तेजस्वी के फेल होते ही RJD का यू-टर्न, अब लालू के इस पुराने फार्मूले पर फिर चलेगी पार्टी
राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के बेटे व बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने लोकसभा चुनाव के दौरान पिता की तीन दशकों की राजनीतिक लाइन से अलग राह तो पकड़ी, किंतु नाकामयाबी ने उन्हें लौटने के लिए बाध्य कर दिया। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला आरजेडी अब फिर से लालू के फॉर्मूले को ही अपनाने जा रहा है। यानी अब उसे सवर्णों से परहेज-गुरेज नहीं होगा। उन्हें संगठन में भी उचित भागीदारी मिल सकती है और टिकटों का भी सूखा खत्म होगा। मुस्लिम-यादव समीकरण के साथ-साथ अति पिछड़ों और दलितों को भी बराबर की तरजीह मिलेगी।
खुलने वाले हैं आरजेडी के खिड़की-दरवाजे
आरजेडी में फिलहाल संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। रांची से लालू प्रसाद यादव का फरमान पहुंच चुका है। पंचायतों से प्रदेश स्तर तक नए और ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना है। इसी महीने पार्टी के स्थापना दिवस समारोह और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव ने साफ कर दिया था कि संगठन में 60 फीसद भागीदारी अति पिछड़ों, एससी-एसटी और अल्पसंख्यकों की होगी। जाहिर है, यादवों की पार्टी के रूप में पहचान रखने वाले आरजेडी के खिड़की-दरवाजे खुलने वाले हैं।
ऐसे चमकी थी लालू की राजनीति
नब्बे के दशक में लालू प्रसाद ने अपनी राजनीति की जातिवाद से अलग वर्गवाद की छवि बनाई थी। उन्होंने गरीब-अमीर के फासले पर सियासत की फसल लगाई, उगाई और उपजाई थी। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बढ़ रहे प्रभाव को धर्मनिरपेक्षता के नारों की आड़ में थाम कर रखा था। यादव तो लालू के अपने थे ही, अन्य पिछड़ों को भी वह साथ लेकर चले। गरीब सवर्णों के प्रति सहानुभूति का भाव रखा और उन्हें टिकट भी दिया। लिहाजा महज कुछ वर्षों में ही लालू की राजनीति बिहार में चमक गई।
तेजस्वी को लालू की राह पकडऩे की सलाह
रांची जाकर लालू प्रसाद यादव से लगातार मिलते-जुलते रहने वाले आरजेडी के थिंक टैंक ने तेजस्वी को लालू की राह पकडऩे की सलाह दी है। उनका मानना है कि तेजस्वी के पास अब ज्यादा मौके नहीं हैं। आगे अगर एक चुनाव में भी हार मिलती है तो पार्टी को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए आरजेडी के नए नेतृत्व के सामने नए प्रयोग और जोखिम उठाने का वक्त नहीं है। लोकसभा चुनाव की गलतियों को फिर नहीं दोहराना है। मतलब साफ है कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सियासत के जिस रास्ते पर बढ़ते हुए आरजेडी को असफलता का सामना करना पड़ा था, उसपर अब आगे नहीं बढऩा है।
कार्यकर्ताओं के सामने धर्मसंकट
बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव की लंबी होती अनुपस्थिति के भी अर्थ लगाए जा रहे हैं। विरोधी दलों के हमले तो जारी हैं ही, कार्यकर्ता भी असमंजस में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि आगे क्या होने वाला है। प्रखंड स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं के सामने संकट है कि उन्हें दिशानिर्देश नहीं मिल रहा कि वह कैसे हमलावर हों। जनता दल यूनाइटेड (JDU) पर कितना और किस हद तक आक्रमण करें और बीजेपी को किस हद तक छूट दें। दूसरे-तीसरे दर्जे के कई नेताओं को भी रास्ता नजर नहीं आ रहा है।