चमकी बुखारः गोरखपुर और मुज़फ़्फ़रपुर में क्या अलग है?

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में बहुत सी समानताएं हैं. क़रीब 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित दोनों ज़िलों के नाम के अंत में पुर है यानी एक बड़ी बस्ती. दोनों बड़े ज़िले हैं. गोरखपुर का क्षेत्रफल 3483 वर्ग कि.मी. है तो मुज़फ़्फ़रपुर का 3122 वर्ग कि.मी. गोरखपुर की आबादी 44.40 लाख है तो मुज़फ़्फ़रपुर की 48 लाख.
गोरखपुर का नाम नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक महायोगी गोरखनाथ के नाम पर है जबकि मुज़फ़्फ़रपुर ब्रिटिश राज के रेवन्यू ऑफ़िसर (आमिल) मुज़फ़्फ़र ख़ान के नाम पर. मुज़फ़्फ़रपुर मीठी लीची के लिए मशहूर है, जिसे चमकी बुखार से जोड़ दिए जाने के कारण इसके उत्पादन और सेवन को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं बन-बिगड़ रही हैं. गोरखपुर भी कभी रसीले 'पनियाला' के लिए मशहूर था जो अब लगभग ग़ायब हो गया है.
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दोनों ज़िले कुछ वर्षों से एईएस (एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम) और जेई (जापानी इंसेफ़ेलाइटिस) से मरते बच्चों के कारण चर्चा में आते रहे हैं. इस वर्ष मुज़फ़्फ़रपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक जनवरी से चार जुलाई तक जेई/एईएस से 450 बच्चे भर्ती हुए, जिनमें 117 बच्चों की मौत हो चुकी है. गोरखपुर में इस वर्ष जनवरी से जुलाई के पहले सप्ताह तक 100 मरीज़ भर्ती हुए, जिनमें 24 लोगों की मौत हुई है. मरने वालों में अधिकतर बच्चे हैं.
तमाम समानताएं, प्रभाव अल
दोनों ज़िलों में तमाम समानताओं के बावजूद इस बीमारी का रूप दोनों जगह भिन्न है लेकिन इससे प्रभावित बच्चों के परिजनों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठिभूमि में काफ़ी समानताएं हैं.
दोनों स्थानों पर ग्रामीण क्षेत्र के ग़रीब श्रमिक परिवारों के बच्चे इस बीमारी से प्रभावित हो रहे हैं, जिनकी सुरक्षित पेयजल, स्वच्छता, आवास और अन्य बुनियादी सुविधाओं पर ख़र्च करने की स्थिति नहीं है.
ये परिवार सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हैं. दोनों ज़िलों में कुपोषित बच्चों की संख्या अधिक है और ये कुपोषित बच्चे ही सबसे अधिक इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं.
मुज़फ़्फ़रपुर में चमकी बुखार का सबसे अधिक प्रकोप अप्रैल से जून तक देखा जाता है. मानसून के साथ इस बीमारी का प्रभाव कम होता जाता है जबकि गोरखपुर और आसपास के ज़िलों में मानसून शुरू होने के साथ ही इस बीमारी का प्रकोप बढ़ने लगता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में जुलाई से अक्टूबर तक जेई/एईएस के सबसे अधिक मामले आते हैं.
इंसेफ़ेलाइटिस से उत्तर प्रदेश के 18 ज़िले और बिहार में 15 ज़िले सर्वाधिक प्रभावित हैं. यूपी में सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में गोरखपुर, कुशीनगर, महराजगंज, देवरिया, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संतकबीरनगर हैं तो बिहार में मुज़फ़्फ़रपुर के अलावा सिवान, सारण, पूर्वी चम्पारण, गोपालगंज, गया आदि ज़िलों में जेई/ एईएस के मामले आ रहे हैं.
कब कितनी मौतें
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एईएस/जेई के मामले 1995 से पाए जा रहे हैं जबकि यूपी के गोरखपुर में सबसे पहला केस 1978 में रिपोर्ट हुआ था. इस तरह गोरखपुर और आसपास के इलाक़े चार दशक से इस बीमारी का सामना कर रहा है तो बिहार का मुज़फ़्फ़रपुर ढाई दशक से.
दोनों स्थानों पर इस बीमारी का प्रकोप कभी बहुत अधिक रहता है तो कभी कई वर्ष तक मामले कम होते जाते हैं. बिहार में 2012, 2013 और 2014 में चमकी बुखार का बहुत ज़्यादा प्रकोप था. फिर 2015 से 2018 तक इस बीमारी के आंकड़ों में कमी आई लेकिन इस वर्ष इसने फिर से कहर ढाहा है.
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में वर्ष 2005 इस बीमारी का सबसे कहर वाला साबित हुआ था. इस वर्ष गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 937 बच्चों की मौत हुई थी.
इसके बाद से 2017 तक हर वर्ष तकरीबन तीन हज़ार बच्चे यहां के अस्पतालों में भर्ती हुए, जिनमें से 400 से 636 बच्चों की मौत हुई. योगी सरकार पिछले दो वर्ष से एईएस/जेई में काफी कमी आने का दावा कर रही है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज Vs श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज
उत्तर प्रदेश में बीआरडी मेडिकल कॉलेज और मुज़फ़्फ़रपुर में श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज, दोनों राज्यों में एईएस/जेई के बैरोमीटर हैं. यहां भर्ती होने वाले मरीज़ों की संख्या से पता चलता है कि इस बीमारी की राज्य में क्या स्थिति है. दोनों ही मेडिकल कॉलेज में दोनों प्रदेशों के सर्वाधिक मरीज़ भर्ती होते हैं.
ऐसा नहीं है कि यूपी और बिहार में एईएस/ जेई के मामले इन दो अस्पतालों के अलावा और कहीं नहीं आते हैं लेकिन चर्चा में यही दोनों ज़्यादा रहते हैं. दोनों मेडिकल कॉलेजों में बहुत सी समानताएं हैं. बीआरडी मेडिकल कॉलेज की स्थापना 1969 में 147.6 एकड़ परिसर में हुई थी तो एसकेएमसीएच 1970 में 170 एकड़ में बना.
आज एसकेएमसीएच जिस स्थिति से गुज़र रहा है वैसी ही स्थिति से बीआरडी 14 वर्ष पहले गुज़र चुका है. वर्ष 2005 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 3532 बच्चे भर्ती हुए जिसमें से 937 की मौत हो गई थी.
उस समय बीआरडी मेडिकल कॉलेज के पास बच्चों को भर्ती करने के लिए सिर्फ़ एक वॉर्ड हुआ करता था. एक-एक बेड पर तीन-तीन बच्चे लिटाए जाते थे. फ़र्श पर भी बच्चे पड़े रहते थे. मरीज़ों के परिजन अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर तीसरी मंज़िल पर स्थित वार्ड में जाते थे.
वर्ष 2005 में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत के बाद तत्कालीन मुलायम सरकार ने 54-54 बेड के दो एपीडेमिक वॉर्ड बनवाए. इंसेफ़ेलाइटिस से हुए मौतों और शारीरिक-मानसिक रूप से विकलांग हुए बच्चों के परिजनों को 50 हज़ार और 25 हज़ार रुपए की आर्थिक सहायता दिए जाने की भी घोषणा हुई.
इसी वर्ष जापानी इंसेफ़ेलाइटिस की रोकथाम के लिए चीन से आयातित टीके लगवाने की घोषणा हुई और इंसेफ़ेलाइटिस प्रभावित ज़िलों में बच्चों को विशेष अभियान के तहत टीके लगाए जाने लगे.
बाद के वर्षो में 2010, 2011 और 2012 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में क्रमश: 514, 627, 531 बच्चों की मौत हुई. इसके बाद अखिलेश सरकार ने 100 बेड का इंसेफ़ेलाइटिस वार्ड बनवाया. इसी वार्ड में ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए मेडिकल कॉलेज परिसर में लिक्विड ऑक्सीजन प्लांट की स्थापना हुई .
इंसेफ़ेलाइटिस से मृत और विकलांग हुए बच्चों के परिजनों की आर्थिक सहायता बढ़ाकर एक लाख और 50 हज़ार की गई. मेडिकल कॉलेज परिसर में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलाजी की फ़ील्ड यूनिट की स्थापना हुई, जिसे अब रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर में तब्दील किया जा रहा है.

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