नर्म हिंदुत्व से इतर मोदी आलोचकों की तीन ग़लतियां

योगेंद्र यादव: ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खलनायक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए’-जयराम रमेश की इस टिपप्णी में दो अलग-अलग संदेशे छिपे हैं. पहला संदेशा मिर्च-मसाला से भरपूर है और जाहिर है कि ठीक इसी वजह से वो अखबार-टीवी में समाचार बनने के काबिल है. लेकिन इस पहले संदेशे की कोई खास अहमियत नहीं. दूसरा संदेशा अपने रंगो-आब में तनिक फीका जान पड़ेगा लेकिन यह दूसरा संदेशा हमारे अपने वक्त की राजनीति पर सोच-विचार के एतबार से बड़ा अहम है.
टिप्पणी को समझने का पहला तरीका है कि हम उसे ‘नरम-मोदीत्व’ के एक इशारे के रुप में देखें, मानकर चलें कि कांग्रेस के भीतर नेतृत्व के खिलाफ एक सुगबुगाहट के शक्ल में टिप्पणी आयी है और बीजेपी के दफ्तर के बाहर पार्टी की सदस्यता लेने के लिए लंबी कतार में शामिल होने की कोशिश नहीं तो भी ये टिप्पणी शासक दल से अमन कायम करने का एक प्रयास जरुर है. कांग्रेस के कई सदस्यों और टिप्पणीकारों ने जयराम रमेश के कथन को इसी रीति पर देखा-समझा और समझ की यह झलक शशि थरुर तथा अभिषेक मनु सिंघवी के कथन में भी झलकी जो जयराम रमेश के कथन की तरफदारी में बोले. यही वजह रही जो एक पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर चलते-चिट्ठे की गई इस टिप्पणी को मीडिया ने हाथो-हाथ लपका और उसकी सुर्खिया बनीं तथा कांग्रेस के भीतर आलोचना के स्वर उभरे.
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जयराम रमेश को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं जानता हूं उसे आधार मानूं तो फिर टिप्पणी से लगाये गये अर्थ में आधी-अधूरी सच्चाई हुई तो भी मुझे उसपर अचरज ही होगा. लेकिन अभी का वक्त बड़ा बावला है और इस बावले वक्त में थोड़े-बहुत अन्तराल से से रह-रहकर अचरज भरी बातें होते चल रही हैं. बहरहाल, यह बात जाहिर है कि जयराम रमेश के कथन के इर्द-गिर्द उठी आवाजों में नरम-मोदीत्व की पुकार कुछ ना कुछ जरूर है. कांग्रेस समेत विपक्ष के कई नेता पाला बदलने के ख्याल से शांति-संदेश भेजने का एक ज़रिया तलाश रहे हैं. अनचाहे में ही सही, जयराम रमेश ने अपने वक्तव्य से वो ज़रिया उपलब्ध करवा दिया हो सकता है. लेकिन ये सारी बातें खास अहिमयत नहीं रखतीं. इन्हें राजनीति की दुनिया का रोज़मर्रा मानकर बरता जा सकता है. ऐसी कोई वजह नहीं जो हम इस वक्तव्य पर अटके रहें और आगे की ना सोचें.
मैं जयराम रमेश की टिप्पणी से निकलते दूसरे संदेशे को लेकर कहीं ज़्यादा उत्सुक हूं क्योंकि उसमें रणनीतिक सोच-विचार का एक आमंत्रण है. सोचें कि दरअसल जयराम रमेश ने कहा क्या था. उनके शब्द कुछ यों हैं : ‘अगर आप हरवक्त उन्हें खलनायक साबित करने पर तुले रहे तो फिर आप उनकी मुखालफत नहीं कर सकते. जब तक हम ये नहीं मान लेते कि वो दरअसल कुछ ऐसी चीज़ें कर रहे हैं जिन्हें लोग जानते-पहचानते हैं और वो चीज़ें इससे पहले के वक्त में नहीं की गईं तबतक हम इस शख्स का विरोध नहीं कर सकते’. मोदी-विरोध की राजनीति इन दिनों जिन खतरों से जूझ रही है, उसकी तरफ इशारा करने के नाते ये बातें बड़ी अहमियत रखती हैं.
मोदी के आलोचकों की तीन गलतियां
मोदी के मुझ जैसे आलोचक कम से कम तीन गलतियां करते हैं. एक तो अपना सारा ध्यान मोदी-विरोध पर केंद्रित करने के कारण हम उन्हें एक हकीकत से कहीं ज्यादा बड़ी शख्सियत बना देते हैं. मोदी के भीतर हर अच्छे काम का श्रेय लेने की इच्छा है और अच्छे काम का श्रेय लेने की मोदी की इच्छा की काट करने की कोशिश में मोदी के आलोचक विरोध के सिरे से बिल्कुल ऐसा ही करते हैं, वे मोदी को देश में हो रही हर बुरी बात के लिए दोष देते हैं: देश के किसी कोने में भीड़ के हाथो हत्या की घटना हो, खेती-किसानी के हलके में कोई एक नीति नाकाम हो जाये, बजट का संतुलन-पत्र बदइंतजामी का शिकार नज़र आये तो इन तमाम बातों का दोष नरेन्द्र मोदी पर मढ़ देते हैं. इस गलती का शिकार मैं भी रहा हूं. बीजेपी सरकार की कृषि-नीति की आलोचना में मैंने एक पतली सी किताब लिखी तो उसका नाम रखा ‘मोदी राज में किसान’. यहां कहने का आशय ये कि मोदी के उत्साही भक्त जितना उनका प्रचार करते हैं लगभग उतना ही प्रचार उनके आलोचक भी करते हैं.
दूसरी बात, मोदी के ज़्यादातर आलोचकों का मोदी-विरोध का शगल किसी ठोस विचार का परिणाम नहीं बल्कि अनायास होता है. चूंकि कोई काम या नीति उनकी सरकार से जुड़ी है तो हमलोग बस इसी नाते उस नीति या काम का विरोध शुरू कर देते हैं. मिसाल के तौर पर हाल में आये राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को ले सकते हैं. यह मसौदा अच्छा भी कहला सकता है और बुरा भी-बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपका किस नज़रिये से इस मसौदे को देख रहे हैं. लेकिन इस मसौदे के बारे में एक बात पक्की है- यह मसौदा ऐसा नहीं जो हम कहें कि ये तो देश की शिक्षा-व्यवस्था के भगवाकरण के लिए बनाया गया आरएसएस का ब्लूप्रिन्ट है.
मुझे लगता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे की ज्यादातर आलोचना इस सोच से हुई कि इसे तो मोदी के शासन-काल में तैयार किया गया है. इसके अतिरिक्त मोदी के आलोचक दोनों सिरों से उनकी मीन-मेख निकालते हैं. अगर मोदी जल्दी-जल्दी विदेश जायें तो हमलोग इस बात के लिए उनपर हमला बोलते हैं और अगर वे जल्दी-जल्दी विदेश ना जाते तो हमलोगों ने उनपर इससे भी कहीं ज्यादा तीखे हमले किये होते. इस रोज़मर्रा की अनायास आलोचना के साथ मुश्किल ये है कि आलोचक व्यापक जनता से कट जाता है. लोग इस आलोचना को उसी भाव से देखते हैं जिस भाव से उसे देखा जाना चाहिए, लोगों भांप लेते हैं कि यह महज विरोध के लिए किया जाने वाला विरोध है.
इस सिलसिले की तीसरी बात जो कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है वो ये कि मोदी के आलोचक मोदी की लोकप्रियता और उसके कारणों को समझ पाने में असफल हैं. साल 2019 के चुनाव के नतीजों को भांप पाने में नाकाम रहना इस बात का सबसे चमकीला उदाहरण है. इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की लोकप्रियता 2018 के उतरार्ध में नीचे जा रही थी लेकिन पुलवामा और बालाकोट की घटना के बाद उनकी लोकप्रियता की ऐसी बाढ़ आयी कि उसमें विपक्ष के तमाम नेता अपनी कद-काठी में डूब गये. इसके बाद चुनाव में कोई मुकाबला ही ना रहा लेकिन मोदी के ज्यादातर आलोचक इस सच्चाई को नहीं देख पाये. यहां तक कि चुनाव के नतीजों के बाद में मोदी के बहुतेरे आलोचक उनकी चुनावी जीत को नहीं पचा पा रहे और लगातार नकार की मुद्रा में हैं. उन्हें ये बात स्वीकार ही नहीं हो रही कि बीजेपी चुनाव जीत गई है और ऐसा ईवीएम में किसी छेड़छाड़ की वजह से नहीं बल्कि इसलिए हुआ है कि लोग मोदी को चुनाव में विजयी बनाना चाहते थे.
मोदी की लोकप्रियता को समझ पाने की इस नाकामी के घेरे में ऐसी कोई जगह ही नहीं बचती कि हम मोदी की लोकप्रियता के कारणों को समझें. मोदी के आलोचक के लिए ये समझ पाना बहुत मुश्किल है कि आम मतदाता के पास अपने मत बीजेपी के पाले में डालने के पर्याप्त कारण थे. जैसे अमेरिका के उदारवादी ये समझ पाने में नाकाम हैं कि आखिर कोई अमेरिकी डोनाल्ड ट्रंप सरीखे नेता को वोट क्योंकर दे सकता है है उसी तरह मोदी के आलोचक ये नहीं समझ पा रहे कि आखिर आम भारतीय मतदाता मोदी के पाले में मतदान क्यों कर रहा है. मोदी के आलोचक सोच के एक निहायत छोटे से दायरे में कैद होते जा रहे हैं और सोच का ये तंग दायरा सांस्कृतिक तौर पर शेष समाज से एकदम कटा हुआ है. ऐसे में आखिर को हाथ लगता है अचरज, अविश्वास, दुश्चिन्ता और बेचैनी लेकिन कोई सार्थक कदम उठा पाना मुश्किल होता है. ये विपक्ष की राजनीति के लकवाग्रस्त होने की राह है.
तुर्की का सबक
तो फिर मोदी के आलोचक आखिर करें तो करें क्या? हम इसके लिए शुरुआती तौर पर अपनी नज़र तुर्की पर डालनी चाहिए. जब रिपब्लिकन पीपल्स पार्टी के कंपेन मैनेजर अतिश इल्यास बासोये से पूछा गया कि आखिर उन्होंने क्या रणनीति अख्तियार की जो इस्तांबुल में इस साल हुए चुनाव में राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप अर्दोगन की पार्टी हार गई तो बासोये का जवाब था कि : ‘हमारे दो साधारण से नियम थे : अर्दोगन को भूल जाओ और जो लोग अर्दोगन से मोहब्बत करते हैं तुम भी उन्हीं से मोहब्बत करो.’ इस ज़बर्दस्त और मारक राजनीतिक रणनीति के मोदी के आलोचकों के लिए क्या निहितार्थ निकलते हैं, इसे बताने के लिए एक और लेख की जरुरत होगी और इस सिरे से एक लंबी राजनीतिक बहस की भी दरकरार होगी.
और, बड़ा अहम है कि हम उस राजनीतिक बहस को अभी से शुरू करें क्योंकि बात सिर्फ एक मोदी या फिर उनके मुट्ठी भर आलोचकों की नहीं हैं. दरअसल, बात तो हमारे पूरे गणराज्य की है. विपक्ष सिर्फ चुनाव नहीं हारा बल्कि उसने चुनाव हारने के साथ-साथ अपना दिशाबोध भी खो दिया है. बीजेपी की विरोध बड़ी पार्टियों के पास बीजेपी के दबदबे से लड़ने के लिए ना तो कोई दांव-पेंच हाथ में रह गया है, ना ही कोई रणनीति या फिर सिद्धांत. नरेन्द्र मोदी नाम की घटना से अपना भाव-बरताव कैसे तय किया जाय – इस बात को सीखना बीजेपी के वर्चस्व की काट की दिशा में उठाया गया पहला कदम हो सकता है.

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