भारत समेत पूरी दुनिया में कोई नहीं सुनता विस्थापितों का दर्द

पिछले एक दशक से राष्ट्रवादी सरकारें ही दुनिया के लगभग अलग-अलग देशों में चुनकर आ रहीं हैं। दूसरी तरफ़ पूरी दुनिया में अशांति बढ़ती जा रही है और इस अशांति से विस्थापितों और आप्रवासियों की संख्या भी बढ़ रही है। तमाम राष्ट्रवादी सरकारों को आप्रवासी और विस्थापित समूह देश पर एक भार जैसे लगने लगे हैं और इन्हें देश की सीमा से बाहर करने के आदेश जारी करते रहते हैं। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन तो बाहरी लोगों की तुलना कभी नाज़ियों से करता है तो कभी इन्हें दूसरे ग्रह का निवासी बताता है। इंग्लैंड में ब्रेक्सिट का मसला भी इसी पर आधारित है और स्पेन और फ़्रांस समेत यूरोप के अनेक देश सीरिया के आप्रवासियों को खदेड़ने में लगे हैं। इन सब पर ख़ूब चर्चा की जाती है, पर ऐसा ही हाल भारत का भी है। असम के नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) के मसले पर सब चुप हैं, जिसमें 40 लाख लोगों की नागरिकता छिनने का खतरा है। इसकी ड्राफ़्ट रिपोर्ट 2018 में आयी थी और अब 31 अगस्त को फ़ाइनल रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी जायेगी।
वर्ष 1951 में एनआरसी को शुरू किया गया था। असम में 1971 के आसपास पाकिस्तान की सेना से त्रस्त तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक भारी संख्या में आ गए थे। इसके बाद ही बांग्लादेश का गठन हुआ। ज़ाहिर है, पूर्वी पाकिस्तान से जितने भी लोग आये होंगे उनमें से अधिकतर बांग्ला बोलने वाले मुसलिम होंगे। यह सब कवायद इन्हीं लोगों को देश से बाहर करने की है। प्रधानमंत्री स्वयं समय-समय पर इसे देश की गंभीर समस्या बता चुके हैं। लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष दोनों ही उत्तर और उत्तर-पूर्व की हरेक जनसभा में इसे देश की सबसे गंभीर समस्या करार देते रहे हैं। इसका फायदा भी बीजेपी को चुनावों में मिला। बीजेपी अध्यक्ष तो इन लोगों को दीमक कहकर संबोधित कर चुके हैं, उनके मुताबिक़ ये लोग देश को खोखला कर रहे हैं। 
भारत समेत पूरी दुनिया में कोई नहीं सुनता विस्थापितों का दर्द
असम की पूरी जनसंख्या पिछले कई वर्षों से अपने आप को देश का नागरिक साबित करने की कवायद कर रही है। वहाँ की स्थानीय जनजातियों और समुदायों के लिए नागरिक साबित करने के नियम उतने सख़्त नहीं हैं जितने कि वहाँ के बांग्ला-भाषियों के लिए। असम के बांग्ला-भाषियों को यह साबित करना पड़ रहा है कि वे या उनके पुरखे असम में 1971 से पहले से बसे हुए हैं। उस समय वोटर कार्ड या फिर आधार जैसी सुविधा नहीं थी, इसलिए उनकी दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। 1951 के मौलिक नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस की प्रतियाँ भी हरेक जगह उपलब्ध नहीं हैं जिसमें अपना नाम देखा जा सके। सबके पास जमीन-जायदाद भी नहीं है, जिसके दस्तावेज हों।  
इससे प्रभावित अधिकतर लोग बेहद ग़रीब और अनपढ़ हैं। ये लोग लिस्ट में अपना नाम देखकर भी नहीं पहचान पाते और सरकारी अधिकारी इन्हें कुछ नहीं बताते। मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालने वाले श्रमिक अपना काम छोड़कर अपने आप को भारत का नागरिक साबित करने की कवायद में जुटे हैं। दादा-परदादा के समय से चली आ रही नाम या पते में स्पेलिंग की गड़बड़ियाँ भी लोगों के लिए अब नयी समस्याएँ खड़ी कर रही हैं। सरकारी अधिकारियों की लापरवाही का आलम यह है कि कहीं बेटा भारतीय साबित हो जाता है, पर उसका पिता विदेशी हो जाता है। इसी तरह जुड़वा भाई-बहनों में से एक भारतीय साबित हो जाता है, जबकि दूसरे को विदेशी करार दे दिया जाता है।
म्यांमार में रोहिंग्या विस्थापितों की ख़ूब चर्चा होती है। इन्हें भी बांग्लादेश का ही बता कर देश से बेदख़ल कर दिया गया है। इस समस्या पर संयुक्त राष्ट्र की भी नज़र है, पर असम की समस्या पर तो यह भी ख़ामोश है, जबकि असम में प्रभावित लोगों की संख्या रोहिंग्या से पाँच गुना अधिक बड़ी है। वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र ने तीन सदस्यीय दल बनाया था जिसे म्यांमार की फ़ौज़ द्वारा किये जाने वाले मानवाधिकारों के उल्लंघन और नरसंहार के बारे में जाँच कर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी। म्यांमार की फ़ौज़ ने रोहिंग्या लोगों के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया था, इसी की पुष्टि करने के लिए यह रिपोर्ट बनायी गयी। लेकिन वहाँ की फ़ौज़ ने संयुक्त राष्ट्र के किसी भी सदस्य को म्यांमार में प्रवेश नहीं करने दिया था। फिर इस दल के सदस्यों ने लगभग 875 विस्थापितों के साक्षात्कार के आधार पर 440 पृष्ठों की एक रिपोर्ट सितम्बर 2018 में प्रस्तुत की। ये सभी विस्थापित फ़ौज़ द्वारा रोहिंग्या के शोषण और नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी भी थे। रिपोर्ट के अनुसार, म्यांमार की फ़ौज़ नरसंहार, हत्या, बिना कारण जेल में डालना, महिलाओं, बच्चियों से बलात्कार, बच्चों के शोषण और इनके गाँव में आगजनी के लिए दोषी है। रिपोर्ट में सभी देशों से अनुरोध किया गया है कि वे म्यांमार के साथ किसी भी तरह के रिश्ते न रखें।
एनआरसी के 2017 के ड्राफ़्ट में असम के लगभग 40 लाख लोगों को विदेशी बताया गया था, जबकि इसके बाद अब तक इस सूची में लगभग एक लाख लोग और जुड़ चुके हैं। इस समय पूरे असम में इसको लेकर अफरा-तफरी का माहौल है क्योंकि इसके संशोधन की प्रक्रिया कुछ बड़े शहरों में ही की जा रही है। जो लोग शहरों से 300 किलोमीटर दूर रहते हैं उन्हें भी संशोधन के लिए 24 घंटे से भी कम का समय दिया जा रहा है। सामान्य अवस्था में भी असम में इतनी लम्बी दूरी 24 घंटे में तय करना कठिन है, आजकल तो बारिश और बाढ़ से यह सब लगभग असंभव हो चला है। असम के मुख्यमंत्री के अनुसार, राज्य के 55000 कर्मचारी केवल एनआरसी के काम में लगे हैं। लोकसभा में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट पर बहस के दौरान बताया था कि सारी कोशिशों के बाद भी एनआरसी में नाम न आने से मजबूर होकर कम से कम 57 व्यक्ति अब तक असम में आत्महत्या कर चुके हैं।
अब पश्चिम बंगाल की बारी!
असम के बाद निश्चित तौर पर पश्चिम बंगाल का नंबर आने वाला है, जिसके बारे में अमित शाह वहाँ की अनेक रैलियों में चुनाव के समय इस बारे में घोषणा कर चुके हैं। आश्चर्य यह है कि यह सब उस देश में किया जा रहा है, जिसके प्रधानमंत्री हरेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मलेन में वसुधैव कुटुम्बकम का नारा लगाते हैं और इसका अर्थ भी बताते हैं। देश में असम इकलौता राज्य है जहाँ सिटिजनशिप रजिस्टर की व्यवस्था लागू है। एनआरसी के मुताबिक़, जिस व्यक्ति का नाम सिटिजनशिप रजिस्टर में नहीं होता है उसे अवैध नागरिक माना जाता है। इसे 1951 की जनगणना के बाद तैयार किया गया था। इसमें यहाँ के हर गाँव के हर घर में रहने वाले लोगों के नाम और संख्या दर्ज की गई है।  असम में सिटिजनशिप रजिस्टर देश में लागू नागरिकता कानून से अलग है। यहाँ असम समझौता 1985 से लागू है और इस समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्‍य में प्रवेश करने वाले लोगों को भारतीय नागरिक माना जाएगा। 1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा अवैध आप्रवासियों की पहचान और निर्वासन की माँग करते हुए एक 6 वर्षीय आन्दोलन चलाया गया था। यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद शान्त हुआ था।
असम में नागरिक पंजीकरण को आख़िरी बार 1951 में अपडेट किया गया था। उस समय असम में कुल 80 लाख नागरिकों के नाम पंजीकृत किए गये थे। वर्ष 2013 में असम में एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू किया गया था।  नागरिकता हेतु प्रस्तुत लगभग दो करोड़ से अधिक दावों (इनमें लगभग 38 लाख लोग ऐसे भी थे जिनके द्वारा प्रस्तुत दस्तावजों पर संदेह था) की जाँच पूरी होने के बाद न्यायालय द्वारा एनआरसी के पहले मसौदे को 31 दिसंबर 2017 तक प्रकाशित करने का आदेश दिया गया था। 31 दिसंबर 2017 को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का पहला ड्राफ्ट प्रकाशित किया गया। क़ानूनी तौर पर भारत के नागरिक के रूप में पहचान प्राप्त करने हेतु असम में लगभग 3.29 करोड आवेदन प्रस्तुत किये गए थे, जिनमें से कुल 1.9 करोड़ लोगों के नाम को ही इसमें शामिल किया गया है।

More videos

See All