भारत की अर्थव्यवस्था डगमगाई, बाज़ार में बढ़ी बेचैनी

जम्मू कश्मीर और अनुच्छेद 370 के साथ एक दुनिया और है, जहां खलबली मची है. वह क्षेत्र है भारत की अर्थव्यवस्था का. तमाम मानकों पर देश की अर्थव्यवस्था पिटती नजर आ रही है और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ताबड़तोड़ बैठकें करने में जुटी हैं. यह सीधे तौर पर जनता की रोज़ी-रोटी और रोज़गार से जुड़ा मसला है. अगस्त महीने के पहले पखवाड़े की हेडलाइंस में कश्मीर के साथ ही अर्थव्यवस्था की खबरें भी छाई हुई हैं. चिंताजनक बात ये है कि अर्थव्यवस्था को लेकर तत्काल ज़रूरी कदम नहीं उठाए गए, तो इसका असर देश के हर नागरिक के जीवन पर पड़ेगा.
सरकार के समर्थक सोमवार 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का जश्न मना रहे थे, उसी दिन सीतारमण ने बैंकों के प्रमुखों के साथ बैठक की. उसी दिन यह घोषणा हुई कि वह मंगलवार को एसएमई (लघु और मझौले उद्योग) सेक्टर, बुधवार को ऑटो सेक्टर, गुरुवार को उद्योग संगठनों, शुक्रवार को बाज़ारों के प्रतिनिधियों व निवेशकों और रविवार को मकान के खरीदारों और बिल्डरों के साथ बैठक करेंगी. उसी दिन बिजनेस स्टैंडर्ड ने एक खबर दी कि केंद्र सरकार द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद शेयर बाज़ार में निवेश करने वाले खुदरा निवेशकों को 1.33 लाख करोड़ रुपये की चपत लगी है और घरेलू संस्थागत निवेशकों को 3.33 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.
सरकार नियम लाई थी कि कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) का धन न खर्च कर पाने वालों के ऊपर 50,000 रुपये से 50 लाख रुपये तक जुर्माना लगेगा और संबंधित अधिकारियों को 3 साल तक की कैद की सजा होगी. अब रुख नरम करते हुए उद्यमियों के साथ बैठक के बाद वित्त मंत्री ने साफ किया कि सीएसआर में चूक करने वाली कंपनियों को दंडित नहीं किया जाएगा.
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इसके अलावा सरकार सुपर रिच टैक्स हटाने पर भी विचार कर रही है. यह कर लगने के बाद विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकोंने जुलाई के बाद से 22,000 करोड़ रुपये भारतीय बाज़ार से निकाला है. माना जा रहा है कि निवेशकों पर इस कर का असर पड़ा है. वित्त मंत्री ने उद्योग जगत को आश्वस्त किया है कि कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर 25 प्रतिशत किया जाएगा.
वैश्विक स्थितियों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव
सिर्फ घरेलू परिस्थितियां और कानून ही नहीं सरकार का स्थिति बिगाड़ रहे हैं, बल्कि चीन और अमेरिका की कारोबारी जंग में भारत के नाहक पिट जाने की संभावना बन रही है. अमेरिका-चीन के बीच कारोबारी जंग में युआन की कीमत एक दिन में 1.5 अंक गिरी तो अमेरिका का शेयर बाजार 3.5 प्रतिशत नीचे आ गया और अमेरिका ने चीन को करेंसी मैनिपुलेटर करार दिया. हालांकि जाने माने अर्थशास्त्री पॉल क्रूगमैन इसे सही नहीं मानते और उनका तर्क है कि चीन की आलोचना के लिए अमेरिका के पास इसके अलावा तमाम तर्क हो सकते हैं.
इस समय चीन और भारत के बीच कारोबार पूरी तरह से चीन के पक्ष में हो गया है. वित्त वर्ष 2019 में चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 53 अरब डॉलर रहा. भारत, चीन को 17 अरब डॉलर का निर्यात करता है, जबकि वहां से 70 अरब डॉलर का माल लाता है. ऐसे में अगर वैश्विक कारोबारी जंग में चीन अपने निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करता है तो उसका सीधा असर भारत के बाज़ारों पर पड़ेगा. इसे देखते हुए भारत ने उपायों पर विचार करना भी शुरू कर दिया है. भारत में इस्तेमाल होने वाले 90 प्रतिशत सौर उपकरणों का आयात चीन से होता है. अब भारत इन आयात पर शुल्क बढ़ानेपर विचार कर रहा है. इसके अलावा भारत के कपड़ा निर्यात से चीन का सीधा मुकाबला होता है और अगर चीन का आयात सस्ता होता है तो भारत के कपड़ा बाज़ार के पिटने की भी पूरी संभावना है.
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वाहन बाज़ार पिछले 19 महीने से लगातार गिर रहा है. वाहनों की बिक्री में जुलाई 2019 में 18 प्रतिशत की गिरावट हुई. यात्री वाहनों की बिक्री में 36 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, जो पिछले 2 दशक की सबसे तेज़ गिरावट है. इस क्षेत्र ने वित्त मंत्री से कर्ज़ सस्ता और सुलभ करने की मांग की है. डॉलर के मुकाबले रुपया 6 माह के निचले स्तर 71.40 पर पहुंच गया. बाजार की अनिश्चितता देखते हुए निवेशक सोने में निवेश कर रहे हैं.
वहीं तेल साबुन जैसी रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें बनाने वाली एफएमसीजी कंपनियों का बाज़ार भी मंद पड़ गया है. एफएमसीजी कंपनिया सरकार से कह रही हैं कि आप ग्रामीण इलाकों में लोगों के हाथ खर्च करने लायक धन पहुंचाएं, जिससे कि वे सामान खरीदने की स्थिति में पहुंच सकें. उद्योग संगठन सीआईआई और फिक्की कह रहे हैं कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र में धन लगाया जाना चाहिए, जिससे अर्थव्यवस्था तेज़ी से पटरी पर आ सके.
भारतीय रिज़र्व बैंक लगातार रेपो रेट में कमी कर रहा है, लेकिन उसका असर नहीं दिख रहा है. डूबते धन के संकट से जूझ रहे बैंक ब्याज दर घटाने को तैयार नहीं हो रहे हैं. वहीं उद्योग जगत मौसम पर भी नज़र गड़ाए बैठा है कि काश, अगर अच्छी बारिश हो जाती, किसानों की फसल अच्छी हो जाती और वे सामान खरीदने की हालत में आ जाते.
सरकार के विभिन्न आंकड़ों में फंडामेंटल्स मजबूत नज़र आ रहे हैं. रोज़गार, बाज़ार, मुद्रा में गिरावट, एफएमसीजी, वाहन बाज़ार, रियल एस्टेट सहित विभिन्न क्षेत्रों से जो आंकड़े आ रहे हैं, वह सरकार के फंडामेंटल्स के विपरीत हैं. अर्थशास्त्री इसे अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक खामी न बताकर चक्रीय समस्या बता रहे हैं. वहीं आंकड़ों में जो अंतर है, उससे बाज़ार में घबराहट साफ नज़र आ रही है.
चूंकि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के लक्षण चौतरफा हैं, इसलिए इसे सिर्फ ब्याज दर घटाने जैसे मौद्रिक यानी मॉनिटरी उपायों से काबू कर पाना शायद संभव नहीं होगा. मॉनिटरी उपायों से बाजार में नकदी बढ़ाई जा सकती है. लेकिन ऐसा करने भर से खरीदारी नहीं लौटेगी. इसके लिए दीर्घावधि के उपाय करने की जरूरत है. मैन्युफैक्चरिंग और इंफ्रा सेक्टर को पैकेज देना, रोजगार सृजन करने वाले अन्य सेक्टर को बूस्टर डोज देना ऐसे कुछ उपाय हो सकते हैं. ग्रामीण अर्थव्यवस्था तक भी पैसा पहुंचाना होगा, क्योंकि सबसे ज्यादा सुस्ती वहीं पर है. लेकिन ये वैसे उपाय हैं, जिनके परिणाम आने में समय लगता है और इन पर तालियां नहीं बजतीं.

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