क्या पीएम की सख़्त टिप्पणी के बाद संभलेंगे बीजेपी नेता?

अच्छा लगा जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकारी अफ़सरों पर सरेआम “पहले आवेदन, फिर निवेदन और फिर दे दनादन” रणनीति के तहत “बैटिंग” करने वाले युवा बीजेपी विधायक के ख़िलाफ़ भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक में सख़्त क़दम उठाने की बात कही। इससे सत्ता के नशे में चूर तमाम विधायक और सांसदों को एक सख़्त सन्देश गया है, ठीक वैसे ही जैसे साध्वी व भोपाल की सांसद को गया था। 
घटना के दिन अपनी प्रतिक्रिया में इस युवा विधायक ने बताया कि उसने “सड़क पर न्याय” की नयी पद्धति क्यों अपनाई। दरअसल, वह पहली बार विधायक बना यानी क़ानून बनाने की ताक़त मिली। लेकिन यह ताक़त तो संस्थागत है और तमाम जटिलताओं से और लम्बे काल से गुजर कर मुकम्मल होती है। तो क्या यह उचित नहीं था कि संस्थागत शक्ति के अमल की रफ़्तार बढ़ा कर विधानसभा जाने की जगह सीधे सड़क पर ही क़ानून बनाया जाये और जो उसका पालन न करे उसे वहीं सजा दे दी जाये? 
“न्याय में देरी यानी न्याय से इनकार” की प्रचलित अवधारणा भारत में हर तीसरे दिन चर्चा में रहती है। तो अगर कोई क़ानून बनाने वाला इस जटिल प्रक्रिया - पहले क़ानून बनाओ, फिर प्रूफ़ के साथ देखो कि उल्लंघन हुआ कि नहीं, फिर उसे दशकों लम्बी और स्तर-दर-स्तर न्यायिक मकड़जाल की भट्टी में तपाओ की जगह सीधे नव-प्रतिपादित “दनादन सिद्धांत” के तहत “बैटिंग” के जरिये हासिल करता है तो क्या हम विश्लेषकों को इस पर गंभीरता से सोचना नहीं चाहिए? क्या ऐसी प्रक्रिया देश भर में नहीं तो जहाँ पार्टी शासन में है वहाँ प्रयोग में नहीं लानी चाहिए?
विपक्ष और ख़ासकर कांग्रेस इस युवा बीजेपी विधायक की अवधारणा को समझ गयी। लिहाज़ा, ऐसे ही एक पूर्व मुख्यमंत्री के होनहार पुत्र विधायक ने एक इंजीनियर पर कीचड़ भरी बाल्टी फिंकवाई और बताया कि आगे भी अगर सड़क ठीक नहीं बनी तो यही किया जाएगा। शायद उनका भाव ग़रीब भारत में “बैट” न्याय में लगने वाला बिला वजह ख़र्च बचाने का था और कीचड़ वैसे भी अपने देश में काफी फ़ैल चुका है। इसका दूसरा लाभ भी प्रधानमंत्री भूल गए।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमाना है। 15 मिनट में यह क्रांतिकारी अवधारणा और इसका प्रायोगिक स्वरुप “दनादन बैटिंग” के फ़ॉर्मेट में पूरे हिंदुस्तान में हीं नहीं अखिल विश्व में लोगों ने देखा। भारत अपने समुन्नत प्रजातंत्र और संस्कृति के लिए जाना जाता है। लिहाज़ा प्रजातंत्र के इस नए फ़ॉर्मेट पर दुनिया के राजनीति-शास्त्र के लोग अभी इस बात का विश्लेषण करेंगे कि कैसे जिस भारत ने दुनिया को अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिती, खगोल-शास्त्र जैसी विद्याएँ, संस्कृत भाषा और गीता जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थ ही नहीं दिए, प्रजातंत्र की “वज्जियन संघ” से भी 2500 साल पहले नवाजा, वही एक बार फिर प्रजातंत्र की एक नयी अवधारणा दुनिया को दे रहा है - “दे दनादन” प्रजातंत्र।
इससे प्रजातंत्र तो पुख़्ता होगा ही, भ्रष्टाचार का दानव भी हमेशा के लिए एक कोने में स्थित हो जाएगा और वही इसको अमल में ला सकेगा जो दल का हो, अपनी विचारधारा का हो या जिसे चुने हुए प्रतिनिधि या विचारधारा के अलमबरदार अनुमति दें (पश्चिम बंगाल में दशकों से मार्क्सवादियों ने और अब ममता से इसका प्रयोग “बख़ूबी” किया है)। 

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