तीन तलाक कानून मुस्लिम महिलाओं से ज्यादा BJP के लिए फायदेमंद है

तीन तलाक बिल पास होने को BJP नेतृत्व मुस्लिम महिलाओं के लिए जश्न का मौका बता रहा है. असल बात तो ये है कि राज्य सभा में ये बिल पास करा कर बीजेपी ने खुद के लिए जश्न का मौका खोज निकाला है.
लोक सभा में दोबारा और पहले के मुकाबले ज्यादा बहुमत हासिल करने के बावजूद राज्य सभा में बीजेपी के लिए कुछ भी करा पाना नामुमकिन सा लग रहा था, लेकिन बीजेपी के संकटमोचक नेताओं की टीम ने तो चमत्कार ही कर डाला. टीम मोदी ने विपक्ष की हर कमजोर नस ऐसे पकड़ डाली कि सत्ता पक्ष को सपोर्ट करने की होड़ सी मच गयी - और आखिरकार बीजेपी ने जीत का पताका ही फहरा डाला.
देखा जाये तो ये सरकार के लिए दूसरी बड़ी कामयाबी है. RTI संशोधन बिल के बाद तीन तलाक बिल पर बीजेपी के फ्लोर मैनेजरों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. बड़ी बात ये है कि मोदी-शाह की टीम ने दोनों ही मामलों में जोरदार विरोध कर रहे विपक्षी दलों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है. तीन तलाक बिल को संसदीय समिति के पास भेजने की मांग जहां 84 के मुकाबले 99 वोट से खारिज हो गयी, वहीं सेलेक्ट कमेटी में भेजने की 84 के मुकाबले एक वोट ज्यादा यानी 100 से गिर गयी.
ऐसा लगता है जैसे 23 मई के बाद 30 जुलाई को बीजेपी नेतृत्व ने कांग्रेस के साथ साथ तमाम क्षेत्रीय दलों की मोर्चेबंदी फिर से फतह कर डाली है. तब तो कांग्रेस ही नहीं, बाकी क्षेत्रीय दलों को भी अपने अस्तित्व के लिए खतरा महसूस करना चाहिये.
अल्पमत में होते हुए बहुमत वाले काम
राज्य सभा में सदस्यों की कुल संख्या 245 है, जिसमें चार सीटें अभी खाली हैं. राज्य सभा सदस्यों की संख्या में लगातार इजाफा करते हुए बीजेपी ने NDA का नंबर 112 तो कर दिया लेकिन बहुमत के आंकड़े 121 से दूरी खत्म नहीं हो पाई. बहुमत न होने के बावजूद राज्य सभा में भी लोक सभा जैसा प्रदर्शन कर बीजेपी ने साबित कर दिया है कि सत्ता मिल जाने के बाद अब उसे राजनीति की हर तरकीब आने लगी है. अब प्याज-टमाटर के जरिये सरकार के खिलाफ कोई लामबंदी हुई तो मुंह के बल गिरना भी तय है.
तीन तलाक पर हुई वोटिंग में 193 सांसद ही शामिल हुए, साफ है, बिल पर मतदान से खुद को अलग रखने वाले सदस्यों की तादाद भी अच्छी खासी रही. कुछ दलों ने करीब होकर सत्ता प्रतिष्ठान का सपोर्ट किया तो कइयों ने लोगों की नजरों में दूरी बना कर. ऐसे ही दलों के सदस्यों के वॉकआउट करने के चलते मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2019 आराम से पास होग गया.
टीम मोदी को तो इस बात का अंदाजा तभी लग गया होगा जब एनडीए पार्टनर नीतीश कुमार की JDU और तमिलनाडु में सत्ताधारी AIADMK के सदस्य वोटिंग छोड़ कर सदन से बाहर निकल गये. दोनों की दलों के 19 राज्य सभा सांसद हैं. तीन तलाक बिल पर वोटिंग में पक्ष और विपक्ष के बीच फासला 15 वोटों का रहा.
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के बीजेडी ने तो तीन तलाक बिल का खुल्लम खुल्ला सपोर्ट किया, लेकिन तेलंगाना वाले केसीआर की पार्टी TRS ने बहस में भी हिस्सा नहीं लिया - 'मौनं स्वीकार लक्षणम्'. बिल के विरोध की अगुवाई तो कांग्रेस कर रही थी, TMC, DMK, लेफ्ट पार्टियों, SP, BSP, TDP, YSRCP, PDP, RJD और AAP ने भी विरोध जताया लेकिन अंत भला तो सब भला - और बिल पास हो गया.
वोटिंग के वक्त सदन का बहिष्कार करना भी सीधा सपोर्ट ही समझा जाएगा - और ऐसा बहुतों ने किया. हैरानी की बात तो ये रही कि कर्नाटक में व्हिप के नाम पर लंबा बवाल काटने वाली कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर ऐसा कोई कदम नहीं उठाया था, लिहाजा कांग्रेस सांसद अपनी मर्जी से आये या दूर रहे. क्या कांग्रेस ने जानबूझ कर ऐसा किया होगा या हमेशा की तरह समय रहते कोई फैसला नहीं हो पाया?
मुस्लिम वोट बैंक में अब सीधी घुसपैठ
तीन तलाक कानून बीजेपी के लिए राजनीतिक हिसाब से तो 'डिवाइड एंड रूल' वाले फॉर्मूले पर बिलकुल फिट बैठता है. एक तरीके से बीजेपी ने तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम परिवारों में पितृसत्ता को चैलेंज कर दिया है - अब मान कर चलना होगा कि पुरुष और महिला मुस्लिम वोट तो बंटेंगे ही. हालांकि, कागजी दावों का व्यावहारिक पहलुओं से कोर्ई रिश्ता नहीं होता.
सवाल ये है कि क्या वाकई अब ऐसा होने वाला है कि मुस्लिम महिलाएं और पुरुष अलग अलग दलों को वोट देंगे? मतलब, मुस्लिम महिलाएं बीजेपी को वोट देंगी और पुरुष जरूरी नहीं कि बीजेपी को ही वोट दें. अपने मन से या पुरानी थ्योरी के हिसाब से बीजेपी को हराने में सक्षम दल को भी दे सकते हैं.
मजहब कोई भी हो. जमाना कितना भी बदले. कुछ अपवादों और प्रगतिशील महिलाओं की बात और है, लेकिन भारतीय नारी वस्तुतः पितृसत्ता की कायल होती है. शादी से पहले पिता उसका हीरो होता है - और शादी के बाद उसकी पूरी निष्ठा पति के प्रति फोकस हो जाती है.
अब देखना होगा कि ये कानून आने के बाद मुस्लिम लेडी कितना प्रभावमुक्त हो पाती है?
सारी दलीलें एक तरफ - और बात पते की एक तरफ, बीजेपी ने कोर मुस्लिम वोट बैंक में सेंध तो लगा ही ली है. अब बीजेपी के इस दांव का असर ये होगा कि कांग्रेस सहित मुस्लिम राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दलों को खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.
कांग्रेस मुक्त भारत का आखिरी हथौड़ा
कांग्रेस चीखती रही और उसके RTI कानून के टुकड़े टुकड़े हो गये, जैसा कि कांग्रेस नेता लगातार समझाने की कोशिश कर रहे थे. कांग्रेस नेता चिल्ताते रहे और बीजेपी आम चुनावों में शिकस्त के बाद गोवा और कर्नाटक से मात देते हुए राज्य सभा के अखाड़े में ललकारने लगी थी.
राजनीति भी गजब होती है - बीजेपी ने कांग्रेस के एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई खोद डाली है. तुष्टिकरण के दाग धोने के लिए राहुल गांधी मंदिर मंदिर घूमते रहे, जब जनेऊधारी तो कभी शिव भक्त साबित करने की कोशिश करते रहे और नतीजे आये तो मालूम हुआ कि पार्टी न घर की रही न घाट की.
राहुल गांधी तो बाद में आये और मैदान छोड़ कर बैठ भी गये, लेकिन कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी करार दिये जाने की तोहमत से छुटकारा दिलाने के लिए तो सोनिया गांधी खुद जी जान से जुटी रहीं - लेकिन नाकाम रहीं. आजमगढ़ की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूछा था - 'कांग्रेस सिर्फ मुस्लिम पुरुषों की पार्टी है क्या?'
तीन तलाक कानून का ट्रेलर तो केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 2017 के यूपी चुनाव में ही दिखा दिया था, जब बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था - कोशिशें होती रहीं लेकिन सिर्फ लोक सभा में बहुमत के बूते कुछ हो ही नहीं पा रहा था, फिर सियासी हिकमत लगानी पड़ी और गाड़ी चल पड़ी. चल ही नहीं पड़ी मंजिल तक पहुंचा भी दिया. वो भी ऐसे जैसे पूरे विपक्ष ने ग्रीन कॉरिडोर बना रखा हो.
बीजेपी विरोध की राजनीति की हवा खराब
हाल के चुनावों में एक धारणा देखी जाती रही कि मुस्लिम वोट उसे ही मिलता रहा जो यकीन दिला दे कि वो बीजेपी को हराने में सक्षम है. आम चुनाव में तो मायावती ने मुस्लिम समुदाय से खुलेआम कह दिया था कि वो सपा-बसपा गठबंधन के अलावा किसी और वोट देकर अपने मताधिकार को बर्बाद हरगिज न करें - क्योंकि कोई भी बीजेपी को हराने में सक्षम नहीं है. मायावती को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी, वो भी दोबारा.
आम चुनाव से पहले मुस्लिम वोटों को लेकर मायावती ने 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ का खेल खेला, लेकिन फेल रहीं. लालू प्रसाद की तो पूरी राजनीति ही MY फैक्टर यानी मुस्लिम-यादव को लेकर चलती रही है - लेकिन बिहार के लोगों ने इस बार तो उसे सिरे से ही खारिज कर दिये.
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तीन तलाक कानून लाकर बीजेपी ने ऐसे दलों की हवा निकाल दी है जिनकी मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति का आधार सिर्फ बीजेपी विरोध ही रहा. मुलायम सिंह यादव तो इसके लिए अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने के लिए भी शेखी बघारते रहे हैं. नीतीश कुमार मुस्लिम वोट बैंक को लेकर ही बीजेपी से दूरी बनाये रखने के ढोंग करते हैं - और ममता बनर्जी भी तो पश्चिम बंगाल में सारी लड़ाई मुस्लिम वोट बैंक बचाने के लिए ही लड़ रही हैं.
सवाल है कि जब मुस्लिम वोट बैंक घर में ही एकजुट नहीं रहेगा तो किसी एक पार्टी को एकजुट वोट कहां से मिलेगा? प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने यही तो खेल किया है.
अल्पसंख्यक और महिला अधिकार कार्यकर्ता, फराह नकवी ने बीबीसी से बातचीत में सटीक टिप्पणी की है, 'तीन तलाक कानून का पारित होना विपक्षी दलों की बड़ी नाकामी है, जिन नेताओं ने तीन तलाक बिल के खिलाफ सदन में अपनी राय रखी, मुझे लगता है कि अगर वो अपनी ऊर्जा भाषण तैयार करने के बजाय विपक्षी दलों को एकजुट करने में लगाते तो शायद नतीजा कुछ और होता.'

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