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'कश्मीरियों को समझना होगा उनकी लड़ाई भारत से नहीं, आरएसएस-बीजेपी की विचारधारा से है'

योगेंद्र यादव और मुजीब उल शफी ‍: जम्मू और कश्मीर में आगे का रास्ता क्या है? इतिहास के इस मुकाम पर यह सवाल अजीब, निराला या फिर क्रूरता भरा लग सकता है. एक ऐसे वक्त में जब तकरीबन पूरा ही देश इस बात से मगन है कि कश्मीर समस्या का जो ‘आखिरी समाधान’ होना चाहिए था आखिरकार वो हो गया तो क्या हमें यह सोचने की अब कोई जरूरत रह गई है कि कश्मीर में आगे का कोई और रास्ता क्या हो? हम देश में चल रहे तमाम जश्न के बीच बेगाने और शेष दुनिया से अलग-थलग मुल्क के उस हिस्से में जिसे हम अपना घर कहते हैं, पिंजरे में बंद पंछी की जिन्दगी जीते और आक्रोश से भरे माहौल में क्या इस बात को सोचने की हालत में हैं कि हमारा भविष्य कैसा हो?
फिर भी हमें यह सवाल पूछना चाहिए. हम भारत के नागरिक हैं और हम कश्मीरियत नाम के विचार को लेकर प्रतिबद्ध रहे हैं, इसके लिए उठ खड़े हुए हैं. जम्मू-कश्मीर के नागरिक के रूप में हमने भारत नाम के विचार को अपने दिलोदिमाग में बसाया-लगाया है. ऐसे में हमें ये सवाल अब पूछना ही चाहिए. एक अंधी सुरंग में फंसे हम लोगों को आगे के सफर के लिए यह सवाल पूछना होगा, रोशनी की तरफ बढ़ते इस नामुमकिन से सफर में हम किसका हाथ थामकर अपने कदम बढ़ायें, इस तलाश में हमें ये सवाल पूछना होगा.
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इस मानवीय त्रासदी के कितने किरदार
आइए, शुरुआत में हम ‘कश्मीर समस्या’ नाम की इस मानवीय त्रासदी के तमाम किरदारों पर पहले एक नजर डालते हैं. इस कथा के किरदार हैं: लद्दाख के निवासी, जम्मू इलाके के हिन्दू और मुसलमान, कश्मीरी पंडित, कश्मीर से बाहर रहने वाले यहां के निवासी और कश्मीरी मुसलमान. किसी ईमानदार जवाब की शुरुआत इस स्वीकृति से होनी चाहिए कि ऊपर बताये गये तमाम किरदारों में से किसी को हाल की बड़ी घोषणा और बड़े समाधान से कोई लाभ नहीं होने वाला.
आप चाहे तो यहां लद्दाख को एकमात्र अपवाद मान सकते हैं. हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि व्यावहारिक तकाजों के एतबार से लद्दाख इस भू-भाग में एक अलग ही इलाका है और वह जम्मू-कश्मीर नाम का जो अन्तराली इतजाम रहता चला आया है उसमें एक बिन मर्जी के शामिल साझीदार की तरह रहा और उसने सूबे में सियासी झंझावातों से होने वाला नुकसान का खामियाजा भुगता. आइए, हम स्वीकार करें कि करगिल के शिया मुसलमान अपनी रहनी-सहनी में कश्मीर के सुन्नी मुसलमानों की बनिस्बत लेह के बौद्धों के ज्यादा नजदीक हैं. लद्दाख के लोगों के लिए झंझट से जान छुड़ाने और अपने सफर पर आगे कदम बढ़ाने का यह अच्छा मौका हो सकता है, बशर्ते लद्दाख के लोगों को लोकतांत्रिक रीति से चुनी हुई एक शक्ति-सम्पन्न विधानसभा फराहम की जाय.
लेकिन जम्मू-कश्मीर नाम की मानवीय त्रासदी के बाकी किरदारों के लिए नई व्यवस्था सिर्फ नुकसान का सौदा है. जम्मू इलाके के हिन्दू और मुसलमान आबादी के हाथों से उनका सुरक्षित भू-स्वामित्व जाता रहेगा, सरकारी नौकरियों पर उनकी हकदारी और विशिष्ट नागरिकता का उनका दावा भी हाथ से निकल जायेगा. घाटी की उथल-पुथल भरी स्थिति को देखते हुए बड़े हद तक संभावना यही है कि जम्मू इलाके के लोगों की जमीन, प्राकृतिक संसाधन और जीविका का जरिया मैदानी इलाके से होने वाले पूंजीवादी हमले के जोर के आगे दम तोड़ दे.
कश्मीरी पंडितों को बस इतना भर फायदा होगा कि उनके घायल मन पर एक मरहम लग जायेगा. घाटी से उन्हें जबरिया निकाला गया और बाद के वक्त में उन्होंने बड़े कष्ट सहे तो उन्हें कुछ सकून महसूस होगा, मनोवैज्ञानिक तर्ज की एक क्षतिपूर्ति हो जायेगी कश्मीरी पंडितों की. कश्मीरी पंडितों की ससम्मान घरवापसी की मांग जायज है लेकिन अलग बसाहट से जुड़े तमाम जोखिमों को देखते हुए इस मांग की पूर्ति अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन हो चली है. घाटी में लंबे समय से जारी जाहिर से संघर्ष का घाटा कश्मीर के बाहर रहने वाले कश्मीरियों को भी उठाना होगा. वे कश्मीर से बाहर सामाजिक अपवर्जन और हिंसा का शिकार हो सकते हैं.
घाटी के कश्मीरी मुसलमानों के एतबार से देखें तो धारा 370 की समाप्ति और सूबे का आकस्मिक खात्मा सियासी और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी तबाही से कम नहीं. इसके मायने सिर्फ भू-स्वामित्व तथा विशेष अधिकारों के हाथ से निकल जाने तक सीमित नहीं बल्कि घाटी के मुसलमानों के लिए चली आ रही व्यवस्था पर बचे-खुचे विश्वास के खत्म होने, अपनी हक की बात कह सकने की ताकत के छिन जाने और किसी उम्मीद को पालने की संभावना के खत्म होने का मामला बन चला है.
अंतिम समाधान किसी विश्वासघात से कम नहीं
घाटी के मुसलमानों के लिए अपनाया गया यह ‘अंतिम समाधान’ किसी विश्वासघात से कम नहीं. घाटी के मुस्लिम अब फिर से 1990 के दशक के त्रासदी भरे दिनों की तरफ लौट गये हैं. अवसरवादी मगर मध्यमार्गी नेतागण केंद्र सरकार और सूबे की अवाम को आपस में जोड़ने वाली एक कड़ी हो सकते हैं लेकिन ऐसा नेताओं से उनका आबो-ताब छिन गया है, जो नागरिक भारत नाम के विचार पर पूरी संजीदगी से यकीन करते थे उन्हें बिल्कुल किनारे कर दिया गया है और अलगाववाद की सूखती हुई धारा को एकबारगी फिर से नवजीवन हासिल हो गया है. इन तमाम बातों का मतलब है कश्मीर के लोगों का मुख्यधारा से अनवरत जारी विलगाव, उन पर होने वाली हिंसा और दमन का निरंतर बढ़ना.
साफ शब्दों में कहें तो नई व्यवस्था में, एक लद्दाखियों के छोड़ दें तो फिर कश्मीर नामक त्रासदी-कथा के तमाम किरदारों के लिए उम्मीद की कोई किरण नहीं है. नई व्यवस्था ऐसी नहीं कि उसके भीतर से कोई नई राह फूटती हो बल्कि नई व्यवस्था राह का वो अंतिम सिरा है जहां से आगे जाने की कोई सूरत ही नहीं और तिस पर सितम यह कि इस राह पर जगह-जगह आपको उग्रवादियों, आम कश्मीरियों तथा सुरक्षा-बलों की लाशें मिलनी हैं, खून के छींटे मिलने हैं.
आजादी को फिर परिभाषित करने की जरूरत
यहां हमें यह बात भी मानकर चलना होगा कि कश्मीर में सरगर्म ‘आजादी’ के नारों का अर्थ कोई स्वतंत्र देश के निर्माण की मांग के रूप में लेता है तो यह भी कश्मीर समस्या से निजात का कोई रास्ता नहीं है. यह बात पुरजोर ढंग से कहनी चाहिए कि स्वतंत्र देश की मांग का उच्चार अलगाववादी करते हैं और आम कश्मीरी जनता उसे समर्थन देती है लेकिन यह मांग किसी छलावे से कम नहीं. 21वीं सदी की भू-रणनीतिक सच्चाइयों के बरक्स दुनिया के इस हिस्से में एक मुस्लिम बहुल स्वतंत्र राष्ट्र निहायत ही बेबुनियाद है. भारत और पाकिस्तान दोनों ही कश्मीर को जायदाद का झगड़ा मानकर देखते हैं. ऐसी कोई संभावना नहीं कि आगे के वक्त में भारत की कोई सरकार कश्मीर घाटी पर अपना दावा छोड़ देगी. पाकिस्तान की सरकार कश्मीर की आजादी का राग अलापते रह सकती है मगर वो कभी ‘आजाद कश्मीर’ से अपना कब्जा नहीं हटायेगी.
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ चीन का जो बर्ताव रहा है उसे देखते हुए ये नहीं माना जा सकता कि चीन अपने पड़ोस में कोई नया मुस्लिम राष्ट्र बनता देखना चाहेगा. और, अमेरिका निश्चित ही ऐसी किसी भी संभावना को रोकने के लिए अपने निषेधाधिकार (वीटो) का इस्तेमाल करेगा. वक्त की दीवार पर साफ नजर आती इस तहरीर की अनदेखी करके जो अब भी स्वतंत्र कश्मीर को लेकर आत्म-निर्णय की राजनीति को हवा दे रहे हैं वे दरअसल कश्मीरी अवाम के दोस्त कत्तई नहीं. इस धरती के किसी कौम के आत्म निर्णय के नैतिक अधिकार से इनकार तो खैर कोई नहीं कर सकता लेकिन अगर कोई कश्मीरी अवाम से वादा करता है कि आगे के वक्त में उन्हें कश्मीर एक आजाद मुल्क के रूप में हासिल होने जा रहा है तो फिर समझ लीजिए कि ऐसा व्यक्ति शांति और स्थिरता के मुश्किल मगर संभव नजर आते लक्ष्य से उन्हें दूर कर रहा है और ‘आजादी’ के एक रक्तपात भरे ऐसे रास्ते पर डाल रहा है जिस पर कोई सकारात्मक संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही.
क्या कोई और रास्ता है? हमारा विश्वास है कि एक विकल्प मौजूद है. हां, यह वैकल्पिक रास्ता पहले की तुलना में तनिक संकरा और इस रास्ते पर सफर पहले के मुकाबिल तनिक कठिन साबित होगा. इस रास्ते पर चलने के लिए हमें पहले बताये गये दो रास्तों पर चलने के मंसूबों को तजना होगा यानि बीजेपी की सरकार ने हाल में जो जम्मू-कश्मीर सूबे का खात्मा किया उसे तजना और साथ ही सूबे को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की अलगाववादियों की हिंसक मांग से अपना मन फिराना. वैकल्पिक मार्ग की तलाश में हमें मानकर चलना होगा कि भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण-रेखा व्यावहारिक तकाजों से एक अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा का काम कर रही है और कश्मीर को लेकर कोई भी समाधान सीमारेखा के इस तरफ सोचा जाना चाहिए. कश्मीर के जिस हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा है उसके बारे में समाधान पाकिस्तान सोचे.
इस संदर्भ में देखें तो कश्मीर में आजादी का मतलब होगा, कश्मीर की जनता का भारत के संविधान के दायरे में रहते हुए निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने लोकतांत्रिक शक्तियों का प्रयोग करने में सक्षम होना और सूबे के विशेष दर्जे की मंजूरी जैसा कि भारत में सूबे को शामिल करते वक्त वादा किया गया था. इसके लिए इलाके से सेना को हटाना होगा, स्थानीय पुलिसिंग के काम से केंद्रीय बलों को मुक्त करना होगा.
यह सफर लंबा साबित होने जा रहा है. पहला कदम तो यही होना चाहिए कि सभी राजनीतिक बंदियों को, चाहे उन्हें गिरफ्तारकिया गया हो या फिर नजरबंद, तुरंत रिहा किया जाय. कर्फ्यू हटा ली जाये, संचार-माध्यमों को बहाल किया जाय और कश्मीर के लोगों के बीच वैसे ही नागरिक अधिकार बहाल किये जायें जैसा कि देश के बाकी हिस्से के लोगों को हासिल हैं.
इसके बाद का कदम होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर (लद्दाख को अलग रखते हुए) के सूबा होने के दर्जे को बहाल किया जाय. इस सूबे को भारत के किसी आम राज्य सरीखा दर्जा न दिया जाय बल्कि जम्मू-कश्मीर को वैसा ही विशेष दर्जा दिया जाय जैसा कि धारा 371ए और 371 जी के तहत नगालैंड और मिजोरम को दिया गया है. जम्मू और पूंछ-रजौरी क्षेत्र की स्वायत्ता के लिए मणिपुर के तर्ज पर धारा 371सी के जैसे प्रावधान किये जा सकते हैं (जैसा कि बलराजपुरी समिति ने सिफारिश की थी). कश्मीरी पंडितों को अपनी घर वापसी के लिए वैधानिक सुरक्षा मिलनी चाहिए और इस मामले में राज्यपाल को विशेष अधिकार दिये जाने चाहिए.
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लड़ाई भारत के खिलाफ नहीं
वक्त के इस मुकाम पर ऐसा प्रस्ताव एक कपोल कल्पना जान पड़ सकता है. ये बात तो जाहिर ही है कि मौजूदा सरकार इस किस्म के किसी प्रस्ताव को तवज्जो नहीं देने जा रही. इस तीसरे तरीके के लिए एक वैकल्पिक किस्म की राजनीति की जरूरत है. इसके लिए जरूरी है कि वह भाषा जिसके सहारे आम कश्मीरी से संवाद कायम किया जा सके और उनसे कहा जा सके कि आपकी लड़ाई भारत के खिलाफ नहीं बल्कि उस विचारधारा के खिलाफ है जिसका प्रतिनिधित्व आरएसएस-बीजेपी करते हैं. कश्मीर में आजादी को लेकर जो जज्बात हैं उन्हें ‘आरएसएस से आजादी’ के आंदोलन की शक्ल देना होगा यानि एक ऐसा आंदोलन का रूप जिसका भागीदार सिर्फ कश्मीर ही नहीं बल्कि भारत के शेष लोग भी हों.
इसी तरह हमें आम भारतीय जन से संवाद के लिए एक नई भाषा गढ़नी होगी और कहना होगा कि अगर कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो फिर हमें कश्मीर के लोगों का दुख-दर्द महसूस होना चाहिए. वैकल्पिक रास्ते पर जारी यह सफर शेख अब्दुल्ला और जयप्रकाश नारायण के अपनाये रास्ते से प्रेरणा ले सकता है और इस सफर में शामिल लोग वो नारा अपना सकते हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था : ‘इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत’. वैकल्पिक राह के इसी सफर से हम शांतिपूर्ण कश्मीर की बुनियाद रख सकते हैं और लोकतांत्रिक व सेक्युलर भारत के विचार को बहाल कर सकते हैं.

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