काश, प्रधानमंत्री उन्हें रोकते, जो जम्मू कश्मीर की लड़कियों पर ‘हक’ जता रहे हैं

संविधान के अनुच्छेदों 370 और 35ए को हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांटने के ऐतिहासिक फैसले के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को सम्बोधित करने न्यूज चैनलों पर आये तो, जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, लोगों को उनसे कई उम्मीदें थीं. ‘अब पाक अधिकृत कश्मीर की बारी’ कहने वालों ने तो यह अनुमान लगाना भी शुरू कर दिया कि कौन जाने, वे देश को यह खुशखबरी देने वाले हों कि सेना को उसकी ओर कूच करने के आदेश दे दिये गये हैं.
उनके दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री सिर्फ ऐतिहासिक फैसले की बधाई देकर रह गये और अपने 38 मिनट लम्बे संदेश में ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जो उनके गृहमंत्री अमित शाह संसद में इस सम्बन्धी संकल्प पेश करते हुए उनसे ज्यादा लटके-झटकों के साथ नहीं कह चुके थे. जिन सरदार वल्लभभाई पटेल, बाबासाहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी के सपने पूरे करने की बात उन्होंने अपने संदेश में कही, शाह ने भी उन्हीं के सपने पूरे करने का एलान करते हुए संसद में कहा था कि अब देशवासी कुछ ही दिनों में जम्मू-कश्मीर को हंसता-खेलता और फूलता-फलता देख सकेंगे.
प्रधानमंत्री ने भी जम्मू कश्मीर के निवासियों को नये युग का सपना दिखाकर यही बताने की कोशिश की-इसकी कतई फिक्र किये बिना कि क्या पता, सारी संचार-सुविधाओं से काटकर घरों में कैद कर दिये गये कश्मीरियों के कानों तक उनकी बात पहुंच भी रही है या नहीं. शाह की ही तरह उन्होंने भी यही दोहराया वहां राजनीति के जनविरोध व आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार तक और कुपोषण से लेकर अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी तक जितनी भी जटिल समस्याएं हैं, उन सबकी जड़ में संविधान के ये अनुच्छेद ही थे. तिस पर धारा 370 जम्मू कश्मीर के विकास में तो बाधक रही ही है, महिला, दलित और आदिवासी विरोधी भी है.
जम्मू-कश्मीर का अपना संविधान और ध्वज हुआ करता था
अब यह तो लोग जानते ही हैं कि इसी के कारण जम्मू-कश्मीर का अपना संविधान और ध्वज हुआ करता था, जो भारत के ‘राष्ट्रवादियों’ की आंखों में किरकिरी की तरह गड़ा करता था. इसी के कारण वहां के स्थायी निवासियों को ऐसे संरक्षण मिले हुए थे, जो देश के अन्य राज्यों के ‘महाप्रभुओं’ तक को ‘धरती के स्वर्ग’ का निवासी होने के सुख से वंचित करते थे. जो लोग मोदी और शाह को जानते हैं, उनकी इसके आगे की बात उनके श्रीमुख से निकले बिना भी समझ सकते हैं. यह कि ये दोनों अनुच्छेद महज देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की ‘नासमझी’ का नतीजा हैं और इस नासमझी में, और तो और, उनके मंत्रिमंडलीय डिप्टी सरदार वल्लभभाई पटेल तक का कोई हिस्सा नहीं है-रंचमात्र भी नहीं.
लेकिन अफसोस कि सब कुछ वैसा ही नहीं है, जैसा बताया और समझाया जा रहा है. इसलिए बेहतर होता कि प्रधानमंत्री बताते कि अगर किसी राज्य को मिला विशेष दर्जा वहां एक साथ इतने गुल खिलाता है तो नगालैंड जैसे कई और राज्यों के ऐसे विशेषाधिकारों को जम्मू कश्मीर के साथ ही क्यों नहीं खत्म कर दिया गया? और जिन राज्यों को ऐसे विशेषाधिकार नहीं हैं, वे अभी तक भ्रष्टाचार व गरीबी वगैरह से जम्मू कश्मीर से भी ज्यादा हलकान क्यों हैं? लेकिन पूरा सच बताने पर आते तो उन्हें यह भी बताना पड़ता कि पं. नेहरू कम से कम एक और मामले में बहुत ‘नासमझ’ थे: उनको उम्मीद थी कि समय के साथ जम्मू कश्मीर और भारत का भाईचारा इतना प्रगाढ़ हो जायेगा कि अनुच्छेद 370 घिसते-घिसते पूरी तरह घिस जायेगा.
लेकिन प्रधानमंत्री अपने संदेश में पं. नेहरू की इस नासमझी का जिक्र छेड़ते तो अनेक लोगों को बरबस याद दिला देते कि उन दिनों नेहरू जिस आधुनिक व लोकतांत्रिक भारत के निर्माण में रत थे, उसकी नीतियों व मूल्यों से आकर्षित होकर ही जम्मू कश्मीर ने अपने भविष्य को उसके साथ जोड़ना पसन्द किया था. तिस पर भी नेहरू चाहते थे कि वह पूरी तरह आश्वस्त हो ले.
इसीलिए उन्होंने खुला वादा किया कि इस बाबत अंतिम फैसला कश्मीरियों की राय लेकर यानी जनमतसंग्रह से किया जायेगा. यह याद लोगों को इस सवाल की ओर भी ले जा सकती थी कि आज नेहरू का भारत साम्प्रदायिक घृणा व बहुसंख्यक आक्रामकता से क्यों बजबजा रहा है और ‘न्यू इंडिया’ के पैरोकारों के निकट जम्मू कश्मीर के भारत का अभिन्न होने का इतना भर ही आशय क्यों बचा है कि अब वे उसे निरुपाय करके उसकी छाती पर कैसी भी मूंग दल सकते हैं!
क्यों उन्हें याद नहीं कि पूर्वोत्तर से लेकर पंजाब तक देश में जहां कहीं भी आतंकवाद ने सिर उठाया है, उसे सम्बन्धित क्षेत्र के नागरिकों को ज्यादा अधिकार देकर, साथ ही उनकी पहचान व भविष्य सुरक्षित होने का अहसास जगाकर ही काबू किया जा सका है, उन्हें संगीनों की नोंक पर रखकर, उनके अधिकार छीनकर या उन्हें औकात बताकर नहीं. इसी बिना पर अब तक नागरिकों की मांगों के अनुरूप केन्द्रशासित प्रदेशों को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाता रहा है, लेकिन अब इस प्रक्रिया को पलटकर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य के आसन से धकेलकर केन्द्रशासित प्रदेश बना दिया गया है और सरकार व उसकी दिन में तारे देखने में मगन मशीनरी समझना ही नहीं चाहतीं कि इस रास्ते पर चलकर इतिहास भले ही बनाया, बिगाड़ा या बदला जा सकता हो, भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता.
अफसोस कि प्रधानमंत्री ने देश का इतिहास व भूगोल बदल डालने वाले अपने इस फैसले का यह अंतर्विरोध भी नहीं समझा कि जैसे ही स्थिति सामान्य होगी, सरकार जम्मू कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य बनाने की कोशिश करेगी? क्या अर्थ है इसका? यही तो कि अभी जो कुछ किया गया है, उसके पीछे कोई सुविचारित दीर्घकालिक नीति नहीं है. ‘बादल घिरेंगे तो पानी बरसेगा और नहीं घिरेंगे तो धूप हो जायेगी’ जैसी ‘दूरदर्शिता’ है और ‘पहले दिल्ली से दौलताबाद चलो, फिर दौलताबाद ही हवा पानी रास न आये तो दिल्ली लौट आओ’ जैसा ‘दृढ़ निश्चय’!
पीएम की बस यही चिंता है
बिडम्बना देखिये: जम्मू कश्मीर के विकास से जुड़ी प्रधानमंत्री की चिंता इतनी भर ही है कि ‘कई-कई कंपनियां वहां अपने कार्यालय, उद्योग और होटल वगैरह खोलना चाहती हैं लेकिन नहीं खोल पा रहीं.’ मतलब साफ है कि उनकी जिन कारपोरेटपरस्त नीतियों से सारा देश त्रस्त है, उसका सारा द्रविड़ प्राणायाम उनके जम्मू-कश्मीर तक विस्तार के लिए ही है. इन नीतियों से गैरबराबरी और शोषण पर आधारित रोजगारहीन और असंतुलित विकास हुआ भी तो जम्मू कश्मीर के आम लोगों के हाथ क्या आयेगा? देश भर के उद्योगपतियों के विशालकाय और बहुमंजिले भवन उसके चिनार और देवदार के पेड़ों को मुंह चिढ़ायेंगे तो उन्हें और उनके साथ उन कश्मीरी पंडितों को कैसा लगेगा, मोदी सरकारों के छठे साल में भी जिनकी वापसी की राह हमवार नहीं हो पाई है?
और तो और, प्रधानमंत्री ने यह भी नहीं बताया कि ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ या कि ‘हीलिंग टच’ को धता बताकर अटलबिहारी वाजपेयी का सपना कैसे पूरा किया जा सकता है? प्रधानमंत्री चाहते तो अपने उन समर्थकों का डांट-फटकार कर, जो जम्मू कश्मीर की युवतियों व महिलाओं को लेकर ऐसी-ऐसी अपमानजनक बातें कह रहे हैं, जैसे देश के इस ‘अभिन्न अंग’ को उन्होंने अभी-अभी धारा 370 खत्म कराकर पराजित किया और जीता हो, राष्ट्र के नाम अपने संदेश को बेहद महत्वपूर्ण बना सकते थे. लेकिन उन्होंने वह भी नहीं किया.
प्रसंगवश, रामविलास पासवान ने उस दौर में जब वे भाजपा विरोध की राजनीति किया करते थे, उस पर बढ़त पाने के लिए एक बार संसद में कहा कि भाजपा मुझसे राम की बात क्या करेगी, मेरे तो नाम में ही राम है. इस पर अटल ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया कि राम का क्या कीजिएगा, वह तो हराम में भी है ही. इस वाकये की बिना पर कहें तो जम्मू कश्मीर को धारा 370 से आजादी दिलाने का जश्न एकदम वैसा ही है जैसे हराम में राम.

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