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सवर्ण करें दलित-पिछड़ों के महापुरुषों का सम्मान वरना बढ़ेंगी दूरियां

उदित राज: दिल्ली में संत रविदास मंदिर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से तोड़ दिया गया है. बताया जाता है कि संत रविदास यहां ठहरे थे और उनसे मिलने सिकन्दर लोधी गया था. 1959 में बाबू जगजीवन राम जी भी यहां पधारे थे. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में काफी सक्रियता दिखाई वरना उसके यहां दसियों साल मुकदमे लंबित रहते हैं. दिल्ली विकास प्राधिकरण इस मामले में पूर्ण सक्रिय रही वरना दिल्ली में हजारों मन्दिर सड़कों के किनारे और रास्तों में मिल जायेंगे, जिसको जज एवं अधिकारी आते–जाते देखते रहते हैं. तोड़–फोड़ तो चलता रहता है लेकिन इस मामले में विशेष बात क्या है उस पर विचार करना जरूरी है.
इस मामले में विशेष बात यह है कि दलित आंदोलित हो गये. ऐसा इसलिए कि संत रविदास को दलितों का महापुरुष या भगवान अन्य समाज के लोग मानते हैं. यह बात भी सच है दलित और पिछड़े से सम्बन्धित संतों, महापुरुषों एवं भगवानों के मूर्तियों एवं मन्दिरों को ही ज्यादा तोड़ा जाता है. इनके पूजा–पाठ, जयंती, स्मरण आदि यही लोग करते हैं. डॉ अम्बेडकर की जयंती हो या इनके अन्य महापुरुष की शत-प्रतिशत दलित ही आयोजित करते हैं. इससे भी बढ़कर अब और समाज के बंटवारे की बात साफ़ हो जाती है जब तथाकथित सवर्ण जगह-जगह आयोजन करने में भी रुकावट बनते हैं. सामजिक एवं राजनैतिक लाभ के लिए जरूर अतिथि के रूप में सवर्ण समाज के लोग शामिल हो जाएं जो कि अलग बात है. फायदे के लिए मानने का दिखावा करने को दिल से मानने कि बात नहीं कही जा सकती है.
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पूरे देश में घूम करके देखा जा सकता है कि जहां सवर्ण समाज की बसावट है वहां पर संत रविदास या डॉ अम्बेडकर या अन्य महापुरुष की मूर्ति या मन्दिर उनके द्वारा बनवाई या लगवाई गयी हो. जहां मजबूरी हो वहां छोड़ करके बाकी पठन-पाठन लेखन में भी इस समाज के संतों और महापुरुषों को देखा नहीं जाता. सेमिनार एवं गोष्ठी भी ब-मुश्किल होती दिखती है. पूरे देश में सबसे ज्यादा सरकारी एवं निजी स्तर दोनों को मिला दिया जाये तो डॉ. अम्बेडकर से ज्यादा किसी कि मूर्ति नहीं होगी. जैसे-जैसे मूर्तियों के लगने की संख्या बढ़ती जा रही है इर्ष्या भी तेज होती जा रही है. छुप-छिपा कर या रात में जगह–जगह पर डॉ. अम्बेडकर कि मूर्तियों का खंडन करना या कालिख लगाना आम बात हो गयी है. डॉ. अम्बेडकर की जयंती मनाने का प्रचलन तो ऐसा हो गया है कि अप्रैल से लेकर के जुलाई, अगस्त तक मनाते रहते हैं. इसको दबी हुई मान–सम्मान की भावना का प्रकटीकरण के रूप में देखा जा सकता है.
दलितों–पिछड़ों में ऐसी प्रवृत्ति 60 और 70 के दशक के बाद तेज हुई है. इसके पहले ऐसा क्यों नहीं हुआ करता था यह एक विचारणीय प्रश्न है. कारण यह है कि पहले इतनी जाग्रति नहीं थी जो अब हुई है. आज भी दलितों के लिए कई स्थानों पर मंदिर प्रवेश वर्जित है और आये दिन अपमानित होते रहते हैं. ऐसी परिस्थति में उन्हें अपने भगवान एवं महापुरुष की खोज एक आवश्यकता बन जाती है. जिन जातियों में ऐसे प्रतीक अब तक नहीं थे उन्होंने खोजना शुरू कर दिया है. आये दिन तमाम जातियों के प्रतीकों की खोज प्रकाश में आती रहती है.
उदाहरण के रूप में उत्तर प्रदेश में राजभर समाज, जो पिछड़ा हुआ है, उन्होंने सुहेल देव को अपना प्रतीक मानना शुरू कर दिया है. कुछ साल पहले उदा देवी, जिन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लिया था, पासी समाज उन्हें अब अपना आदर्श मानकर मान-सम्मान देना शुरू किया है और मूर्तियां लगने लगी हैं. वर्तमान में जो सामाजिक–राजनैतिक वातावरण है उससे ऐसी बातें बढ़ेंगी ही.
कुछ समय के लिए मुस्लिमों का जिक्र करके हिन्दू एकता जरूर कायम कर ली जाये लेकिन यह टिकाऊ होने वाली नहीं है. हिन्दू एकता के नाम पर तो वोट ले लिया गया है लेकिन शासन-प्रशासन में भागीदारी अनुपात में बिल्कुल नहीं मिला है और ऐसा लोग महसूस भी करने लगे हैं.
दूसरी बार जब मोदी मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो तुरंत प्रतिक्रिया आने लगी थी कि 21 कैबिनेट मंत्री में एक भी पिछड़ा वर्ग का नहीं है. जाति व्यवस्था का यह स्वभाव है कि वह सबकी भागीदारी के विरुद्ध है.
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दिल्ली में रविदास मंदिर टूटने पर लाखों की संख्या में दलित सड़कों पर उतर गये. संत रविदास से आस्था से जुड़ा होना तो एक कारण तो था ही लेकिन दूसरा बड़ा कारण तो यह था कि उनके महापुरुष का सवर्णों द्वारा अपमान करना इस दौरान प्रतिक्रिया देखने को मिली कि रविदास मंदिर में हिन्दू धर्म के अन्य देवी–देवताओं की मूर्तियां कुछ मंदिरों से निकाल फेंकी गयी हैं. इसकी प्रतिक्रिया न केवल देश के अंदर हुई बल्कि कई अन्य देशों में भी. आखिर में ऐसी परिस्थति का जन्म क्यों हुआ, ऐसा इसलिए कि अब दलित–पिछड़ा समाज संतुष्ट होने वाला नही है, अगर उनके साथ सवर्ण हिन्दू समानता का व्यवहार नहीं करते. दलित–पिछड़े समाज में जन्में महापुरुषों को सवर्ण सम्मान नहीं देते हैं तो दूरियां बढ़ेंगी. संत, महापुरुष और भगवान भी जातियों के आधार पर बंट रहें हैं और आगे और तेजी आ सकती है.
रविदास मन्दिर में यदि सभी हिन्दू जातियों के लोग जाते और मानते और खंडन होने पर सबकी प्रतिक्रिया भी होती तो यह मामला एक जाति विशेष का न होता. इसके न होने की वजह से इकट्ठे भीड़ में से हिन्दू धर्म के विरोध में नारे भी लग रहे थे. हिन्दू धर्म त्याग करने की भी बात तेजी से उठी. यही कारण रहा कि अतीत में भारी संख्या में ईसाई और मुसलमान बने. दलितों द्वारा बौद्ध बनने का भी यही कारण है. यह घटना अपने आप में बहुत बड़ा सबक सीखने को देती है कि सवर्ण समाज अपना नज़रिया बदले वरना समाज का विभाजन और बढ़ेगा.

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