आखिरी दम तक जूझती रहीं शीला दीक्षित
ये सच है कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से शिकस्त झेलनी पड़ी थी - और ये भी सच है कि 2019 के चुनाव में एक बार फिर शीला दीक्षित को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने हरा दिया, फिर भी शीला दीक्षित ने जाते जाते कांग्रेस के खाते में जो वोट शेयर दिलाया वो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.
जिस दिल्ली में कांग्रेस को 2013 में 8 सीटें मिली थीं और उसके अगले चुनाव में ये संख्या शून्य पर पहुंच गयी. जिस दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. जिस दिल्ली में 2014 और 2019 में भी सभी सीटें लोगों ने केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की झोली में भर दी - शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने हाल के आम चुनाव में उसी दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को तीसरे पायदान पर भेज दिया - और ज्यादातर इलाकों में तो जमानत तक जब्त हो गयी.
ये शीला दीक्षित ही रहीं जो 2019 के लोक सभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के खिलाफ मजबूती से डटी रहीं - और जब नतीजे आये तो मालूम हुआ कि उनका फैसला कितना सही था. शीला दीक्षित का मानना रहा कि अगर कांग्रेस आप के साथ दिल्ली में चुनावी समझौता करती है तो उसे दिल्ली की मौजूदा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का शिकार होना पड़ेगा - और वो सौ फीसदी सही साबित हुईं.
2019 के आम चुनाव से ऐन पहले शीला दीक्षित को कांग्रेस राहुल गांधी दिल्ली की कमान सौंपी थी. कांग्रेस में शीला दीक्षित की अहमियत समझने के लिए इतना ही काफी है. शीला दीक्षित, सोनिया गांधी की बेहद करीबी रहीं और राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा दोनों उन्हें आंटी ही कहते थे, लेकिन सच तो ये भी रहा कि दिल्ली में कांग्रेस को ऐसा कोई नेता नहीं मिल रहा था जो आम आदमी पार्टी के शासन काल में बीजेपी के बढ़ते असर के मुकाबले पार्टी को खड़ा करने की कोशिश कर सके. बढ़ती उम्र और तबीयत बेहतर नहीं होने के बावजूद शीला दीक्षित को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी दिया जाना इस बात का सबसे बड़ा सबूत है. हालांकि, उनकी मदद के लिए पार्टी ने तीन कार्यकारी अध्यक्ष भी नियुक्त कर रखे थे - और दिल्ली के प्रभारी महासचिव भी, पीसी चाको.
शीला दीक्षित नहीं रहीं. 81 साल की उम्र में दिल्ली के एक अस्पताल में 20 जुलाई को उनका निधन हो गया. कुछ दिनों से वो बीमार जरूर थीं, फिर भी कांग्रेस को खड़ा करने के लिए आखिरी दम तक जूझती रहीं. ये भी सच है कि कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों की वजह से उन्हें तनाव के दौर से भी गुजरना पड़ा होगा.
दिल्ली की सबसे लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को राजधानी में विकास के कामों के लिए याद किया जाएगा. खास बात ये भी है कि शीला दीक्षित के विरोधी भी इस बात को श्रद्धांजलि के साथ साथ स्वीकार कर रहे हैं. शीला दीक्षित का अचानक चले जाना कांग्रेस के लिए तो बहुत बड़ी क्षति है - क्योंकि वो ऐसे नाजुक मौके पर साथ छोड़ गयी हैं जब कांग्रेस उनकी बहुत जरूरत रही.
आखिरी दम तक जूझती रहीं शीला दीक्षित
ये सच है कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से शिकस्त झेलनी पड़ी थी - और ये भी सच है कि 2019 के चुनाव में एक बार फिर शीला दीक्षित को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने हरा दिया, फिर भी शीला दीक्षित ने जाते जाते कांग्रेस के खाते में जो वोट शेयर दिलाया वो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.
जिस दिल्ली में कांग्रेस को 2013 में 8 सीटें मिली थीं और उसके अगले चुनाव में ये संख्या शून्य पर पहुंच गयी. जिस दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. जिस दिल्ली में 2014 और 2019 में भी सभी सीटें लोगों ने केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की झोली में भर दी - शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने हाल के आम चुनाव में उसी दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को तीसरे पायदान पर भेज दिया - और ज्यादातर इलाकों में तो जमानत तक जब्त हो गयी.
ये शीला दीक्षित ही रहीं जो 2019 के लोक सभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के खिलाफ मजबूती से डटी रहीं - और जब नतीजे आये तो मालूम हुआ कि उनका फैसला कितना सही था. शीला दीक्षित का मानना रहा कि अगर कांग्रेस आप के साथ दिल्ली में चुनावी समझौता करती है तो उसे दिल्ली की मौजूदा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का शिकार होना पड़ेगा - और वो सौ फीसदी सही साबित हुईं.
शीला दीक्षित [1938-2019]
2019 के आम चुनाव से ऐन पहले शीला दीक्षित को कांग्रेस राहुल गांधी दिल्ली की कमान सौंपी थी. कांग्रेस में शीला दीक्षित की अहमियत समझने के लिए इतना ही काफी है. शीला दीक्षित, सोनिया गांधी की बेहद करीबी रहीं और राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा दोनों उन्हें आंटी ही कहते थे, लेकिन सच तो ये भी रहा कि दिल्ली में कांग्रेस को ऐसा कोई नेता नहीं मिल रहा था जो आम आदमी पार्टी के शासन काल में बीजेपी के बढ़ते असर के मुकाबले पार्टी को खड़ा करने की कोशिश कर सके. बढ़ती उम्र और तबीयत बेहतर नहीं होने के बावजूद शीला दीक्षित को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी दिया जाना इस बात का सबसे बड़ा सबूत है. हालांकि, उनकी मदद के लिए पार्टी ने तीन कार्यकारी अध्यक्ष भी नियुक्त कर रखे थे - और दिल्ली के प्रभारी महासचिव भी, पीसी चाको.
तमाम मुश्किलों के बावजूद शीला दीक्षित अगले साल होने जा रहे दिल्ली विधानसभा के चुनावों के लिए जोर शोर से जुटी हुई थीं. शीला दीक्षित को सिर्फ विरोधी दल के नेताओं से ही नहीं बल्कि कांग्रेस के ही सीनियर नेताओं से लगातार जूझना पड़ रहा था. शीला दीक्षित और दिल्ली प्रभारी पीसी चाको का झगड़ा तो आखिर तक खत्म नहीं ही हो सका. एक तरफ वो अपनी सेहत से जूझ रही थीं और दूसरे मोर्चे पर दिल्ली प्रभारी चाको की चिट्ठियों से. वैसे चाको की चिट्ठियों से बेपरवाह शीला दीक्षित अपने तरीके से कांग्रेस को मजबूत करने में लगी रहीं - और अपने हिसाब से जिलाध्यक्षों की नियुक्ति भी कर डाली थी.
ये बात अलग है कि दिल्ली कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको आखिर तक शीला दीक्षित को पत्र लिखते रहे - ज्यादातर पत्रों में शीला दीक्षित के फैसलों को पलटने और नये आदेश की ही बातें हुआ करती रहीं. हाल के एक पत्र में पीसी चाको ने शीला दीक्षित से कहा था कि उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती, इसलिए वो कार्यकारी अध्यक्षों को फैसले लेने दें - और ये अधिकार चाको ने उन्हें दे भी दिया था. जाहिर है शीला दीक्षित आखिरी दम तक कांग्रेस को मजबूत करने की रणनीति बना रही होंगी - लेकिन अफसोस उन पर कभी अमल नहीं हो सकेगा. अफसोस तो पीसी चाको को भी होगा ही कि अब वो शीला दीक्षित को कोई पत्र नहीं लिख पाएंगे - अगर लिखे भी तो उनकी डिलिवरी नहीं हो पाएगी.
विरोधी भी मान रहे शीला दीक्षित के योगदान का लोहा
1998 से 2013 तक लगातार 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को 2014 में उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया गया था. लेकिन अगस्त, 2014 में ही शीला दीक्षित ने पद से इस्तीफा दे दिया था. वैसे भी केंद्र में सत्ता बदल जाने के बाद दूसरे दल की नेता के लिए पद पर बने रहने का कोई मतलब नहीं रह गया था.
शीला दीक्षित को विकास का चेहरा माना जाता रहा है. दिल्ली मेट्रो और तमाम फ्लाईओवर से लेकर बारापूला जैसे बड़े रोड अगर बने हैं तो उसके पीछे सोच और श्रेय शीला दीक्षित को ही जाता है. यही वो बड़ी वजह रही कि कांग्रेस एक बार फिर शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश कर रही थी. दिल्ली क्या 2017 में तो समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन से पहले कुछ दिन तो शीला दीक्षित को यूपी का सीएम चेहरा भी पेश किया गया था.
अब इससे बड़ी बात क्या होगी कि शीला दीक्षित के राजनीतिक विरोधी भी दिल्ली को लेकर उनके योगदान की बात कर रहे हैं. अमूमन राजनीतिक श्रद्धांजलि संदेशों में विरोधी दलों के नेता व्यक्तित्व और परिवार पर फोकस शोक व्यक्त करते हैं, लेकिन शीला दीक्षित के मामले में तो अलग ही देखने को मिल रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शोक संदेश में माना है कि शीला दीक्षित के व्यक्तित्व की सराहना के साथ साथ उनके शासन में दिल्ली में हुए विकास के कामों की ओर भी ध्यान दिलाया है. कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देनेवाले प्रधानमंत्री मोदी का शीला दीक्षित की तारीफ में दो शब्द भी बहुत मायने रखते हैं. यहां तक की राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी ट्वीट में कहा है, 'उनका कार्यकाल राजधानी दिल्ली के लिए महत्वपूर्ण परिवर्तन का दौर था जिसके लिए उन्हें याद किया जाएगा.'

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