आज़ादी से पहले ही शुरू हो गई थी हिंदी विरोध की कहानी

कस्तूरी रंगन के नेतृत्व में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया जाता है। एक सिफारिश होती है - हिंदी को अनिवार्य कर देने की। इस सिफारिश का विरोध दक्षिण भारत खासतौर पर तमिलनाडु में होता है। एम के स्टालिन, एच डी कुमारस्वामी, शशि थरूर समेत दक्षिण भारत के कई नेताओं ने इस सिफ़ारिश का विरोध किया।
दक्षिण भारत खासकर तमिलनाडु में हिंदी के विरोध की कहानी शुरु होती है 1937 से। कांग्रेस 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी के चुनाव जीतती है और सी राजगोपालाचारी मुख्यमंत्री बन जाते हैं. 21 अप्रैल में 1938 में हिंदी को 125 स्कूलों में अनिवार्य करने का एक सरकारी आदेश पारित होता है। पेरियार और तत्कालीन नेता विपक्ष पनीरसेल्वम विरोध करते हैं। विरोध व्यापक हो जाता है। राजनैतिक दलों के साथ-साथ कई शिक्षाविद्, महिला-पुरुष सब इस विरोध का हिस्सा बनते हैं। 1939 में विरोध बढ़ता है और इसके साथ ही बढ़ जाती है पुलिस की कार्यवाही। 1198 आंदोलनकारियों को हिरासत में ले लिया जाता और 1179 को सज़ा मिलती है जिसमें 73 औरतें शामिल होती हैं। अपनी माँओं के साथ 32 बच्चे भी जेल जाते हैं। पेरियार पर 1000 रुपयों का फ़ाइन लगता है और एक साल की सज़ा हो जाती है। कुछ ही दिनों में सबको रिहाई मिल जाती है।
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को शामिल किए जाने के विरोध में कांग्रेस सरकार रिज़ाइन करती है। मद्रास में गवर्नर जनरल का शासन आ जाता है। पेरियार एज़ीटेशन सस्पेंड कर देते हैं। और गवर्नर से हिंदी को अनिवार्य करने वाले सरकारी आदेश वापिस लेने को कहते हैं। 21 फरवरी 1940 को गवर्नर यह आदेश वापिस ले लेते हैं।
इसके बाद 1946-50 के दौरान भी हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिशें हुई। 1948-49 के शैक्षणिक सत्र में हिंदी को अनिवार्य किया गया। लेकिन डीएमके और पेरियार के विरोधों जिसको कुछ पूर्व कांग्रेसी नेताओं का समर्थन भी प्राप्त था, ने अंततः हिंदी को वैकल्पिक विषय बनवा दिया।
राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर तीन सालों तक ज़ोरदार बहस चली और अंत में मुंशी-अयंगर पॉर्म्यूले के आधार पर हिंदी को अंग्रेज़ी के साथ ऑफीशियल भाषा बनाया गया। ये तय किया गया कि पाँच सालों के बाद हिंदी को प्रमोट करने के लिहाज से एक आयोग गठित किया जाएगा।
नेहरु ने आयोग गठित किया। आयोग ने रिपोर्ट सौंपी हिंदी क प्रमोट करने के तरीके बताए। राजगोपालाचारी जो कभी हिंदी के समर्थक हुआ करते थे उन्होंने एक कांफ्रेंस का आयोजन किया और कहा कि हिंदी न बोलने वालों के लिए हिंदी उतनी ही बाहरी है जितनी हिंदी वालों के लिए अंग्रेज़ी। ख़ैर विरोध बढ़ता गया। नेहरु को आश्वासन देना पड़ा कि 1965 के बाद भी हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ऑफीशियल भाषा के तौर पर बरकरार रहेंगी। 1963 में नेहरु के आश्वासन को कानूनी वैधता दी गई और ऑफिशीयल लैंग्वेजेज़ एक्ट पास किया गया।
इसके बाद भी समय समय पर हिंदी को प्रमोट करने की चर्चाएँ और हिंदी का विरोध उभरता रहा। अब जब मोदी सरकार के अंतर्गत नई रिपोर्ट में हिंदी को अनिवार्य करने की सिफ़ारिश की गई है, तो इसका विरोध लाज़िम है। लोगों का कहना है कि भारत जो अपनी विविधता के लिए जाना जाता है, वहाँ एकरंगी भाषा कर देना भारती की संस्कृति को खत्म करने जैसा होगा.

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