राजनाथ सिंह बीजेपी की नई पहेली बन गए हैं?

राजनाथ सिंह बीजेपी की नई पहेली बन गए हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुरुवार को कैबिनेट मामलों की आठ समितियों का गठन किया. इन आठ समितियों में अमित शाह तो शामिल थे लेकिन राजनाथ सिंह सिर्फ़ दो समितियों में शामिल किए गए थे. राजनीतिक और संसदीय मामलों जैसी अहम समितियों में राजनाथ सिंह को शामिल नहीं किया गया था.
इस ख़बर के मीडिया में आते ही सरकार में राजनाथ सिंह की भूमिका पर सवाल उठाए जाने लगे. इसके कुछ घंटों बाद ही गुरुवार देर रात कैबिनेट समितियों की एक नई लिस्ट आती है. नए लिस्ट में राजनाथ सिंह को दो से बढ़ाकर छह समितियों में शामिल किया गया. यह मोदी-शाह युग में अनहोनी की तरह है.
भारतीय जनता पार्टी में राजनाथ सिंह की छवि ऐसे शख़्स की है, जिनसे लोगों के मतभेद कम ही हैं. बाहर वाले तो कम से कम यही मानते हैं. हालांकि पार्टी के अंदर ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी राय इससे अलग है. बीजेपी में ऐसे भी लोग हैं जिनको लगता है कि राजनाथ सिंह भाग्य के धनी हैं. यक़ीन न हो तो कलराज मिश्र से पूछ लीजिए.
वे कभी यह मानने को तैयार नहीं हुए कि राजनाथ सिंह को जो मिला वह उनकी काबलियत से मिला. वरिष्ठ होते हुए भी वे हर बार पिछड़ गए. उन्हें सबसे ज़्यादा बुरा तब लगा जब साल 2002 में राजनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी पहले से तीसरे नंबर पर आ गई और उसके कुछ दिन बाद राजनाथ केंद्रीय मंत्री बन गए.
कलराज मिश्र जिसे भाग्य कहते हैं उसे आप अवसर भी कह सकते हैं. कई बार ऐसा हुआ कि राजनाथ सिंह सही समय पर सही जगह थे. उत्तर प्रदेश में जब कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला तो वे इन दो बड़ों की लड़ाई में वाजपेयी का मोहरा बनने को सहर्ष राज़ी हो गए और यह लड़ाई कल्याण सिंह बनाम राजनाथ बन गई. इनाम में राजनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और बाद में केंद्रीय मंत्री का पद मिला. वे राज्य के नेता से राष्ट्रीय नेता बन गए.
उनके जीवन में दूसरा अवसर आया, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लाल कृष्ण आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला किया. राजनाथ हमेशा से संघ के पदाधिकारियों की नज़र में समन्वयवादी नेता के रूप में उपस्थित थे, जो किसी के लिए चुनौती नहीं बन सकते थे. इतना ही नहीं पद और ज़िम्मेदारी देने वालों के तय किए ढर्रे पर चलने को तैयार रहते हैं. उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि उनमें और आडवाणी में खुला युद्ध हो सकता है. लेकिन राजनाथ सिंह की यह खूबी है कि वे युद्ध के मुहाने तक जाने के बाद कदम पीछे खींच लेते हैं. जीत से ज़्यादा उनका ध्यान इस बात पर होता है कि हार न हो. जब युद्ध होगा ही नहीं तो जय पराजय का सवाल ही कहां है.

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