नीतीश की खामोशी बिहार की मौजूदा राजनीति पर आधिकारिक बयान है

बिहार में चमकी बुखार बेकाबू हो गया है. बच्चों की मौत का सिलसिला जारी है. बुखार और मौत की वजह में मुजफ्फरपुर की लीची बतायी जा रही है. वही लीची जिसकी मिठास अमृतमय आनंद की अनुभूति देती रही - अचानक एक झटके में जहरीली हो गयी है.
संसद में भी बहस तो हो रही है लेकिन बुखार पर कम और लीची पर ज्यादा. लीची के खिलाफ साजिश बतायी जा रही है. बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूडी को तो इसमें चीन तक की साजिश की बू नजर आ रही है. हालांकि, डिस्क्लेमर वाले अंदाज में लगे हाथ वो कह भी देते हैं कि चीन पर आरोप नहीं लगा रहे हैं. फिर भी लीची के खिलाफ साजिश का सच जानना जरूर चाहते हैं. कुछ कुछ वैसे ही तो नहीं जैसे एक जमाने में हर घटना के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ हुआ करता था - और हाल तक ऐसी बातों का मुंहतोड़ जवाब कड़ी निंदा हुआ करती रही.
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बच्चों की मौत पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चुप हैं. बच्चों की मौत से बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव भी बेखबर होंगे क्योंकि तीन हफ्ते से तो उनकी ही कोई खबर नहीं है. बच्चों की मौत पर आम चुनाव में बिहार के सबसे चर्चित चेहरे कन्हैया कुमार चुप हैं. बच्चों की मौत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चुप हैं. अपवाद कुदरत का एक अभिलाक्षणिक गुण माना जाता है, क्रिकेटर शिखर धवन पर मोदी के ट्वीट को भी उसी उसी कैटेगरी में रख कर देखा जा सकता है. वैसे भी इससे ज्यादा किया भी क्या जा सकता है.
मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से बच्चों की मौत पर नीतीश कुमार की चुप तो हैं - लेकिन उनकी चुप्पी में गुस्सा भरा है. राज्य सभा के लिए एलजेपी नेता रामविलास पासवान का नामांकन नीतीश कुमार के अंदर भरे गुस्से के विस्फोट का चश्मदीद बना - ये बात अलग है कि निशाने पर मीडिया रहा. बिलकुल वही मीडिया, जिसके अस्पताल के आईसीयू में पहुंच जाने से नीतीश कुमार सबसे ज्यादा परेशान हैं. नीतीश कुमार ने मीडिया पर जो भड़ास निकाली है, वो असल में झूठी है - कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना है. दरअसल, नीतीश कुमार की खीझभरी चुप्पी ही बिहार के मौजूदा राजनीतिक हालात पर आधिकारिक बयान है, जिसे थोड़ा धैर्य और गंभीरता के साथ समझने की जरूरत है.
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नीतीश कुमार की कोशिश मीडिया पर फुल कंट्रोल की होती है - ये बातें पटना की गलियों में मानते तो सभी हैं लेकिन खुल कर चर्चा भी नहीं करते. वही मीडिया आउट ऑफ कंट्रोल क्यों हो गया? नीतीश कुमार के लिए समझना मुश्लिक हो रहा है. दरअसल, वो पटना से बाहर का मीडिया है. ये जरूर समझ आ रहा होगा.
नीतीश कुमार ने बच्चों की मौत के सवाल पर जिस तरह रिएक्ट किया है वो बड़ा ही अजीब है. किसी भी संजीदे राजनेता से ऐसे व्यवहार की कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती. मगर, नीतीश कुमार के करीबी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. नीतीश कुमार की राजनीति पर बारीक नजर रखने वालों को भी ये बहुत अजीब नही लगता. वो कहीं और इशारा करते हैं. वो दिल्ली और पटना की बीती घटनाओं के तार जोड़ कर देखने की कोशिश करते हैं. वो नीतीश कुमार के संकेतों के जरिये राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं.
मोदी कैबिनेट 2.0 में दूसरे सहयोगी दलों की ही तरह जेडीयू को भी एक मंत्री पद ऑफर हुआ था. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात में नीतीश कुमार ने सांसदों की संख्या के हिसाब से सहयोगी दलों का कोटा तय करने की मांग की, लेकिन नामंजूर हो गयी. दिल्ली में नीतीश कुमार ने एक नपा तुला बयान देकर रस्मअदायगी की और चल दिये. पटना पहुंच कर अपने इरादे भी साफ कर दिये - भविष्य में जेडीयू का बीजेपी को सपोर्ट रहेगा लेकिन मंत्रिमंडल में शामिल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
नीतीश कुमार यहीं नहीं रुके. बिहार मंत्रिमंडल को पुनर्गठित किया और बीजेपी को फटकने तक का मौका नहीं दिया. नीतीश के करीबियों का मानना है कि बीजेपी नेतृत्व ने बिहार कैबिनेट को मोदी कैबिनेट से जोड़ते हुए गंभीरता से लिया होगा - और बाद की घटनाएं प्रतिक्रिया हो सकती हैं. कहने की जरूरत नहीं कि नीतीश कुमार बच्चों की मौत के मामले में बुरी तरह घिरे हुए हैं - और इसका कंट्रोल, पटना की पॉवर गैलरी की चर्चाओं के मुताबिक, नीतीश कुमार की नजर में दिल्ली में बैठे बीजेपी लीडरशिप के अलावा दूसरे के होने की संभावना नहीं लगती.
नीतीश कुमार की इस आशंका की कई वजहें हैं. ऐसी वजहों में एक है बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्रालय बीजेपी के कोटे में हैं और निशाने पर मुख्यमंत्री ही क्यों हैं? नीतीश सरकार में मंगल पांडेय स्वास्थ्य मंत्री हैं जो बीजेपी के नेता हैं. केंद्र में भी बीजेपी की सरकार है और स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन हैं. नीतीश को हैरानी इसी बात पर ज्यादा है कि आखिर पूरे मामले में टारगेट पर वो ही अकेले क्यों हैं, आखिर एक बार भी मंगल पांडेय का नाम क्यों नहीं लिया जा रहा है.

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