क्या ममता, मायावती और पटनायक पर डोरे डाल रहे हैं मोदी?
जैसे ही चुनावी झमाझम हिन्दी पट्टी में घुसा है, अचानक लड़ाई का स्वर बदलता लग रहा है। पहली चीज तो साफ़ दिखते वह प्रयास हैं जो चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए बीच चुनाव में शुरू हो गए हैं। इसका मतलब यह है कि दोनों या तीनों पक्षों को अपने किए पुरुषार्थ से अलग नतीजे आते दिख रहे हैं।
मोदी जी ममता और नवीन पटनायक पर ही नरम नहीं पड़े हैं, शरद पवार की बेटी के चुनाव क्षेत्र में भी जाने से वह बचे हैं। ममता उनको रसगुल्ला और कुर्ता भेजती हैं, इस सूचना ने सही असर किया हो या नहीं, पर नवीन बाबू को चक्रवात प्रभावित इलाक़े में विमान में साथ घुमाने, उनके काम की तारीफ़ करने और हज़ार करोड़ रुपये के अनुदान से ज़्यादा उनकी तसवीरों का खेल चला है।
उधर, मायावती को चुनाव लड़ने का संकेत देना पड़ा तो कांग्रेस भी हमलावर हुई है। तीसरी ओर, चन्द्रशेखर राव द्रमुक नेता स्टालिन के साथ कुमारस्वामी और जगन मोहन रेड्डी से बात कम कर रहे हैं और उसका प्रचार ज़्यादा। शरद पवार भी ख़ुद को बूढ़ा बताने पर नाराज होते हैं तो मुलायम अस्पताल से लौट कर ख़ुद को तरोताज़ा बताते हैं।
राजनैतिक विश्लेषण में ही नहीं नेताओं के सुर में भी जाति ज़्यादा प्रमुख हो गई है और प्रधानमंत्री ने ठीक उसी समय अपने पिछड़ा ही नहीं अति पिछड़ा होने की घोषणा की जब चुनाव उत्तर प्रदेश के पूरब की तरफ़ बढ़ने लगा। इस बार तो किसी तरफ़ से यह उकसावा भी नहीं था। पिछली बार भी प्रियंका गाँधी ने किसी बात पर गुस्सा होकर कहा था कि वे इतनी नीच राजनीति नहीं कर सकतीं। नरेन्द्र मोदी ने उसे नीच जाति की राजनीति और फिर अपनी ‘नीच’ जाति तक उतार दिया और प्रियंका चुप्पी साध गईं।