‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के सपने का अंत

जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने और राज्य को केंद्रशासित प्रदेश बनाने का नरेंद्र मोदी सरकार का फैसला पाकिस्तान में कश्मीर के ठेकेदारों के लिए अप्रत्याशित था. सोमवार के इस फैसले पर इमरान ख़ान सरकार की प्रतिक्रिया गंभीर नहीं कही जा सकती, खास कर जब बात उस ज़मीन की हो जिसे कभी पाकिस्तान अपना बताता था.
सच कहें तो भारत के हाथों क्रिकेट में हारने पर पाकिस्तान में कहीं अधिक गंभीर प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं. पर बड़ा सवाल ये है: क्या इमरान ख़ान की सरकार बगैर कश्मीर के उद्देश्य के चल सकती है, क्योंकि कहते हैं ‘हुकूमत पेट्रोल से नहीं, कश्मीर कॉज से चलती है’.
पाकिस्तानी शासन के अभिजात वर्ग में से हर किसी ने ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ का सब्ज़बाग दिखा कर फायदा उठाया है – पाकिस्तानी सेना ने खुद को सक्षम दिखाने के लिए, नेताओं ने राजनीतिक फायदा उठाने के लिए, मजहबी गिरोहों ने हिंदू-विरोधी भावनाओं को फैलाने के लिए; और आम पाकिस्तानी इन सबों को मौके का लाभ उठाते देखते रहे हैं.
बचपन से पढ़ाई जाने वाली पट्टी
हमें बचपन से ही ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ की पट्टी पढ़ाई जाने लगी थी. हम सवाल करते थे कि ‘जब वो भारत में है तो भला पाकिस्तान का हिस्सा कैसे बनेगा?’ और ‘जब कश्मीर हमारी शाहरग है, तो फिर हम इस प्रमुख नाड़ी के बगैर ज़िंदा कैसे रह पा रहे हैं?’. हमें कहा जाता कि इन सवालों के जवाब नहीं हैं, इसलिए बेहतर यही है कि इन्हें पूछो ही मत.
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1990 के दशक में पलते-बढ़ते, रोज़ाना की ब्रेनवॉशिंग घुट्टी में पाकिस्तान टेलीविजन पर रात नौ बजे की खबरों के बाद दिखाया जाने वाला 20 मिनट का कश्मीर कार्यक्रम भी था. पृष्ठभूमि में बजते नुसरत फतेह अली ख़ान के गाने ‘इस दुनिया के गम, ना जाने कब होंगे कम’ के साथ हमें कश्मीर की पीड़ादायक तस्वीरें देखने को मिलतीं. कार्यक्रम में मीरवाइज़ उमर फारूक़, यासिन मिलक, सैयद अली शाह गिलानी और अन्य कश्मीरी नेताओं की तारीफ की जाती – हमें बताया जाता था कि ये लोग ही असल के नायक हैं.
संदेश स्पष्ट था कि ‘हमें कश्मीर की चिंता करनी चाहिए.’ हम सोचा करते कि भला ऐसे किसी उद्देश्य से कैसे सहानुभूति रखी जा सकती है जो कि महज सरकार द्वारा थोपी गई वास्तविकता हो.
पाकिस्तान में अनेक शासक आए और गए, बस एक बात अपरिवर्तित रही- पाकिस्तान का कश्मीर का ध्येय. ऐसा उद्देश्य जिसके प्रति उदासीनता दिखाने को ईशनिंदा के समान अपराध माना जाता है.
पाकिस्तानियों को हर साल कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए एक दिन की छुट्टी मिलती है. हर साल 5 फरवरी को वे अपने कश्मीरी भाइयों को लिए एकजुटता का इजहार करते हैं. स्कूलों में निकाली जाने वाली झांकियों में मासूम कश्मीरी लड़कियां लोकगीत गा रही होती हैं और अचानक भारतीय फौजियों को गोलियां बरसाते दिखाया जाता है. ये सब दर्शकों की संवेदनाओं को जगाने के लिए किया जाता है.
कश्मीर दिवस का मकसद कभी स्पष्ट नहीं हो सका. ये एक राष्ट्रीय अवकाश है, पर इसका उपयोग भी बाकी किसी छुट्टी की तरह ही किया जाता है. कश्मीर दिवस के दिन कश्मीर को आज़ाद कराने के अलावा बाकी सब कुछ होता है. इस दिन कश्मीर के ध्येय के लिए हमारा योगदान होता है- देर से जगना, भारतीय फिल्में देखना और अपने दोस्तों के साथ समय बिताना.
इस दिन कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन के पोस्टर ब्वॉय की सक्रियता भी दिखा करती थी. प्रतिबंधित चरमपंथी संगठनों के हाफिज़ सईद, सैयद सलाहुद्दीन और अहमद लुधियानवी जैसे नेता जुलुस निकालते और जनता को कश्मीर मुद्दे से अवगत कराते. पर पहले से आपके खेमे में मौजूद लोगों को प्रभावित करने की कोशिशों का भला क्या मतलब?
पाकिस्तान की कश्मीर नीति ने क्या हासिल किया
करीब तीन दशक बाद भी आम पाकिस्तानियों को देश की कश्मीर नीति का कोई लाभ नहीं मिला है, सिवाय इसके कि जिहाद के आधार पर समाज ध्रुवीकृत हुआ है और लोगों में भारत के खिलाफ घृणा भरी गई. पाकिस्तान की सरकार महंगाई से जूझती जनता से कश्मीर के नाम पर एकुजट होने की उम्मीद करती है. पर क्यों?
आपको अपने देश के ही धार्मिक (शिया, अहमदिया, ईसाई, हिंदू) और जातीय (पश्तून, बलूच, हज़ारा, मोहाजिर) अल्पसंख्यकों के हाल की चिंता होती हो या नहीं, आपको कश्मीरियों की चिंता ज़रूर करनी चाहिए. ये नहीं सोचें कि कश्मीरियों को आपकी सरपरस्ती चाहिए या नहीं.
अभी हाल में अमेरिका के तथाकथित सफल दौरे से लौटे प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को संसद में गरजते विपक्ष के सामने अब जवाब देते नहीं बनता है. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से कश्मीर मसले में मध्यस्थता की अपील की थी, पर अब उन्हें कोई ओर-छोर नहीं मिल रहा. हमेशा की तरह बेखबर, प्रधानमंत्री ने अपने सख्त लहजे में कहा कि नरेंद्र मोदी की भाजपा ने जो किया है वो ठीक नहीं है, और फिर एक ज्योतिषी की तरह ये भी बताया कि आगे क्या हो सकता है. पर हमेशा की तरह ये बात गायब थी कि आखिर उनकी योजना क्या है. भारत के संवैधानिक बदलाव के बारे में कुछ नहीं कर पाना एक बात है, पर अतीत के बारे में भाषण पिलाना कुछ और ही है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर कश्मीर मुद्दे को लेकर दबाव डालना निरर्थक है, जो कि विगत 70 वर्षों के दौरान संयुक्तराष्ट्र महासभा में किए गए प्रयासों के परिणामों से जाहिर है. हाल के दिनों में विदेश नीति को लेकर पाकिस्तान को लगे झटके भी इसी बात की गवाही देते हैं. मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद से मदद मांगते वक्त इमरान ख़ान को याद नहीं रहा कि पाकिस्तान यात्रा के दौरान महाथिर ने दो टूक शब्दों में कहा था कि वे कश्मीर मामले में किसी का पक्ष नहीं लेंगे. उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया था कि मलेशिया इस वजह से सफल रहा है कि उसका अपने पड़ोसियों से कोई झगड़ा नहीं है.
भारत के संसदीय चुनाव के दौरान, इमरान ख़ान ने बारंबार कहा था कि नरेंद्र मोदी कश्मीर मसले को हल कर सकते हैं. एक ज्योतिषी की तरह, ख़ान की बात सही निकली. भारत की नई पहल से इस बात के संकेत मिलते हैं कि वह नियंत्रण रेखा को स्थाई सीमा बनाने जा रहा है; और, पंजाब एवं बंगाल की तरह अब कश्मीर का भी बंटवारा हो गया है.

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