सियासत से दूर रहने की सौगंध खाने के बाद भी बने PM! पढ़ें नरसिम्हाराव पर क्यों उठी कांग्रेस से माफी की मांग

ये पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरूआत थी. अपनी मां इंदिरा की नृशंस हत्या के बाद अचानक ही राजीव गांधी को सत्ता संभालनी पड़ी थी. कुछ अनुभवहीनता और कुछ मित्रों की गलत सलाह.. दोनों ने मिलकर ऐसा घातक कॉकटेल तैयार किया कि कांग्रेस अगले चुनाव में टिक नहीं सकी और अपने ही खास वीपी सिंह के हाथों सत्ता से बाहर हो गए.
वीपी की किस्मत इतनी भी बुलंद नहीं थी कि लंबे वक्त तक राज करते. बीजेपी के समर्थन से वो 1989 में भले ही प्रधानमंत्री बन गए लेकिन आडवाणी का रथ उनके सहयोगी लालू ने ज्यों ही बिहार में रोका केंद्र में वीपी को बीजेपी ने गिरा दिया. मौका भांप राजीव गांधी ने वीपी सिंह के बागी चंद्रशेखर को समर्थन देकर पीएम की कुर्सी पर चढ़ा दिया और फिर वही किया जो कांग्रेस पहले भी करती रही थी. 7 महीने बाद ही चंद्रेशखर पूर्व प्रधानमंत्री हो गए और देश आम चुनाव की तरफ बढ़ चला.
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राजीव की हत्या और कांग्रेस में मची नेता बनने की होड़
अब राजीव गांधी दसवीं लोकसभा में दूसरा कार्यकाल हासिल करने की ओर बढ़ रहे थे. कांग्रेस ज़ोरशोर से चुनाव प्रचार में जुटी थी. कोई नहीं जानता था कि चुनावी नतीजे आने तक राजीव ज़िंदा नहीं बचेंगे, ना ही किसी को इल्म था कि कांग्रेस की इस जीत के बाद पीएम पद का सेहरा एक गैर गांधी नेता के सिर बंधनेवाला है. पी वी नरसिम्हाराव ना सिर्फ गैर गांधी थे बल्कि ऐसे नेता थे जो राजनीति से संन्यास लेकर हैदराबाद कूच करने जा रहे थे.
21 मई 1991 को चुनाव के बीच तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में लिट्टे ने युवा और खूबसूरत राजीव गांधी को आत्मघाती हमला करके शहीद कर दिया. 3 चरणों में संपन्न होनेवाले लोकसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग एक ही दिन पहले 20 मई को संपन्न हुई थी. अगले दोनों चरणों पर राजीव गांधी की हत्या का साया पड़ा रहा. दोनों चरण स्थगित करके 12 जून और 15 जून को संपन्न कराए गए. स्वाभाविक ही था कि कांग्रेस को सहानुभूति वोट जमकर मिलते. वो मिले और पिछड़ती कांग्रेस ने अचानक कुलांचे भरकर 232 सीटें हासिल कर लीं, लेकिन फिर भी बहुमत से दूर रह गई. ये नहीं भूलना चाहिए कि राजीव की हत्या के साथ ही चुनाव पर मंडल कमीशन और रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद भी अपना प्रभाव कायम किए हुए थे जिसने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया.
बहरहाल, चुनावी नतीजे आने से पहले ही कांग्रेस में नेतृत्व की जंग छिड़ गई. सोनिया गांधी को मनाया गया पर वो इसके लिए किसी भी कीमत पर राजी नहीं हुईं. सोनिया के इनकार के बाद कांग्रेस में नेता की खोज शुरू हुई. फेहरिस्त लंबी थी और चयन मुश्किल. नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए तो कई नेताओं की महत्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगीं. शरद पवार, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी ने खेमेबंदियां शुरू कीं.
शंकर दयाल शर्मा मान जाते तो राव ना बन पाते पीएम
पति की मौत और अचानक सिर पर पड़ी ज़िम्मेदारी के बीच सोनिया गांधी बेहद असहाय दिख रही थीं. तब तक पार्टी के कद्दावर नेता भी उन्हें बतौर अगुवा स्वीकार नहीं कर पाए थे. बतौर कुंवर नटवर सिंह के सोनिया ने राजीव गांधी के अंतिम संस्कार के अगले दिन उन्हें बुलाकर पीएम पद पर सलाह मांगी. नटवर ने उन्हें इंदिरा के प्रमुख सचिव रहे पीएन हक्सर से बात करने को कहा.किताब हाफ लॉयन में ज़िक्र है हक्सर ने सोनिया को नरसिम्हा राव का नाम सुझाया.
दूसरी ओर राव उसी साल घर लौटने का कार्यक्रम बना चुके थे और राजीव गांधी से इसकी इजाजत भी ले ली थी. हालत ये थी कि वो लोकसभा चुनाव लड़े तक नहीं थे. किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि अब राव राजनीति में लौटेंगे मगर बीबीसी के एक फोन कॉल पर जैसे ही उन्होंने ज़िम्मेदारी लेने की तैयारी दिखाई हलचल मच गई.
बात सिर्फ प्रधानमंत्री पद की नहीं थी. सवाल कांग्रेस अध्यक्ष के पद का भी था. अधिकांश मौकों पर कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बना था लेकिन ये पहला मौका था जब गांधी परिवार नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं था.सोनिया गांधी ने नटवर सिंह और आसफ अली को डॉ शंकर दयाल शर्मा के पास भेजा. विचार था कि शर्मा के हाथ पार्टी और देश की बागडोर सौंप दी जाए. तब शर्मा देश के उप राष्ट्रपति थे. उनकी उम्र 72 साल थी. शर्मा ने पद स्वीकारने से इनकार कर दिया और कहा कि मेरी उम्र और सेहत इसकी इजाजत नहीं देते.
शर्मा के इनकार ने ही राव की किस्मत का ताला खोल दिया. हक्सर का सुझाव और राजीव के खास दोस्त सतीश शर्मा की पुष्टि ने राव का वो दावा मज़बूत कर दिया जिसे असल में किया भी नहीं गया था.
जिन राव को सोनिया ने चुना वही बन गए ज़बरदस्त विरोधी
29 मई को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने नरसिम्हा राव को अध्यक्ष चुन लिया. अब तक चुनावी नतीजे आए नहीं थे. शरद पवार जैसे नेता अपने पत्ते छिपाए बैठे थे. 18 जून को नतीजे आए तो मालूम पड़ा कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी तो बन गई लेकिन बहुमत से दूर है. कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति चरम पर पहुंच गई. दो दिन में ही पवार ने दावा वापस ले लिया और अर्जुन सिंह ने राव के नाम का प्रस्ताव रखा. 20 जून को नरसिम्हाराव संसदीय दल के नेता चुन लिए गए. अगले दिन 70 साल के राव दक्षिण भारत से आए पहले भारतीय प्रधानमंत्री बन गए. लेफ्ट के समर्थन से उन्होंने 16 मई 1996 तक पूरे पांच साल सरकार चलाई.
शरद पवार उनकी सरकार में रक्षामंत्री बने. अर्जुन सिंह को मानव संसाधन विकास मंत्रालय मिला. सबसे हैरतभरा फैसला उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर किया. नब्बे के दशक में भारत जैसे आर्थिक संकट में फंसा था उसमें हैरतअंगेज़ फैसले ही ज़रूरी थे. राव को कभी इस फैसले पर पछताना नहीं पड़ा और 1996 में जब उन्होंने विदा ली तब देश तुलनात्मक रूप से सुरक्षित स्थिति में था. हालांकि सफलताओं के बीच उन्होंने बाबरी विध्वंस जैसी असफलता भी झेली जिसके लिए उन्हें अपने ही दल के कई नेताओं से कभी माफी नहीं मिल सकी. अपनी मौत तक वो इस आक्रोश में जिए कि जो गलती उन्होंने नहीं की थी उसके लिए वो कुसूरवार क्यों ठहराए गए. हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों की राय इस पर बंटी हुई है.
नीतियों को छोड़ दें तो अपनी पार्टी से भी उनकी खास बनी नहीं. राव ने पद संभाला तो उनके विरोधी सक्रिय हो उठे. धीरे-धीरे सोनिया गांधी और राव के फासले बढ़ गए. एक-दूसरे की उपेक्षा करने की खबरें आम हो चलीं. दरअसल अर्जुन सिंह को आश्वासन मिला था कि राव बाद में कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ देंगे लेकिन पीएम बनने के बाद वो अपनी स्थिति कमज़ोर नहीं होने देना चाहते थे. उन्हें संशय थे कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर जो भी बैठेगा वो उनके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करेगा.
यहीं से राव ने ज़िद पकड़ी कि वो दोनों पदों पर बने रहेंगे. 10 भारतीय और 6 विदेशी भाषा समझनेवाले राव कांग्रेस में चल रही सियासत को बखूबी समझते थे लेकिन उन्होंने काफी देर हो जाने के बाद सोनिया गांधी की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया.
सत्ता जाने पर जो टकराव शांत हुआ राव की मौत पर फिर उभरा
23 दिसंबर 2004 को 14 दिन पहले हार्ट अटैक के बाद दिल्ली के एम्स में राव का निधन हो गया. वो लगातार बीमार चल रहे थे. कई तरह की सर्जरी से गुज़रकर उनका शरीर निढाल हो चुका था लेकिन अंतिम सांस लेने से पहले उनकी मुलाकातें अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से हुईं जिन्होंने तब भी मीडिया में चर्चा बटोरी और आज भी कांग्रेसियों की राजनीतिक जीवनी में वो अपनी जगह बनाती हैं.
24 नवंबर 2004 को राव की हालत ज़्यादा बिगड़ गई. उनकी पेशाब की नली में इंफेक्शन हो गया था. विनय सत्पथी अपनी किताब में बताते हैं कि डॉक्टरों ने उन्हें हेवी डोज़ दी जिसने सीधा राव के दिमाग पर असर किया.  वो चिड़चिड़े हो गए. अक्सर उन्होंने शब्दों को सोच समझकर खर्च किया था. कम बोलना या ना बोलना उनकी पहचान थी. बातों को टालकर आगे बढ़ जाना तो उनकी रणनीति का हिस्सा ही माना जाने लगा था, लेकिन जीवन के आखिरी पलों में राव बोल रहे थे. शायद दिमाग से नहीं बल्कि दिल से बोल रहे थे.

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