पंजाब ने पेश की नजीर, तेजी से खत्म हो रही दलितों के लिए अलग श्मशान की परंपरा

‘मानस की जात सभै एकै पहिचानबो, सरिया जाति ते धर्मन दे लोग इस स्वर्गधाम विच संस्कार कर सकते हैं।’ पंजाब के पटियाला जिले की नाभा तहसील के गोबिंदपुरा गांव में स्थित एक श्मशान घाट के बाहर एक पत्थर पर यह लिखा हुआ है। जिसका मतलब है कि ‘मानव की सभी जाति एक हैं इसे पहचानिए, सभी धर्मों की जातियों के लोग इस शमशान घाट में अंतिम संस्कार कर सकते हैं।’
सिख धर्म की भूमि पंजाब, जिसके धर्मगुरुओं ने जातिवाद की कड़ी निंदा की और इसके खात्मे के लिए लंगर जैसी अवधारणाओं को लोकप्रिय बनाया। मगर सैकड़ों वर्षों से यह व्यवस्था कायम है। जिसके चलते प्रदेश के कई गांवों में दलितों के लिए अलग श्मशान हैं। हालांकि गोबिंदपुरा जैसे गांवों में यह परंपरा धीरे-धीरे बदल रही है। गोबिंदपुरा पटियाला जिले के उन 144 गावों में से एक है जहां जाति आधारित श्मशान घाटों को हटाया गया है।
पूर्व लोकसभा सांसद डॉक्टर धर्मवीर गांधी के प्रयासों से इस पहल की शुरुआत हुई। यहां अलग-अलग श्मशान घाटों की व्यवस्था को समाप्त करने पर सहमत हुए गांवों को श्मशान घाटों के नवीनीकरण और विकास कार्यों के लिए MPLAD फंड दिया गया है/जा रहा है। गावों में जिन लोगों ने इस व्यवस्था को खत्म करने का विरोध किया उन्हें फंड नहीं दिया गया।
डॉक्टर धर्मवीर गांधी ने 2019 में एनपीपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा मगर कांग्रेस उम्मीदवार के हाथों हार का सामना करना पड़ा। इससे पहले साल 2014 में उन्होंने आम आदमी पार्टी (AAP) के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीता मगर बाद में उन्हें पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया।
गोबिंदपुरा गांव के पूर्व सरपंच और दलित गुरदर्शन सिंह कहते हैं, ‘पहले हमारा श्माशान घाट गांव से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर मैदान में होता था। वहां पीने के पानी कोई सुविधा नहीं थी और सड़क की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी। मगर अब हम अपने मृतकों का अंतिम संस्कार उसी श्मशान घाट में करते हैं जहां सामान्य वर्ग के लोग आते हैं।’ उन्होंने कहा कि गांव के श्माशान घाट तक पहुंचने में आसानी होती है और इसमें पानी बाथरूम जैसी सभी सुविधाएं हैं।
गुरदर्शन सिंह कहते हैं कि यह बदलाव सकारात्मकता के साथ आया है। उन्होंने कहा, ‘अब दुख के समय में हर कोई एक-दूसरे के साथ खड़ा है। कोई जात-पात की बात नहीं करता और एससी/एसटी और सामान्य वर्ग के लोगों एक दूसरे के दाह संस्कार में शामिल होते हैं। हम एक दूसरे के घर भी जाते हैं।’
हालांकि शुरू में उन्होंने बताया कि गांव के बुजुर्गों ने इस विचार का विरोध किया। विरोधियों में दलित समुदाय के लोग भी शामिल थे। गुरदर्शन ने बताया, ‘उन्होंने कहा कि ऐसा कहीं नहीं सुना गया। ऐसा कैसे हो सकता है? मगर युवा पीढ़ी उनके इन तर्कों पर हावी रही। आखिरकार कोई पुरानी प्रथा के लिए फंड को क्यों छोड़ना चाहेगा।’

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