क्या टीपू सुल्तान ने हजारों हिंदुओं को मौत के घाट उतारा था ? कर्नाटक में क्यों मचा है सियासी बवाल ?

कर्नाटक में सरकार बदलते ही उसका देखने का सरकारी नज़रिया भी बदल गया है. बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक सरकार के कन्नड़ और संस्कृति विभाग को टीपू सुल्तान जयंती ना मनाने का आदेश जारी किया है. ये फैसला सोमवार की कैबिनेट बैठक में लिया गया. दरअसल बीजेपी विधायक बोपैया ने इस बारे में सीएम को चिट्ठी लिखी थी. पहले से ही टीपू जयंती पर विवाद रहा है. बीजेपी इसके खिलाफ रही है जबकि कांग्रेस-जेडीएस ने हमेशा समारोह को धूमधाम से मनाया है. अब जब टीपू जयंती की विरोधी बीजेपी सत्ता में है तो एक बार फिर होने जा रहा समारोह डिब्बाबंद हो चुका है.
क्या है टीपू जयंती पर विवाद?
टीपू सुल्तान भारतीय इतिहास का चर्चित नाम है. उसके पिता हैदर अली मैसूर के शासक थे जिनकी अंग्रेज़ों से कभी नहीं पटी. मैसूर टीपू सुल्तान को विरासत में मिला था और अठारहवीं सदी के अंत में जब अंग्रेज़ भारत पर कब्ज़ा मज़बूत कर रहे थे तब वो राज्य बचाने के लिए अकेला लड़ रहा था. इतिहास बताता है कि टीपू मैसूर को नहीं बचा सका और बहादुरी से लड़ता हुआ मारा गया, लेकिन जब बात टीपू के चरित्र की आती है तो इतिहास की कुछ किताबें जिनमें अधिकांश अंग्रेज़ ही लिख गए ये जानकारी देती हैं कि वो कट्टर मुसलमान था जो हिंदुओं से ज़बरदस्ती करता था. इस सिलसिले में कई घटनाओं का बखान किया जाता है जब उसने उन हिंदुओं का कत्ल करवाया जो मुसलमान नहीं बने.
क्या है टीपू के धर्मांध होने का सच?
19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार के अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब मालाबार मैनुएल में दर्ज किया था कि टीपू सुल्तान ने 30 हजार सैनिकों के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी. उसने शहर के मंदिर और चर्चों को तुड़वा दिया था. हिंदू और ईसाई महिलाओं की शादी जबरन मुस्लिम युवकों से कराई गई. जिस किसी ने इस्लाम अपनाने से इनकार किया उसे मार डाला गया.
दूसरी तरफ राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के सौरभ वाजपेयी भी इस मामले में एक लेख लिखकर कुछ बातें साफ करते हैं. वो लिखते हैं कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष महामहोपाध्याय डॉ० परप्रसाद शास्त्री ने टीपू सुल्तान पर एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने लिखा था कि टीपू सुल्तान के राज्य में तीन हजार ब्राह्मणों ने इसलिए आत्महत्या कर ली थी क्योंकि वो उन्हें जबरन मुस्लिम बनाना चाहता था. इतिहासकार बीएन पांडे ने जब इस तथ्य की पुष्टि के लिए सीधा लेखक से ही संपर्क साधा तो पता चला कि ये तथ्य ‘मैसूर गजेटियर’ से चला आ रहा है. इसके बाद जब इस गजेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे प्रो मंतैय्या से यही बात बताई गई तो उन्होंने ही पुष्टि कर दी कि ऐसा कोई वाकया उन्हें नहीं मिला.
हां कर्नल माइल्स की किताब हिस्ट्री ऑफ मैसूर में ज़रूर ये घटना मिलती है जिस पर उनका दावा है कि ये एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनुवादित करके लिखी गई जो अब महारानी विक्टोरिया की पर्सनल लाइब्रेकी में सुरक्षित है. जब इसकी खोज की गई तो मालूम चला कि ऐसी पांडुलिपि है ही नहीं.
ज़ाहिर है कि एक शासक के तौर पर सभी धार्मिक समुदायों की रक्षा का ज़िम्मा टीपू सुल्तान का है. हो सकता है कि हर शासक की तरह 17 साल के कार्यकाल में उससे भी चूक हुई हो लेकिन सबूत इस बात के भी हैं कि उसने मंदिरों को दान दिया और श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य से वो लगातार पत्रों के ज़रिए संपर्क में रहा. संभव है कि मुसलमान होने की वजह से उसने अपने धर्म का प्रचार प्रसार भी किया हो मगर जिस तरह उसे धुर हिंदूविरोधी प्रचारित किया गया और इसके पुख्ता प्रमाण भी नहीं मिलते उससे  अंग्रेज़ों की टीपू के प्रति चिढ़ और हिंदुओं को मुसमलानों के खिलाफ खड़ा करने की नीति ही अधिक स्पष्ट दिखती है. हैरत है कि कर्नल माइल्स की किताब को आधार मानकर लिखी गई किताबें जिनमें टीपू सुल्तान को हिंदू विरोधी ठहराया जा रहा है वो कई-कई राज्यों में पढ़ाई जा रही हैं.
अंग्रेज़ों की बांटो और राज करो की नीति टीपू सुल्तान के वक्त भले ही साफ साफ समझ ना आती हो लेकिन आगे चलकर 1857 में अंग्रेज़ों का डर हकीकत में तब्दील हो गया जब हिंदू-मुसलमानों ने मिलकर पहला स्वंतत्रता संग्राम छेड़ा था. लॉर्ड बेबिंगटन मैकॉले जैसे शिक्षाविद और जेम्स मिल जैसे इतिहासकारों ने हर किताब और हर शिक्षा नीति इस तरह तैयार की जिससे अंग्रेज़ों के हित भारत में साधे जा सकें. मैकॉले के खत और ब्रिटिश संसद में उसके भाषण इस बात की पुष्टि करते हैं. वहीं मिल जैसे इतिहासकार भी थे जो कभी भारत नहीं आए लेकिन भारत पर उनकी लिखी किताब ईस्ट इंडिया कंपनी के हर अधिकारी को पढ़नी ज़रूरी थी. इन्होंने ही भारतीय इतिहास को तीन कालखंडों में विभाजित किया था, जो थे- हिंदू युग, मुस्लिम युग और ब्रिटिश युग.  इससे भी उनकी ये समझ ज़ाहिर होती है कि वो इतिहास को कैसे देखते और दिखाना चाहते थे.
टीपू सुल्तान पर आधिकारिक ज्ञान रखने वाली केट ब्रिटिलबैंक एक और दिलचस्प कहानी बताती हैं. उन्होंने बताया कि टीपू सुल्तान को शहीद किए जाने पर लंदन में सवाल खड़े हो गए. तब किसी भारतीय शासक को यूं मार डालना आम नीति नहीं थी. ऐसे हालात में गवर्नर जनरल और उनके साथियों ने टीपू की मौत को ये कह कर जस्टिफाई करना चाहा कि वो एक बर्बर, अत्याचारी और क्रूर शासक था. इसे ही सिद्ध करने के लिए लिखित प्रमाणों का दावा शुरू हो गया. कर्नल फुल्लार्टन जो मंगलौर में ब्रिटिश फौजों के इंचार्ज थे उन्होंने टीपू के 1783 में पालघाट के किले पर अभियान को बेहद सांप्रदायिक ढंग से चित्रित किया. कहा गया कि अभियान के दौरान टीपू ने क्रूरताओं की सारी हदें पार कर दीं और उसके सैनिकों ने ब्राह्मणों के सिरों की नुमाइश करके लोगों में खौफ भर दिया.
ऐसा ही कुछ मालाबार अभियान में भी किया गया. कुर्ग अभियान के वक्त करीब एक हज़ार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में धर्मान्तरित करने का किस्सा भी विलियम लोगान की किताब ‘वॉयजेज़ ऑफ़ द ईस्ट’ में मिलता है. कहते हैं सेरिन्गापट्टनम में कैद इन हिंदुओं को टीपू के मरने के बाद अंग्रेजों ने आज़ाद कराया. इस तरह अंग्रेज़ों ने दिखाया कि मैसूर में वो हिंदुओं के मुक्तिदाता के तौर पर राज्य में घुसे थे.

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