क्या RJD के साये से बाहर निकल पाएगी कांग्रेस ? पढ़ें सियासी समीकरण

राष्ट्रीय जनता दल ने 2020 विधानसभा चुनाव के लिए तेजस्वी यादव को अपना सीएम कैंडिडेट चुन लिया है और इस बात की आधिकारिक घोषणा भी बीते 6 जुलाई को ही कर दी है. हालांकि महागठबंधन की बड़ी सहयोगी कांग्रेस के नेताओं ने दो टूक शब्दों में कहा कि यह RJD की राय है कांग्रेस की नहीं. जाहिर है कांग्रेस ने यह कहकर साफ जता दिया कि आने वाले समय में कांग्रेस की राह महागठबंधन से अलग भी हो सकती है.

इससे पहले भी कांग्रेस के कई नेता कह चुके हैं कि पार्टी को बैशाखी छोड़ अपने बूते बिहार में खड़ा होना चाहिए. सवाल ये है कि आखिर बिहार में कांग्रेस क्या अकेले चुनाव लड़ने और संघर्ष करने को वास्तव में तैयार है?

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद बिहार में महागठबंधन के विभिन्न दलों ने 29 मई को समीक्षा बैठक की. पूर्व सीएम राबड़ी देवी के आवास पर हुई इस बैठक में महागठबंधन के घटक दलों के कई बड़े नेता इसमें शामिल हुए, लेकिन इसमें कांग्रेस पार्टी की ओर से कोई प्रतिनिधि नहीं पहुंचा था.
2019 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी के साथ के बावजूद पूरे महागठबंधन की करारी शिकस्त हुई. हालांकि कांग्रेस महज किशनगंज की सीट जरूर जीत पाई, लेकिन ओवरऑल काफी नुकसान उठाना पड़ा. (मई 2019 को पटना के बिक्रम में तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और तेजप्रताप यादव ने मंच साझा किया)

जाहिर है कांग्रेस ने तब से ही यह संकेत देना शुरू कर दिया है कि अब वह आरजेडी की बैशाखी पर नहीं चलना चाह रही है.दरअसल, तमाम तरह के समझौते करने के बाद भी बिहार में कांग्रेस आगे नहीं आ पा रही है. इस बार कांग्रेस बमुश्किल किशनगंज की ही सीट जीत पाई है. जाहिर है इसको लेकर मायूसी है.

23 मई को लोकसभा चुनाव नतीजे आने के तत्काल बाद 24 मई को बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सदानंद सिंह ने कहा था कि कांग्रेस बैसाखी के बदौलत खड़ी नहीं हो सकती, बल्कि अकेले रहकर ही मजबूत हो सकती है. पार्टी को बैसाखी से उबरना होगा. कांग्रेस के अंदर भी सर्जरी की जरूरत है.

बिहार में 1990 का दशक पिछड़ी जातियों के उभार की अवधि थी. इसी दौरान लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे नेताओं की राजनीतिक कद को नया आकार मिला. इस बदलाव के दौर से पहले तक बिहार की सत्ता में कांग्रेस का ही वर्चस्व था, लेकिन बदलते वक्त को पहचानने में कांग्रेस चूक गई.

गौरतलब है कि स्वतंत्रता के पश्चात पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने संयुक्त बिहार (बिहार-झारखंड तब एक थे) की 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी.

बिहार विभाजन के बाद वर्ष 2010 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कीं. साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती.

दरअसल, वर्ष 1989 में भागलपुर दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय छिटक गया. वहीं, हिंदुओं में भी कांग्रेस की नीतियों को लेकर नाराजगी रही. ऐसे में दोतरफा घिरी कांग्रेस की पैठ बिहार की राजनीति में कम होती चली गई.

साल 1990 के दशक में जब मंडल राजनीति ने जोर पकड़ा तो कांग्रेस ऊहापोह में रही. न तो वह सवर्णों का खुलकर साथ दे पाई और न ही पिछड़े और दलित समुदाय को साध पाई. जाहिर तौर पर कांग्रेस का वोट बैंक छिटका तो आरजेडी को इसका सीधा फायदा हुआ.

यहीं से लालू यादव के 'MY' (मुस्लिम-यादव) समीकरण ने जन्म लिया और बिहार की राजनीति में आरजेडी ने अपना खूंटा गाड़ दिया. यह खूंटा ऐसा गड़ा कि 2005 तक कोई उसे हिला तक नहीं पाया. इस बीच 1995 के चुनावों में कांग्रेस मात्र 29 सीटों पर सिमट गई.

बीजेपी इन चुनावों में 41 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफल हुई. इसके बाद साल 2000 में लालू यादव ने कांग्रेस के 23 विधायकों को राबड़ी देवी कैबिनेट में शामिल किया. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह को विधानसभा का अध्‍यक्ष भी बनाया गया.

आरजेडी से नजदीकियों ने कांग्रेस का इतना बड़ा नुकसान कर दिया, जिसका अनुमान शायद कांग्रेस नेताओं को भी नहीं था. कांग्रेस को बिहार की राजनीति में की हुईं गलतियों से सबक न लेने का परिणाम वर्ष 2005 के चुनावों में मिल गया. इन चुनावों में कांग्रेस के हाथ मात्र 5 सीटें आईं.

आरजेडी और कांग्रेस नेताओं की नजदीकियों से जनमानस में छवि बनी कि दोनों दल एक ही हैं. इतना ही नहीं कांग्रेस के पास लालू यादव जैसा कोई कद्दावर नेता भी नहीं था जो बिहार की राजनीति की जटिलताओं को समझ पाए. ऐसे में कांग्रेस बिहार की राजनीति में लगातार 'बैक फुट' पर जाती चली गई.

हालांकि इतना कुछ होने के बाद भी कांग्रेस अपने बूते खड़ी होगी या नहीं यह भविष्य के गर्भ में ही है. इस बीत कांग्रेस के आरजेडी छोड़ जेडीयू के साथ आने की भी खबरें सामने आती रहती हैं.
क्या आरजेडी का साथ छोड़ बिहार मे कांग्रेस, जेडीयू के साथ आएगी? इसको लेकर कई तरह की चर्चाएं उठती रहती हैं. 
नीतीश कुमार भी कभी कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाने की कवायद कर चुके हैं, लेकिन तब कांग्रेस ने उन्हें भाव न देते हुए लालू प्रसाद की आरजेडी को तरजीह दी थी. हालांकि ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस का आरजेडी से मोहभंग हो गया है.

बहरहाल बदले सियासी हालात में अगर कांग्रेस-जेडीयू गठजोड़ बनता है तो हो सकता है कि आने वाले समय में बिहार की राजनीति में एक नया समीकरण देखने को मिले. लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस आरजेडी के साये से निकलने को तैयार है?

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