आज़ादी के 72वें साल में लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी हो गया

15 अगस्त के मायने  सिर्फ आजादी के नाम पर सेना की परेड करने, झंडा फहराने, देशभक्ति पर फ़िल्मी गीत एवं राष्ट्रवाद पर भाषण सुनने, सांस्कृतिक कार्यक्रम करने और भारत माता की जय नारे लगाने के लिए नहीं है. बल्कि, यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि 1947 में इस दिन हमारे पूर्वजों की लड़ाई से  देश में राजशाही खत्म हो गई थी और लोगों का राज आ गया ना कि किसी एक पार्टी, संगठन या व्यक्ति की विचारधारा का.
यानी अब अंग्रेजों के राज की तरह किसी को भी ‘राजा/देश के मुखिया’ या ‘सरकार/सत्ता’ के खिलाफ आवाज उठाने पर ‘राजद्रोही/देशद्रोही’ या दोषी करार नहीं दिया जा सकता था.
देश सत्ता में रहने वाली पार्टी की विचारधारा से नहीं बल्कि लोकतंत्र की  नीति एवं मूल्यों पर चले, इसलिए संविधान भी बना. उसमें न सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को जगह दी गई बल्कि राजनीतिक, सामजिक, आर्थिक न्याय के साथ अभिव्यक्ति की आजादी, यानी सबको अपनी सोच के अनुसार विचार रखने, अपनी आस्था के अनुसार अपने धर्म का पालन करने, धंधा करने का संवैधानिक अधिकार मिला.
सबसे बड़ी बात भारत लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना. यानी यह राज्यों से बना लोकतांत्रिक देश, न कि सिर्फ केंद्रीय सत्ता वाला देश.
मगर,   अगर लोकतंत्र तर्क, तथ्य और संविधान की स्थापित परंपरा और सोच की बजाय एक विचारधारा की सोच और संसद में उसके बहुमत के आधार पर चलेगा, जहां वो उसकी सोच के अनुसार संविधान में भी रातोंरात बदलाव ला सकता है. कोई भी कानून बना सकता है. इतना ही नहीं, उसके पास एक ‘भीड़तंत्र’ है, जो उसकी विचारधारा का विरोध करने वाले की आवाज दबा देगी और उसे देशद्रोही करार दे देगी, तो फिर हमें यह मानना होगा कि आजादी के 72 साल आते-आते लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी हो गया है.
एक सोची समझी साजिश के तहत जनता को एक बिना सोच वाली भीड़ में बदल दिया गया है. अब एक ऐसी भीड़ देश के हर कस्बे, गांव में तैयार घूम रही है, जो जरा-सी अफवाह में बिना सोचे समझे किसी को भी पीट-पीटकर मार डालती है.
हर जगह दहशत है, कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं है. इसलिए जो सवाल उठाए उसे ही आतंकवादी ठहरा दो. देश में भीड़तंत्र का न्याय चलेगा या लोकतंत्र  इस मसले पर कुछ सार्थक बहस इस देश के लिए बहुत जरूरी थी.
और 49 बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को लिखे गए पत्र से यह बहस कुछ शुरू भी हुई थी, लेकिन 370 की आड़ में दब गई. मोदी-शाह की जोड़ी ने संविधान की धारा 370 के साथ जिस तरह से छेड़छाड़ की और  जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर बांटा है, उसने लोकतंत्र की नींव ही हिला दी.
इसके साथ भीड़ और राष्ट्रवाद के प्रमाणपत्र बांटने वालों को, लोकतंत्र की बात करने वालों को ठोकने के लिए एक और मुद्दा दे दिया. लेकिन फिर भी 370 के जश्न में भीड़तंत्र बनाम लोकतंत्र की इस बहस को मरने देना सही नहीं होगा.
क्योंकि, यह मुद्दा आज भी जिंदा है. और यह सिर्फ अल्पसंख्यक या मुस्लिम से जुड़ा हुआ मामला नहीं है, बल्कि यह देश में लोकतंत्र को जिंदा रखने का मामला है.
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देश के 49 नामचीन बुद्धिजीवी, रंगकर्मी, साहित्यकार, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आख़िरकार अपनी जवाबदारी का निर्वाहन करते हुए 23 जुलाई को अपने प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर देश में दलित, मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ धर्म आधारित भीड़ की बढ़ती हिंसा पर चिंता जाहिर की और उनसे हस्तक्षेप की गुजारिश की.
इन हस्तियों ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि वो धर्म के नाम पर दलितों, मुस्लिमों एवं अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को रोकें.
इसके लिए उन्होंने एनसीआरबी के आंकड़े भी सामने रखे और बताया कि 2016 में दलितों के खिलाफ हिंसा के 840 मामले हुए है, लेकिन इन मामलों में सजा (दोषसिद्धि) की दर में कमी आई है.
और फैक्ट चेक इन डेटा बेस के आधार पर बताया कि 1 जनवरी 2009 से 29 अक्टूबर 2018 के बीच धर्म आधारित हिंसा की घटनाओं में 91 लोग मारे गए और 579 घायल हुए; जिनमें 62% पीड़ित मुस्लिम थे. इसमें से 90% मामले मई 2014 के बाद के है.
उन्होंने अपने पत्र में यह भी साफ़ किया कि राम का नाम देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए एक पवित्र नाम है. लेकिन ‘जय श्रीराम’ का नारा अन्य धर्म को मानने वालों के खिलाफ एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा रहा है. और राम के नाम को इस तरह से बदनाम नहीं होने देना चाहिए.
उसके जवाब में 62 तथाकथित नामचीनों का पत्र सामने आ गया और हर बार की तरह उन्होंने मुद्दों पर जवाब देने की बजाय भीड़ हिंसा पर  सवाल उठाने वालों को ही आतंकवादी, अलगावादी और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का सदस्य बताकर उनपर मोदीजी और देश की छवि धूमिल करने का आरोप मढ़ा और कहा कि इन लोगों के मन में राम के मानने वालों के प्रति एक तरह की चिढ़ है.
जब इन 62 लोगों का पत्र पढ़ा तो पाया कि एक-आध लोगों को छोड़कर लगभग सभी लोग सीधे तौर पर भाजपा से जुड़े हैं, या उनकी विचारधारा के साथ हैं.
इसमें 47 के लगभग तो अकेले पश्चिम बंगाल से हैं; तीन को छोड़कर सारी फिल्म हस्तियां टॉलीवुड से हैं. इसमें अनेक ने तो हाल ही में पार्टी की सदस्यता ली है. इतना ही नहीं, अपने इस पत्र में जो सवाल उठाए हैं, वो ज्यादातर पश्चिम बंगाल से जुड़े हैं.
बॉलीवुड से जुड़े अशोक पंडित तो खुलकर मोदी का समर्थन करते आए हैं. अनेक लोग मोदी के सत्ता में आने के बाद किसी न किसी तरह का लाभ पा चुके है. जैसे इतिहासकार शरदेंदु मुखर्जी ‘इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च’ के सदस्य बनाए गए. जैसे भरतनाट्यम नर्तकी प्रतिभा प्रहलाद को 2016 में पद्मश्री दिया गया; फिल्म और टीवी कलाकार मनोज जोशी को 2018 में प्रो. मनोज दीक्षित अवध यूनिवर्सिटी के उपकुलपति बनाए गए.
स्वपन दास गुप्ता पार्टी के राज्यसभा सदस्य हैं. प्रसून जोशी को मोदी राज में ही सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया और मधुर भंडारकर की फिल्म इंदु सरकार को कुछ दिन पहले ही नेशनल फिल्म आर्काइव का हिस्सा बनाया गया.
विवेक अग्निहोत्री और उनकी पत्नी पल्लवी जोशी तो मोदी के खुले समर्थक हैं; पल्लवी जोशी ने तो रफाल की कीमत का मामला समझाते हुए उनके समर्थन में एक वीडियो भी जारी किया था. संध्या जैन जैसे अनेक लेखक दक्षिणपंथी विचारधारा के खुले समर्थक हैं.
खैर, इस सबसे उनकी प्रतिभा भले ही कम न होती है, लेकिन इससे उनकी निष्पक्षता पर जरुर सवालिया निशान लग जाता है. और, शायद इसलिए उन्होंने विरोध पत्र में लिखने के पहले ज्यादा नहीं, तो भी पिछले एक माह के अख़बार पढ़े होते या इन मामलों को जानने के लिए गूगल का ही सहारा लिया तो उन्हें झारखंड के तबरेज़ से लेकर देश के हर राज्य के मामले मिलते.
हाल ही में गुजरात के गोधरा का एक मामला सामने आया है. और सबसे शर्मनाक वाकया तो इस बार लोकसभा में हुआ, जब असदुद्दीन ओवैसी अपने संसद पद की शपथ लेने आए. उस दौरान भाजपा सांसदों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए.
संविधान की शपथ लेने वाले संसद के भीतर जब इस तरह की हरकत करें, तो देश की सड़कों पर क्या होता होगा इसका अंदाजा लगाना उनके लिए मुश्किल नहीं था.
और वर्तमान सवाल पर बहस करने की बजाय उन्होंने यह सवाल किया कि इन लोगों ने कश्मीरी पंडितों के तीस साल पुराने मामले में सवाल क्यों नहीं उठाए?
एक तरह से ये बताने कि कोशिश कि यह लोग हिंदुओं पर हिंसा के मामले में नहीं बोलते है. जबकि यह हिंदू बनाम मुस्लिम का मामला नहीं है.  वे यह भी भूल गए कि अब भीड़तंत्र की चिंता सिर्फ 49 लोगों के पत्र तक सीमित नहीं है.
धार्मिक उन्माद का यह हथियार एक अलग स्वरूप में गांव समाज में अपने पांव पसार चुका  है. हर जगह दहशत का माहौल  है.
मुझे इसका असल एहसास मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के आदिवासी ब्लॉक केसला में होशंगाबाद, हरदा, बैतूल और खंडवा जिले के आदिवासी इलाकों से बैठक में आए दलित और आदिवासी कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत में हुआ.
24 जुलाई की सुबह की बात है, मुझे तब झटका लगा जब इस बैठक में उन्होंने भीड़ की बढ़ती हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुआ कहा कि इस समय गांवों में रात में निकलना मतलब जान का खतरा मोल लेना है; आपको भीड़ मार डालेगी. ऐसा लगता है कि सरकार नहीं चाहती कि हम बाहर काम करने जाएं और कोई बाहर वाला हमारे गांव में धंधा करने आए.
उन्होंने यह भी बताया कि आजकल वॉट्सऐप पर भीड़ की मारने की घटना की खबर आती है, जिसमें कई बातों को लेकर डराया जाता है, जिसे देखकर लोग ऐसा कर रहे हैं.
उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि कैसे एक व्यापारी, जो गांव से लौट रहा था, ने गलती से गाय के बछड़े को टक्कर मार दी. उसके बाद वो एक गांव से भागता, तो उसे फोन कर दूसरे गांव में लोग घेर लेते और इस तरह उसे पकड़कर मार-मारकर अधमरा कर दिया. किसी ने बताया कि उसके गांव में चादर बेचने वालों को भी इसी तरह मारा.
फिर जब मैंने अगले -पिछले कुछ दिनों के अख़बार देखे, तो भीड़ की हिंसा के अनेक स्वरूप दिखाई दिए. 24 जुलाई भोपाल के छोला रोड में सागर से आए एक 25 वर्षीय युवक ने रात ग्यारह बजे के लगभग अपने परचित के घर का पता पूछा, तो भीड़ ने उसे बच्चा चोर समझकर पीट दिया.
राज्य के ही बैतूल जिले में तो अपने वरिष्ठ नेता से मिलकर लौट रहे तीन कांग्रेसी नेताओं को सीतलझिरी गांव में भीड़ ने जमकर पीटा, अंत में उन्होंने फोनकर पुलिस को बुलाया और किसी तरह अपनी जान बचाई.
17  जुलाई की बात है, उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के देवा क्षेत्र के राघवपुरवा गांव में एक 22 वर्षीय युवक अपनी सुसराल टाई कला गांव जा रहा था. रास्ते में राघवपुरवा गांव के बाहर कुत्तों ने उसे दौड़ा लिया. वह भागकर गांव के अंदर पहुंचा तो गांव वालों ने चोर समझकर उसको पीटना शुरू कर दिया.
उसे पहले डंडे से मारा गया और फिर हैवानियत की हद पार करते हुए गीला कर करंट दिया गया मारा. फिर उनके शरीर पर तेल डाल कर आग लगा दी.
एक समय था जब समाज के कमजोर तबकों की आवाज उठाना देश के प्रति चिंतित हर जागरूक का फर्ज माना जाता था. और खासकर, बुद्धिजीवियों की तो इस मामले में विशेष जवाबदारी मानी जाती थी.
लेकिन, आज समाज के कमजोर तबकों के लिए आवाज उठाने वाले जानेमाने बुद्धिजीवी, रंगकर्मी, साहित्यकार, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आतंकवादी और  अलगावादी बताकर उन पर देश की छवि धूमिल करने  की तोहमत मढ़ी जा रही है.
इस भीड़ ने आखिरकार अनुराग कश्यप को अपना ट्विटर अकाउंट बंद करने पर मजबूर कर दिया. कल सरकार आतंकवादी निरोधक कानून में दी गई नई परिभाषा के तहत इन्हें अधिकारिक तौर पर आतंकवादी भी घोषित कर सकती है.
और यह सब उसकी ही तैयारी है, कि जो मुंह खोले उसे आतंकवादी और अलगाववादी करार दे दो. अब इसमें 370 का मुद्दा और जुड़ गया.
अगर हम भाजपा और संघ के अपने एजेंडे की आड़ में देश की आम जनता के असली मुद्दों को नकारते रहे और यह सब जारी रहा, तो हमारे लोकतंत्र को एक भीड़तंत्र में बदलते देर नहीं लगेगी.

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