तीन दलबदलू, छह हत्याएं, तीन बलात्कार, और एक पार्टी- भाजपा

हाल के दिनों में ढाई चैंपियन सीरियल दलबदलू सियासी सुर्खियों में रहे. इनमें पहले हैं सबसे जान-पहचाने, उन्नाव बलात्कार-हत्या कांड से कुख्यात हुए कुलदीप सिंह सेंगर. दूसरे हैं अमेठी के पूर्व ‘राजा’ और एक्स-मिनिस्टर संजय सिंह, जो कांग्रेस की डूबती नैया से अभी-अभी कूद कर भाजपा की नैया में सवार हो गए हैं. और तीसरे हैं साक्षी महाराज, उन्नाव से हाल में चुने गए भाजपा सांसद, जिन्हें हमने आधा गिना है क्योंकि उन्होंने इधर ऐसा कोई सियासी या आपराधिक काम नहीं किया है, जो खबरों की सुर्खी बना हो. उन्होंने खबरों में केवल जिक्र किए जाने लायक या अनुप्रासंगिक बदनामी लायक काम यह किया कि सेंगर को चुनाव में मदद देने का शुक्रिया अदा करने के लिए उनसे मिलने जेल में जा पहुंचे.
ये तीनों आदतन दलबदलू हैं. अंतिम गिनती तक इन लोगों को हत्या के करीब आधा दर्जन अनसुलझे या आधे सुलझे मामलों से जोड़ा गया है. और बलात्कार के भी कम-से-कम तीन मामलों से जोड़ा गया है, जो अभी तक अनसुलझे हैं. इसके अलावा, हकीकत यह है कि इन तीनों की मांग लगातार बनी रही है. इनके पास अपनी-अपनी जाति और इलाके का वोट बैंक है, ये लोग कानून से निबटने के रास्ते जानते हैं, और इनके पास एक ऐसी खूबी है जिसे सभी राजनीतिक पार्टियां क्षमता, ईमानदारी, और नैतिकता आदि तमाम खूबियों से ऊपर मानती हैं— वह है चुनाव जीतने की जुगत. और ऐसा संयोग देखिए कि ये तीनों ही भाजपा में आ जुटे हैं, जब तक कि सेंगर को अंततः निकाल बाहर नहीं किया गया था.
एक कथित अपराधी और डॉन के रूप में या हिन्दी पट्टी में प्रचलित जुमले ‘बाहुबली’ के रूप में उनके जीवन पर ही हमारा ध्यान इतना केन्द्रित रहा है कि हम उनके रंगारंग सार्वजनिक जीवन की अनदेखी कर बैठते हैं. अपने इलाके के ‘दद्दू’, सेंगर 2002 में बसपा के टिकट पर उन्नाव से चुनाव जीत कर पहली बार सम्मानित विधायक जी बन गए. इसके बाद वे सपा में चले गए और 2007 में पड़ोस के बांगरमऊ से और 2012 में भगवंत नगर से चुनाव जीते.
तब तक यह कहने का फैशन चल पड़ा था कि सपा आपराधिक माफिया, खासकर यूपी के यादव और राजपूत माफिया को संरक्षण दे रही है. 2017 में हवा का रुख भांप कर वे भाजपा में पहुंच गए और उसके विधायक बन गए. उसी साल, बल्कि वे भाजपा विधायक चुने गए इसके तीन महीने बाद ही वह अभागी बच्ची अपने विधायक जी के पास काम की तलाश में आई और फिर उसने यह शिकायत की कि काम देने की जगह उन्होंने उससे ‘बलात्कार किया’ और इसके बाद ‘मेरे आंसू पोछते हुए भरोसा दिलाया कि वे काम दिलाने में मेरी मदद करेंगे’.
संजय सिंह इतनी बार दल बदल चुके हैं कि मैं उसका पूरा ब्यौरा भरोसे से इसलिए नहीं दे रहा हूं कि कहीं गलती न कर बैठूं. उनका नाम एक बहुचर्चित हत्याकांड से जुड़ा, हालांकि बाद में उन्हें बरी कर दिया गया. यह मामला 28 जुलाई 1988 को तब के राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन सैयद मोदी की ‘सुपारी’ हत्या का था. संजय सिंह इसमें प्रमुख संदिग्ध थे लेकिन सबूतों के अभाव में बरी कर दिए गए थे क्योंकि यूपी पुलिस और सीबीआई उनके खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाई थी.
इसलिए हमें इस नियम को कबूल करना ही पड़ेगा कि जिसे दोषी साबित नहीं किया जा सका वो बेकसूर माना जाएगा. यह देश के इस बड़े प्रदेश के उन मामलों में शुमार हो गया जिनमें हत्या के लिए भाड़े पर रखे गए बंदूकबाजों को तो सज़ा हुई मगर उन्हें भाड़े पर रखने वालों का अता-पता नहीं लगा. एक बंदूकबाज भगवती सिंह को तो सज़ा हुई मगर दूसरा अमर बहादुर मुकदमे के बीच ही मार डाला गया. है न जानी-पहचानी कहानी?
सैयद मोदी की हत्या के बाद संजय सिंह ने उनकी पत्नी, तब अमीता मोदी (कुलकर्णी) से शादी कर ली. उस दौरान सीबीआई जब इस बहुचर्चित हत्याकांड की जांच कर रही थी, वी.पी. सिंह— जो संजय सिंह की पहली पत्नी गरिमा की ओर से उनके ‘अंकल’ माने जाते थे— कांग्रेस से बग़ावत करके प्रधानमंत्री बन गए थे. तो संजय सिंह के लिए भी वक़्त आ गया था कि वे अपने इस ‘अंकल’ के साथ ही कांग्रेस से किनारा कर लें.
इसके एक दशक बाद वे भाजपा में शामिल हो गए और 1998 में कैप्टन सतीश शर्मा को हरा कर अमेठी से भाजपा सांसद बन गए. लेकिन उस लोकसभा का जीवन छोटा ही रहा क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में एक वोट से हार गए. 1999 में उन्होंने भाजपा के टिकट पर अपने दोस्त और संरक्षक राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी के खिलाफ राय बरेली से चुनाव लड़ा. उस चुनाव में सोनिया ने दक्षिण भारत के बेल्लारी से भी एहतियातन पर्चा भर दिया था. उस दौरान मैंने कुछ समय के लिए राय बरेली में रहकर संजय सिंह के चुनाव अभियान को देखा था. उनका नारा मुझे आज भी याद है— ‘संजय सिंह के डर की मारी, सोनिया भाग गई बेल्लारी’. जो भी हो, सोनिया दोनों सीट से चुनाव जीत गई थीं.
हवा बदली तो 2003 में संजय सिंह कांग्रेस में लौट आए. 2009 में वे राय बरेली और अमेठी के बगल के सुलतानपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते. कार्यकाल खत्म होने पर उन्हें लगा कि यूपी में तो पार्टी का सफाया होने वाला है, तो उन्होंने असम से काँग्रेस की ओर से राज्यसभा में नामजद होने की जुगत बैठा ली. अब इसका कार्यकाल खत्म होने वाला है, गांधी परिवार के दिन लद गए हैं, सो उन्होंने भाजपा में फिर से अपने नए ‘अंकल’ ढूंढ लिये हैं.
अब जरा उनकी बात कर लें जिन्हें हमने ‘आधा’ गिना है. अब ये ‘आधे’ कैसे हैं, आप ही तय करें. मूल नाम सच्चिदानंद हरि साक्षी वाले साक्षी महाराज पिछड़े लोध समुदाय के चमकते सितारे हैं (पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह इसी जाति से थे और साक्षी महाराज के संरक्षक थे). साक्षी महाराज 1991 और 1996 में भाजपा टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे. बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में अभियुक्त साक्षी महाराज विचारधारा के मामले में खांटी नज़र आते हैं. लेकिन उनका यह खांटीपन तब खोटा साबित हो गया जब भाजपा ने उन्हें टिकट देने से मना कर दिया.
इसके बाद उन्होंने सपा का दरवाजा खटखटाया, और मुलायम सिंह यादव ने खुशी-खुशी उनका स्वागत किया. साक्षी महाराज ने बयान दिया कि भाजपा की नीतियां गरीब विरोधी हैं. लेकिन आपको पता होगा कि जीतने की क्षमता रखने के बावजूद उन्हें भाजपा ने टिकट क्यों नहीं दिया. दरअसल, उन पर वाजपेयी के करीबी ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या में अभियुक्त बनाया गया था.
मुलायम ने 2000 में उन्हें राज्यसभा में भेज दिया. वक़्त बीतने के साथ हत्या वाला मामला ‘धूमिल’ पड़ गया. लेकिन जल्दी ही वे ‘ऐक्शन’ में आ गए, उन्हें एक कॉलेज के प्रिंसिपल द्वारा गैंगरेप मामले में अपने दो भतीजों के साथ अभियुक्त बना दिया गया. भगवाधारी महाराज करीब एक महीना तिहाड़ जेल में रहे लेकिन सबूत के अभाव में बरी कर दिए गए, जैसे द्विवेदी हत्याकांड में भी कर दिए गए थे. गौर करने वाली बात यह है कि हत्या और बलात्कार के मामलों में सबूत का गायब हो जाना यूपी की जानी-पहचानी कहानी है. वैसे ही, जैसे लोग जीतने वाली पार्टी में अपनी जगह बना लेते हैं, हमेशा.
साक्षी महाराज को 2002 तक लगने लगा कि सपा में उनका कोई खास भविष्य नहीं है. तो वे मुलायम पर जातिवाद से लेकर तानाशाही तक तमाम तरह के आरोप, और आप चाहें तो इनमें पूंजीवादी होने का आरोप भी जोड़ लें, लगाते हुए इससे अलग हो गए. उस समय वे भाजपा के बाग़ी नेता कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी में शामिल हो गए, जो मूलतः लोधों की पार्टी थी.
साक्षी ‘महागाथा’ जारी है. 2009 में सरकार ने उन पर फर्जी एनजीओ बनाकर अवैध रूप से 25 लाख रुपये इकट्ठा करने का आरोप लगा दिया. इस मामले में उनकी शिष्या और उनके महारानी अवन्तीबाई कॉलेज की पूर्व प्रिंसिपल को भी अभियुक्त बनाया गया. 2012 में साक्षी महाराज भाजपा में लौटे, और जल्दी ही वर्मा को उनके आश्रम से लौटते हुए गोली मार दी गई. इस हत्याकांड में साक्षी महाराज और उनके साथियों को अभियुक्त बनाया गया.
साक्षी महाराज तुरंत भूमिगत हो गए. बाद में सरेंडर करके जमानत पर छूट गए. उन्होंने इस मामले में एफआइआर को रद्द करवाने की कोशिश की, जिसे इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 2013 में खारिज कर दिया. इसके अगले साल वे भाजपा के सांसद बन गए. उनका ‘सम्मान’ वापस मिल गया. ऐसे शानदार केरियर वाले शख्स के बारे में अब हम भला यह शिकायत क्यों कर रहे हैं कि वे सेंगर को शुक्रिया कहने के लिए सीतापुर जेल में जा पहुंचे?
अब सवाल यह है कि इन अलग-अलग किस्म के इन तीन प्राणियों में समानता क्या है, और ये भारतीय राजनीति के बारे में हमें क्या नसीहत देते हैं? पहली नसीहत तो यह है कि अब चुनाव जीतने की काबिलियत ही हमारी पार्टियों के लिए एकमात्र नैतिकता है. आपराधिक कृत्यों, बलात्कारों, हत्याओं से कोई फर्क नहीं पड़ता. आखिर, इस तरह के मसलों को हल करने की चुनौती अगर नहीं रही तो फिर आप राजनीति करने की जहमत क्यों उठाएं?
इसलिए, कम-से-कम अपनी हिन्दी पट्टी में, फार्मूला यही है कि अपना स्थानीय वोट बैंक बनाओ. यह जाति की, माफिया की ताकत, और उन दोनों के माकूल मेल पर आधारित हो सकता है. तब आप खुद चुनाव जीतने या दूसरों को जिताने अथवा हराने की ताकत रखने वाली हस्ती बन जाते हैं. तब आप हरेक दल के चहेते बन जाते हैं और हमेशा जीतने वाले दल को चुनने की छूट हासिल कर लेते हैं और अपनी मर्जी से तब तक कुछ भी करते रह सकते हैं— चाहे वह हत्या हो, बलात्कार हो, डकैती हो, फर्जीवाड़ा हो, घोटाला हैं— जब तक कि वेंटिलेटर पर अपनी सांसों के लिए जद्दोजहद करती हुए कोई साहसी बच्ची या उसका पिता या हत्याओं में अपने कई सदस्य गंवा चुका उसका परिवार आपको बरबाद नहीं कर देता.

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