पारदर्शिता ख़त्म करने का प्रयास तो नहीं आरटीआई में संशोधन?

हमारे देश में आरटीआई क़ानून भी कुछ इसी तरह का रहा है जिसने क़रीब आधी सदी से ज़्यादा का वक़्त लगा दिया एक लोकतांत्रिक देश के लोगों को अपनी सरकार के कामकाज के बारे में जानकारी हासिल करने का अधिकार दिलाने में। लेकिन क्या अब एक बार फिर जनता को उसके इसी अधिकार से दूर रखने के प्रयास किये जा रहे हैं? यह सवाल केंद्र सरकार द्वारा शुक्रवार को लोकसभा में आरटीआई क़ानून को लेकर पास किये गये संशोधन बिल के बाद खड़े होने लगे हैं। 
तमाम सरकारी योजनाओं को काग़ज़ों से ज़मीन पर उतरने का सफर काफ़ी लंबा होता है। बहुत बार तो यह सफर सरकारी फ़ाइलों के ढेर में दबकर, यथार्थ की ज़मीन पर उतरे बिना ही पूरा हो जाता है। अक्सर सरकारें उन फ़ाइलों और काग़ज़ी कार्रवाई के दम पर बड़े-बड़े दावे करने और ख़ुद को शाबाशी देने से नहीं चूकती। लेकिन आम इंसान के लिए यह पता लगाना लगभग असंभव हो जाता है कि जिन योजनाओं में सरकारें करोड़ों रुपये लगा चुकी हैं आख़िर वे उन तक पहुँची क्यों नहीं? आख़िर वह पैसा कहाँ गया? आरटीआई क़ानून ने ऐसे सभी सवालों और अपने निजी-सरकारी कामों से जुड़े जवाब भी सरकार से माँगने का हक़ आम जनता को दिया। 
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12 अक्तूबर 2005 को देश में ‘सूचना का अधिकार’ यानी आरटीआई क़ानून लागू हुआ। एक अनुमान के मुताबिक़ इस क़ानून के तहत नागरिक हर साल 60 से 70 लाख से अधिक आवेदन देते हैं। लेकिन मोदी सरकार ने शुक्रवार को लोकसभा में सूचना अधिकार संशोधन बिल पास करा लिया जिसमें मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल से लेकर उनके वेतन और सेवा शर्तें निर्धारित करने का फ़ैसला केंद्र सरकार ने अपने हाथ में रखा है। इस संशोधन का विरोध करने वालों का मानना है कि सरकार नहीं चाहती कि वह लोगों के प्रति जवाबदेह हो। सरकार लोगों को सूचना नहीं देना चाह रही है और इसलिए इस क़ानून को कमज़ोर करने के लिए सरकार इसमें बदलाव करना चाहती है। अगर यह सच है तो पारदर्शी कारोबार करने का नारा देकर सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ने वाली मोदी सरकार जनता से क्या छिपाना चाहती है? मनमोहन सिंह और कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट बोलने वाले नरेन्द्र मोदी इस क़ानून में बदलाव लाकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? 
पारदर्शिता से सरकार को ख़तरा!
आरटीआई क़ानून के इस्तेमाल से नागरिकों को जानकारी के आधार पर फ़ैसले करने का मौक़ा मिला। लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हुईं। यही नहीं, सत्ता की निरंकुशता पर भी कुछ हद तक रोक लगी थी। हमारी व्यवस्था को पारदर्शिता से कितना ख़तरा है, यह इसी बात से साबित होता है कि देश में आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है। हमारे देश में सरकारी कामकाज का आकलन करना है तो आरटीआई के पहले और आरटीआई के बाद ऐसे दो चरणों में अध्ययन करना होगा। 
आरटीआई को लेकर पहला संघर्ष राजस्थान में अरुणा रॉय ने अपने संगठन ‘मज़दूर किसान शक्ति संगठन’ (एमकेएसएस) के माध्यम से ब्यावर के किसानों और मज़दूरों को साथ लेकर शुरू किया था। सबसे पहले सड़क पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा माँगा। अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाओं और ग़ायब हो रहे राशन के बारे में भी जवाब माँगा। ‘हमारा पैसा, हमारा हिसाब’ और ‘हम जानेंगे, हम जिएँगे’ जैसे नारे लोकप्रिय हुए। लेकिन अब उसी क़ानून को पंगु बनाने की कोशिश हो रही है तो क्या सिविल सोसाइटी और मानव अधिकार संस्थाएँ या सामाजिक संगठन फिर से लामबंद होकर सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ या संघर्ष बुलंद करेंगे या बड़े बहुमत की सरकार के दबाव में इस क़ानून को किश्तों में मरते देखेंगे। 
लोकसभा में विपक्षी दल की शक्ति इतनी भी नहीं है कि वह विरोधी पक्ष के नेता की कुर्सी पर आसीन हो सके। लिहाज़ा वहाँ वही होगा जो सरकार चाहती है। ऐसे में देश भर में इस क़ानून को लेकर अलख जगाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की है जिसने इसे बनाने के लिए संघर्ष किया है और जो आज इसके माध्यम से शासन और सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं।

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