'नेता मुक्त' कैसे हो गई 70 साल राज करने वाली कांग्रेस

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह देश की राजनीति के सबसे कद्दावर खिलाड़ी हैं. उन्होंने बीजेपी की विशाल सियासी मशीनरी और अथाह दौलत की बदौलत विपक्ष को राजनीति के खेल से ही बाहर कर दिया है. इस बात के दो डरावने संकेत साफ़ दिख रहे हैं. पहला इशारा तो कोमा में पड़ी कांग्रेस का हाल देखकर मिलता है.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद ख़राब प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया. क्योंकि उनकी अगुवाई में कांग्रेस पार्टी लगातार दूसरा आम चुनाव हार गई. राहुल के इस्तीफ़े के 40 दिन बाद भी कांग्रेस में जुम्बिश नहीं हो रही है. और देश में विपक्ष की राजनीति के ख़ात्मे का दूसरा संकेत कर्नाटक से आया.
ज़रा सोचिए, विधायकों को लाने-ले जाने के लिए चार्टर्ड विमान इस तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जैसे वो ऑटो रिक्शा हों. हाल ये है कि परिवार के साथ छुट्टी मनाने अमरीका गए कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी भी चार्टर्ड फ्लाइट से ही स्वदेश लौटे. ऐसा लग रहा है कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार जल्द ही इतिहास बनने वाली है. वहीं, मध्य प्रदेश की मामूली बहुमत वाली कमलनाथ सरकार भी मुश्किल से ही बची हुई है.
यूं तो कमलनाथ हमारे देश की राजनीति के माहिर खिलाड़ियों में से एक हैं. फिर भी उन्हें अपनी मामूली बहुमत वाली सरकार बचाने में मशक़्क़त करनी पड़ रही है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बहुमत का अंतर कम है और वहां भी इस तरह की स्थितियां पैदा हो सकती हैं.
राज्यों में बीजेपी की तूती
आज देश की राजनीति में बीजेपी का यही आत्मविश्वास हावी है. ज़रा बिहार में विपक्ष के हालात पर ग़ौर कीजिए. लोकसभा चुनाव में प्रमुख विपक्षी दल आरजेडी, अपने युवा नेता तेजस्वी यादव की अगुवाई में एक भी सीट नहीं जीत सका.
इस ऐतिहासिक हार के बाद लापता हुए तेजस्वी यादव अभी हाल ही में प्रकट हुए हैं. लालू प्रसाद यादव की नाटकीय राजनीति का अंत निकट है. क्योंकि ख़ुद लालू यादव जेल में हैं और बीजेपी पूरे राज्य की राजनीति पर हावी होती जा रही है.
आज की तारीख़ में बीजेपी, नीतीश कुमार की सरकार में भी वरिष्ठ सहयोगी दल बन चुकी है. बीजेपी ने कई बार नीतीश को उनकी औक़ात दिखाई है. एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही मोदी और शाह की जोड़ी ने जदयू को केवल एक मंत्रिपद का प्रस्ताव दिया था. वहीं, उत्तर प्रदेश में ताक़तवर क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन दूसरी बार टूट गया.
लोकसभा चुनाव के लिए हुआ दोनों दलों का 'ऐतिहासिक गठबंधन' बीजेपी को 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में रोक नहीं सका. अभी ऐसा लग रहा है कि बीजेपी का उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो दबदबा है, वो लंबे समय तक क़ायम रहने जा रहा है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती, बीजेपी के साथ तालमेल के लिए तैयार हैं. वहीं, अखिलेश यादव अपनी हार और गठबंधन टूटने के ज़ख़्म ही सहला रहे हैं.
मंडल के दौर की राजनीति में अहम रही समाजवादी पार्टी और बीएसपी का असर अब बहुत सीमित रह गया है. कभी अन्य पिछड़े वर्ग की नुमाइंदगी करने वाली इन पार्टियों में से समाजवादी पार्टी अब केवल यादवों की पार्टी रह गई है. तो, बीएसपी का कोर वोट बैंक अब केवल जाटव (मायावती की अपनी जाति) बचे हैं.
अगले तीन महीनों में तीन अहम राज्यों, महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. कांग्रेस इन राज्यों में बीजेपी से मुक़ाबले की हालत में भी नहीं है. क्योंकि राहुल गांधी के इस्तीफ़े के बाद पार्टी के भीतर अंतर्कलह और बढ़ गई है. पुरानी पीढ़ी और युवा नेताओं जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा और सचिन पायलट के बीच जंग अब खुलकर सामने आ गई है. हो सकता है कि कांग्रेस में फूट ही पड़ जाए.
पश्चिमी यूपी में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस्तीफ़ा दे दिया. वहीं, मिलिंद देवड़ा ने मुंबई में हार पर इस्तीफ़ा दे दिया. दोनों ही नेता राहुल गांधी के समर्थन में खड़े दिखाई देते हैं. इन नेताओं के निशाने पर असल में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत हैं. गहलोत तो अपने राज्य राजस्थान में पार्टी को 25 में से एक भी सीट नहीं जिता सके. कमलनाथ भी सिर्फ़ अपने बेटे को जिता पाए.
सियासी पावरप्ले
वर्तमान में पूरा गांधी परिवार सक्रिय राजनीति में है. हालांकि अभी वो देश से बाहर हैं. वहीं, कांग्रेस के दूसरे नेता आपस में लड़ रहे हैं. अगर कांग्रेस गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष चुनती है, तो भी पार्टी की असली बागडोर गांधी परिवार के ही हाथ में रहेगी. यही वजह है कि कोई नेता कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनना चाहता. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राहुल गांधी की जगह किसी, 'युवा और तेज़-तर्रार' नेता को अध्यक्ष बनाने की वकालत करके पार्टी के भीतर सियासी पावरप्ले को खुले में लाकर रख दिया है.
कांग्रेस वर्किंग कमेटी में पुरानी पीढ़ी के नेताओं का दबदबा है. वो सभी अमरिंदर सिंह से ख़फ़ा हैं क्योंकि वो यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे. प्रियंका गांधी, राहुल गांधी के इस्तीफ़े के सख़्त ख़िलाफ़ थीं. अगर वो भी पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव पद से इस्तीफ़ा दे देती हैं, तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्यों का बने रहना मुश्किल हो जाएगा.
महत्वाकांक्षी नेता सचिन पायलट ने राजस्थान में पार्टी को सत्ता में वापस लाने के लिए पांच साल तक कड़ी मेहनत की थी. उन्होंने खुलकर इशारे किए हैं कि वो मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. क्योंकि, पायलट का मानना है कि ये पद उनसे छीनकर अशोक गहलोत को दे दिया गया था.
राजस्थान के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता कहते हैं कि, "अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालना चाहिए. वो लोकप्रिय दलित नेता हैं." अशोक गहलोत कांग्रेस की सांप-सीढ़ी वाली इस सियासत के पुराने खिलाड़ी हैं. वो पद छोड़ने को राज़ी नहीं हैं. अशोक गहलोत ने तो सार्वजनिक रूप से कहा था कि, "राहुल गांधी के इस्तीफ़े ने कांग्रेस में सभी कांग्रेसियों को प्रेरित किया है." लेकिन, वो ख़ुद इस्तीफ़ा देने को प्रेरित नहीं हुए.
फूट पड़ने की आशंका
राहुल गांधी चाहते थे कि उनके साथ कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी नेता इस्तीफ़ा दे दें. लेकिन, किसी ने ऐसा नहीं किया. इस बात से वो बेहद ख़फ़ा हैं. इससे राहुल गांधी को अंदाज़ा हो गया कि जिस कामराज-2 प्लान को उन्होंने तैयार किया था, वो नाकाम हो गया है. और इसके पीछे कांग्रेस के वो वरिष्ठ नेता हैं, जो बिना किसी जवाबदेही के पद चाहते हैं.
ऐसे में कांग्रेस में फूट पड़ने की आशंका साफ़ तौर से दिख रही है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद शायद ऐसा हो भी जाए. नेतृत्वविहीन कांग्रेस भीतर ही भीतर बिखर रही है. कोई ये नहीं जानता कि कांग्रेस के सिद्धांत क्या हैं. वो किन विचारों की नुमाइंदगी करती है.
सब को बस ये पता है कि गांधी परिवार की पार्टी है. कांग्रेस में नई जान फूंकने की बात तो छोड़िए, अभी तो हालत ये है कि कांग्रेस को बचाना ही मुश्किल दिख रहा है. हो सकता है कि मौजूदा हालात में देश की सबसे पुरानी पार्टी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए.
और, जहां मोदी और शाह ने बीजेपी में वंशवाद के वृक्ष को पनपने दिया है. वहीं, उन्होंने गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी को अहंकारी, जनता से दूर और सत्ता के लिए बेक़रार साबित कर दिया है. स्थिति ये है कि पूरा का पूरा विपक्ष निस्तेज है. ऐसे में आज देश को एक ऐसे विपक्ष की सख़्त ज़रूरत है, जो बेहद ताक़तवर हो चुकी बीजेपी का मुक़ाबला कर सके. कोई भी असली लोकतंत्र बिना सक्षम विपक्ष के क़ामयाब नहीं हो सकता.

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