बहुजन आंदोलन आज कहां खड़ा है : मायावती ने शायद दीवार पर लिखा संदेश नहीं पढ़ा

 
पिछड़ों यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) को मुख्यधारा में लाने के लिए विभिन्न सामाजिक चिंतकों और समाज सुधारको ने प्रयास किए। इनमें महात्मा फूले, शाहू छत्रपति महाराज, डॉ. भीमराव आंबेडकर और कांशीराम की भूमिका सबसे अधिक रही। साहु महाराज के प्रयास ज्यादा सटीक थे, क्योंकि उन्होंने पिछड़ों का पिछड़ापन दूर करने के दो तरीके अपनाए थे। एक था भगवान एवं भक्त के बीच पुजारी को हटाना और दूसरा था कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में पिछड़ों की भागीदारी सुनिश्चित करना। उन्होंने 1902 में पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण शुरू किया था। इसलिए उन्हें देश में आरक्षण का जनक भी मानते हैं। कांशीराम ने पिछड़ों को लामबंद कर आंबेडकर और दूसरों के विचारों को राजनीतिक रूप में तबदील किया। यह प्रयोग उत्तर प्रदेश में लागू हुआ। इससे हाशिये पर रह रहे समाज में जागरूकता आई।

कांशीराम ने इन प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए 1973 में बुद्ध शोध सेंटर की स्थापना की, जो 1973 में बामसेफ में तबदील हुआ और 1978 में जिसका पहला अधिवेशन हुआ। बाद में भाईचारे पर आधारित दलित राजनीति का उदय हुआ। लेकिन कांशीराम की मृत्यु के बाद पिछड़ों के इस भाईचारे पर ग्रहण लगना शुरू हो गया। दलित राजनीति जाटव तक और जाटव से अब परिवार तक सीमित रह गई है, क्योंकि मायावती ने अपने भाई को बसपा का उपाध्यक्ष और भतीजे को राष्ट्रीय समन्वयक बना दिया है। 
इस प्रकार काशीराम का दर्शन ‘बहुजन बनाओ, परिवार मिटाओ’ उल्टा होकर ‘बहुजन मिटाओ परिवारवाद बढ़ाओ' हो गया है। मायावती ने शायद दीवार पर लिखा संदेश नहीं पढ़ा कि वर्तमान में परिवारवाद से दूर जाने की बयार चल रही है। फिर भी परिवारवाद को बढ़ावा देने का अर्थ है कि बहनजी जान-बूझकर यह कदम उठा रही है।

महागठबंधन के टूटने के बाद पिछड़ों के दो घटकों ओबीसी एवं दलितों के बीच अविश्वास की समस्या अधिक गहरा गई है। ओबीसी समाज यह सोच रहा है कि बसपा की लोकसभा चुनाव में 10 सीटें आ जाने के बाद भी मायावती कह रही हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग ने उनका साथ नहीं दिया और उसका वोट हस्तांतरित नहीं हुआ। 

पिछड़े समाज के मतदाता को बहुजन राजनीति पर विश्वास नहीं है, तो यह बहुजन आंदोलन के लिए एक कष्टदायक पड़ाव है। कांशीराम ने विभिन्न समाजों के अंदर सोए हुए को जगाते हुए जो सामाजिक पूंजी बनाई थी, वह अधिकतर जगह समाप्त हो गई है।

सवाल यह है कि बहुजन आंदोलन आज कहां खड़ा है। कांशीराम ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए शुरू में बामसेफ संगठन चलाया था। लेकिन जब उन्होंने उसे छोड़ दिया, तो एक शैडो बामसेफ चलाया था, जिसका कोई पंजीकरण आदि नहीं था। जो लोग कांशीराम से जुड़े थे, वही संगठन के लिए वित्तीय योगदान करते थे। वर्तमान में वामसेफ के लगभग 20  संस्करण चल रहे हैं। इसी तरह भीम आर्मी संगठन भी है। 
अधिकतर सेवानिवृत्त दलित अधिकारियों ने भी अनेक संस्थाएं तथा राजनीतिक पार्टियां बना रखी है। ओबीसी एवं एसटी के भी संगठन है। ये सब अपनी ढपली अपना राग चला रहे है। इस प्रकार पिछड़े समाज के सामने एक अन्य चुनौती खड़ी हो गई है कि यह करे तो क्या करे। ओबीसी के कम, लेकिन दलित समाज के वोट कई जगह बंट रहे हैं, जो बहुजन समाज के लिए उचित नहीं है। 

बसपा से अलग बहुजन से संबंधित राजनीतिक पार्टियों के लोग यह कहते है कि वे तो बसपा के खिलाफ जाने वाले वोटों पर कब्जा करते हैं, क्योंकि वह तबका अन्य राजनीतिक दलों को वोट नहीं देता। ऐसा करने से क्या लाभ होता है? इसका जवाब ये दलित नेता यह देते हैं कि वे बसपा को हराना चाहते हैं, क्योंकि वह बहुजन का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था का ही अंग बन गई है।

बहुजन का प्रतिनिधित्व करने वाले दल आपस में लड़ते हैं, तो उसका फायदा भाजपा और अन्य राजनीतिक पार्टियों को होता है। इस प्रकार अनेक चुनौतियों पिछड़े समाज के सामने आ खड़ी हुई है। बसपा के व्यवहार को देखकर आम ओबीसी मतदाता कहता है कि उसे उस पर भरोसा नहीं है। 
अगर बसपा सत्ता में आ गई, तो रस्सी का सांप बनाकर ओबीसी को ही परेशान करेगी, क्योंकि कांशीराम ने ओबीसी एवं दलितों के बीच जो समझदारी पैदा की थी, वह तो समाप्त हो गई है। पिछड़े समाज में यह जो खेल चल रहा है, इसकी समझ शोषणकारी व्यवस्था को है और वह व्यवस्था वर्तमान में लगी आग में घी डालेगी, ताकि बहुजन समाज समर्थ न बन जाए।

एक तथ्य यह भी सामने आ रहा है कि बुद्धिजीवी वर्ग और वे सभी, जो दिल और दिमाग से बसपा के साथ थे, वे धीरे-धीरे वहां से खिसक रहे हैं और खुद को वामसेफ या अन्य संगठनों से जोड़ रहे हैं।

इस स्थिति में पिछड़े समाज के जागरूक व्यक्तियों एवं संस्थानों को आगे आने की जरूरत है। वामसेफ के विभिन्न संस्करणों को एक प्लेटफार्म पर आने की जरूरत है। जब सभी का उद्देश्य व्यवस्था परिवर्तन है, तो अलग-अलग ’फोरम’ क्यों? जब सभी का दुश्मन एक ही है, तो अलग-अलग तरीकें क्यों? सभी एक ही तरीका अपनाकर आगे बढ़ें। 

सभी संगठन तक ‘प्रेजीडियम’ बनाकर एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाकर उस पर कार्य करें। यह नजर आ रहा है यदि बहुजन सही मायनों में बहुजन नहीं बना, तो राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को मजबूत करने का जो बीड़ा शाहू महाराज ने सरकार में आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने का उठाया था, वह पूरा होता हुआ नहीं दिखता।
 

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