One Nation-One Election मजबूरी या जरूरी ?

एक देश एक चुनाव की चर्चा ज़ोरशोर से हो रही है. बीजेपी समेत कई दल सहमत हैं लेकिन कांग्रेस समेत बहुतेरे हैं जो असहमत भी हैं. योजना ये है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक साथ चुनाव करा लिए जाएं. चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग, संविधान समीक्षा आयोग जैसे मंचों पर खूब विमर्श हो भी चुका है. लोगों के बीच इस पर बहस हो रही है.
देश के लिए ज़रूरी क्यों?
भारत एक लोकतंत्र है और लोकतंत्र में चुनाव अनिवार्य प्रक्रिया है. भारत जैसे विशाल देश में केंद्र के साथ राज्यों के चुनाव अनवरत होते रहते हैं. चुनाव आयोग का प्रयास रहता है कि ये चुनाव बिना किसी समस्या के संपन्न हों. आपने देखा होगा कि देश में कहीं ना कहीं चुनाव चलते रहते हैं. इन चुनावों में प्रशासन जी-जान से तो जुटा रहता ही है, साथ में बड़े पैमाने पर पैसा खर्च होता है. ऐसा कहा जा रहा है कि सरकारी खजाने को इसी बोझ से बचाने के लिए एक देश-एक चुनाव की बात को आगे बढ़ाया जा रहा है. हालांकि देश में चुनाव पंचायत और नगरपालिकाओं के भी होते हैं लेकिन फिलहाल इन्हें इस योजना से अलग ही रखा गया है.
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एक देश-एक चुनाव की पृष्ठभूमि
एक देश एक चुनाव देश के लिए नई बात नहीं है. भारत में आम चुनावों की शुरूआत में यही फॉर्मूला चल रहा था. 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा रहा है जब केंद्र और सूबों के चुनाव साथ में हुए थे. ये सिलसिला 1968-69 में टूटा जब कुछ राज्यों की विधानसभाएं वक्त से पहले भंग कर दी गईं. 1971 में भी पाकिस्तान की जीत के बाद इंदिरा सरकार ने लोकसभा भंग कर पहले ही चुनाव करवाए थे और प्रचंड जीत के बाद कई राज्यों में भी जल्द चुनाव हुए. इसके बाद कई मौकों पर वक्त से पहले लोकसभाएं भंग हुईं और ऐसे मौके भी आए जब सरकार ना बनने की स्थिति में चुनाव हुए तो क्रम गड़बड़ा गया.

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