भाजपा जब-जब राहुल को खलनायक बनाती है तो उनके राजनीतिक करिअर में फूंकती है जान

कश्मीर मसले का अपने फायदे के लिए अंतरराष्ट्रीयकरण करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद गए पाकिस्तान को जब वहां बंद कमरे की बैठक में मुंह की खानी पड़ी, तो उसके पास शायद एक ही विकल्प रह गया था: राहुल गांधी का दरवाज़ा खटखटाना. और उसने बिल्कुल यही किया जब जम्मू कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र को लिखे पत्र में पाकिस्तान की मानवाधिकार मंत्री शिरीन माज़री ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी का भी ज़िक्र किया. हालांकि कांग्रेस नेता ने उन्हें निराश कर दिया.
ये शोर-शराबा
पाकिस्तान की याचिका को भारत में खबरों की सुर्खियां बनाए जाने कुछ ही घंटों के भीतर राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘मैं इस सरकार से बहुत से मामलों में असहमत हूं. पर, मैं ये बात बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहता हूं: कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और इसमें पाकिस्तान या अन्य किसी देश के दखल की कोई गुंजाइश नहीं है.’ उन्होंने आगे ये भी ट्वीट किया: ‘जम्मू कश्मीर हिंसाग्रस्त है. ये हिंसा पाकिस्तान के उकसावे और समर्थन के कारण है जो कि पूरी दुनिया में आंतकवाद के प्रमुख समर्थक के रूप में जाना जाता है.’
केंद्र सरकार की नीतियों का समर्थन क्यों कर रही हैं मायावती?
कांग्रेस नेता ने धारा 370 को निरस्त करने की नरेंद्र मोदी सरकार की कार्रवाई, और जम्मू-कश्मीर में संचार तंत्र ठप रखे जाने की निंदा ज़रूर की थी. लेकिन जब पाकिस्तान ने भारत पर कूटनीतिक हमला करने की कोशिश की, तो राहुल गांधी ने सही संदर्भ और अपने दृष्टिकोण को सामने रखने में ज़्यादा देरी नहीं की. हालांकि, उनके इस प्रयास को अधिक तवज्जो नहीं मिली.
यदि आप राहुल के ट्वीट और हाल में कुछ कांग्रेसी नेताओं की इस स्वीकारोक्ति, कि विपक्ष को नरेंद्र मोदी को ‘खलनायक के रूप में चित्रित’ नहीं करना चाहिए, को साथ रख कर देखें तो एक महत्वपूर्ण सबक नज़र आता है. भाजपा को भी इस बात पर पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या राहुल गांधी को खलनायक बताने से उसे कोई फायदा भी हो रहा है. भाजपा को ये समझना चाहिए कि राहुल गांधी को बार-बार निशाना बनाकर वह कांग्रेस नेता के राजनीतिक जीवन में नई जान फूंकने का ही काम करती है.
कांग्रेस भी अपनी भूमिका निभाए
कश्मीर मामले में अपनी दलील के समर्थन में पाकिस्तान द्वारा इस्तेमाल बयान के लिए, स्वाभाविक ही, राहुल गांधी को तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा. भाजपा और सोशल मीडिया के एक बड़े वर्ग ने राहुल गांधी को आड़े हाथों लिया और भारत को बुरी रोशनी में दिखाने में पाकिस्तान के काम आने वाले बयान के लिए उन्हें फटकार लगाई. बेशक, कांग्रेस के एक नेता के रूप में गांधी को कश्मीर मुद्दे पर, अपनी किसी गलत धारणा के कारण, ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिए थी कि जिसे हमारे दुश्मन अपने हित में इस्तेमाल कर सकें.
ये कोई नहीं कह रहा कि विपक्ष को, संसद में वो चाहे जितना भी कमज़ोर हो, हर मुद्दे पर सरकार का समर्थन करना चाहिए या उसे सरकार की आलोचना से बचना चाहिए. पर जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की हो, तो विपक्ष को संयम ज़रूर बरतना चाहिए. पाकिस्तान को दुनिया भर में आतंकवाद के प्रसार का दोषी ठहराने और कश्मीर को भारत का आंतरिक मुद्दा बताने और इस तरह मोदी सरकार के रुख का समर्थन करने वाले राहुल गांधी के ट्वीट संदेश को फैलाना कांग्रेस पार्टी के लिए महत्वपूर्ण है. निश्चय ही यहां एक व्यापक मुद्दा सामने आता है– भारतीय राजनीति में राहुल गांधी की वर्तमान हैसियत का. अक्सर नेतृत्व के गुणों के अभाव और संकट के समय पार्टी को एकजुट रखने में असमर्थता के लिए उनकी आलोचना की जाती है. इसलिए इस बात पर भी बहस की जा सकती है कि क्या उनकी राय का कोई महत्व रह भी गया है.
भाजपा मोदी की बातों पर ध्यान दे
कांग्रेस में ये आम राय दिखती है कि महज विरोध के लिए मोदी की आलोचना करना नुकसानदेह है. हालांकि शशि थरूर जैसे कुछ नेताओं को अपने रुख पर सफाई देने के लिए कहा गया है, क्योंकि बहुत से कांग्रेसी उनके बयानों को मोदी और उनके नेतृत्व के समर्थन के तौर पर देखते हैं. इन परिस्थतियों में, भाजपा को ये तय करना है कि वह इसी तरह के जाल में फंसने से खुद को कैसे बचाती है. जब राहुल गांधी की बातों को खुद उनकी पार्टी में ही ज़्यादा महत्व नहीं दिया जाता दिखता हो, तो ऐसे में कांग्रेस नेता को खलनायक साबित करने के प्रयास उनके राजनीतिक करिअर में नई जान फूंकने का ही काम करेंगे.
स्वीकृत मापदंडों के दायरे में, तथा राष्ट्रीय सुरक्षा, रणनीति और अखंडता को खतरे में डाले बगैर, की जाने वाली राजनीतिक आलोचनाएं वास्तव में लोकतंत्र को मज़बूत करने का ही काम करती हैं. विपरीत राय रखने वालों पर ‘राष्ट्र विरोधी’ होने का ठप्पा नहीं लगाया जाना चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि उनका मानना है कि ‘व्यक्तिगत विचारों के निरपेक्ष, लोगों और संगठनों के बीच सतत और निरंतर संवाद होना चाहिए.’ उन्होंने आगे कहा, ‘हमें हर बात पर सहमत होने की ज़रूरत नहीं है, पर सार्वजनिक जीवन में इतना शिष्टाचार होना चाहिए कि विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले भी एक-दूसरे के दृष्टिकोणों को सुन सकें.’ सार्वजनिक जीवन में शिष्टाचार की बात सब पर समान रूप से लागू होनी चहिए, चाहे वो सत्ता पक्ष हो या विपक्ष. राजनीतिक फायदे के लिए राष्ट्रीय हितों को खतरे में नहीं डालना चाहिए.

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