ये है वो कहानी जिस वजह से महबूबा को कहना पड़ा… काश आज अटल होते..

केंद्र सरकार की एडवाइज़री और सुरक्षाबलों की हलचल के बीच कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को आधी रात नज़रबंद कर दिया गया था. बहुत वक्त नहीं बीता जब वो खुद बीजेपी के साथ राज्य में सरकार चला रही थीं. महबूबा मुफ्ती ने एक के बाद एक ट्वीट करके अपने विचार रखे और साथ ही पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को भी याद किया. उन्होंने लिखा कि बीजेपी का नेता होने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी कश्मीरियों के साथ सहानुभूति रखते थे और उन्होंने कश्मीरियों का प्यार हासिल किया. आज हम उनकी अनुपस्थिति महसूस कर रहे हैं.

दरअसल महबूबा का ऐसा महसूस करना हैरान नहीं करता. वाजपेयी ने 1998 से 2004 के बीच भारत का प्रधानमंत्री पद संभाला था. कश्मीर को लेकर उनकी सोच-समझ को वाजपेयी सिद्धांत कहा गया. इसमे पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की कोशिशें भी जुड़ी थीं. इसी से एक नारा निकला- इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत.
क्या था इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत
वाजपेयी की इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत वाली कश्मीर नीति की तारीफ दुनिया करती थी. कश्मीर के अलगाववादी भी उन पर फिदा थे. तब यही माना गया कि बातचीत से ही पेंच सुलझ जाएगा.
21 अप्रैल 2003 को वाजपेयी ने लोकसभा में जम्मू कश्मीर के जटिल मुद्दे पर बोलते हुए इसे सुलझाने की योजना विस्तार से बताई थी. उन्होंने सूबे में बड़े इकोनॉमिक प्रोजेक्ट्स शुरू करने की बात कही थी. नौजवानों के लिए नौकरी की बात कही थी. ये भी कहा था कि हमने पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. अब देखना है कि पाकिस्तान कैसी प्रतिक्रिया देता है. घुसपैठ और आतंकियों का ढांचा तोड़ना बातचीत के रास्ते खोल सकता है. जम्मू-कश्मीर से लेकर हर मुद्दे पर बात हो सकती है. वाजपेयी ने कहा था कि बंदूकों से मसले हल नहीं होते. मामलों को तीन सिद्धांतों से ही हल किया जा सकता है जो इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत है.

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असल में भारतीय संसद पर साल 2001 में आतंकी हमला होने के बाद तत्कालीन पीएम ने ये रुख अख्तियार किया था. इसके बाद नवंबर 2003 में एलओसी पर सीज़फायर घोषणा हुई थी. जनवरी 2004 में पाकिस्तान के साथ रुकी हुई बातचीत तब शुरू हुई जब मुशर्रफ सरकार ने अपनी ज़मीन से आतंक पर रोक लगाने का आश्वासन दिया था. उस दौरान मीडिया में और बुद्धिजीवी तबके में वाजपेयी के नए नारे पर बहुत बातें हुईं. माना गया कि ये सिर्फ खोखला नारा नही बल्कि भारतीय सरकार की एक नई नीति है जिस पर चलकर संजीदगी से जम्मू-कश्मीर की पहेली का हल खोजा जा रहा है. ये देश का दुर्भाग्य रहा कि वाजपेयी के सत्ता से जाने के बाद इस नारे को भुला दिया गया. 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद ही ये मंत्र फिर से याद किया गया.
पाकिस्तान के साथ बातचीत
कश्मीर की गुत्थी सुलझाने के सिलसिले में अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान से बातचीत का क्रम ज़िंदा रखा. उन्होंने किसी भी तीसरे पक्ष को मध्यस्थ नहीं बनने दिया. कश्मीरियों के साथ भी नर्म रुख अपना कर उन्होंने पाकिस्तान को अप्रासंगिक बनाने का प्रयास किया. वाजपेयी सख्त बात नहीं करते थे. हर पक्ष से बातचीत करने के समर्थक रहे.
यही वजह थी कि पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने खटाई में पड़ी भारत-पाकिस्तान बातचीत को शुरू करने के लिए जब मौजूदा सरकार से कहा तो वाजपेयी का ज़िक्र भी किया. उन्होंने कश्मीर में शांति को भी इस बातचीत से जोड़ा था. महबूबा ने 12 फरवरी को एक ट्वीट किया था-  खूनखराबा बंद करने के लिए पाकिस्तान से बातचीत करना जरूरी है.

सच तो ये है कि वाजपेयी के प्रयासो का प्रतिफल भी मिलना शुरू हो गया था.  पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति ने कश्मीर में शांति के लिए चार-बिंदुओं का प्रस्ताव रखा था. रिपोर्ट्स बताती हैं कि वो प्रस्ताव दरअसल वाजपेयी के विचारों के काफी करीब था लेकिन इससे पहले कि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर होते डील टूट गई.  इससे पहले 21 फरवरी 1999 को वाजपेयी ने लाहौर घोषणा पर साइन किए थे जिसमें पीएम नवाज़ शरीफ ने भी माना था कि दोनों देश अपनी समस्याओं का हल आपस में करेंगे चाहे वो जम्मू-कश्मीर का मसला ही हो. सभी को याद होगा तब वाजपेयी ने सदा-ए-सरहद नाम  से बस सेवा शुरू की थी जो दिल्ली से लाहौर जाती थी.

उसी प्यार मोहब्बत के माहौल में वाजपेयी मीनार-ए-पाकिस्तान पहुंचे थे और पाकिस्तान के अस्तित्व की खुले दिल से पुष्टि की थी. ये वाजपेयी थे जिनकी कोशिशों को नवाज़ शरीफ ने ये कह कर सराहा था कि वाजपेयी साहब अब आप पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं. कारगिल युद्ध के दौरान भी इस बस को रोका नहीं गया था. दिसंबर 2001 में संसद पर हमले के दौैरान इसे ज़रूर रोकना पड़ा. इसकी वजह यही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी बखूबी जानते थे कि बातचीत का कश्मीर मसले के हल में कितना बड़ा रोल है. भारत के 72वें स्वतंत्रता दिवस पर पीएम मोदी ने इसी मंत्र को जारी रखने की बात कही थी लेकिन व्यवहारिक तौर पर ऐसा होता दिखा नहीं. शायद इसीलिए महबूबा को अटल याद आ गए.

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