हार पर मंथन में जुटे राहुल गांधी को जीत का फॉर्मूला नेहरू के इन खतों में ज़रूर मिलेगा

‘वह नि:संदेह एक चरमपंथी हैं, जो अपने वक्त से कहीं आगे की सोचते हैं, लेकिन वो इतने विनम्र और व्यवहारिक हैं कि रफ्तार को इतना तेज़ नहीं करते कि चीज़ें टूट जाएं. वह स्फटिक की तरह शुद्ध हैं. उनकी सत्यनिष्ठा संदेह से परे है. वह एक ऐसे योद्धा हैं, जो भय और निंदा से परे हैं. राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है.’  ये खाका खींचा था महात्मा गांधी ने नेहरू का. जगह थी लाहौर. साल था 1929 का और मौका था कांग्रेस से जवाहरलाल के परिचय का.
इस खत में वो जड़ से कटते कांग्रेसियों के संबंधों को रेखांकित कर रहे हैं, वहीं मुख्यमंत्रियों को संबोधित दूसरे खत में जो 4 जून 1949 को लिखा गया, नेहरू ने अहम नसीहतें दीं.
‘मुझे यह कहना पड़ेगा कि कांग्रेस के लोग सुस्त हो गए हैं. तेज़ी से बदलती दुनिया में दिमाग के जड़ हो जाने और मुगालते में रहने से ज़्यादा खतरनाक कोई चीज़ नहीं है. हम लोग सरकारी ज़िम्मेदारियों से दबे हुए हैं. हमें रोज़ समस्याओं के पहाड़ से टकराना होता है और उन्हें सुलझाने के लिए हम कोई कसर नहीं उठा रखते. बुनियादी मुद्दों के बारे में सोचने के लिए तो हमें वक्त ही नहीं मिलता.’
इसी खत में वो चेताते हैं.. ‘जनता के साथ हमारा संपर्क खत्म हो रहा है. हम जनता को हल्के में ले रहे हैं और ऐसा करना हमेशा घातक होता है. हम अपने पुराने नाम और प्रतिष्ठा के बल पर टिके हैं. उसमे कुछ दम है और हम उसी सहारे आगे बढ़ते रहे हैं, लेकिन पुरानी पूंजी हमेशा नहीं बनी रहेगी. बिना कमाए संचित पूंजी पर जीना अंतत: हमें दिवालियेपन की कगार पर ले जाएगा.’
ये अचरज पैदा करता है कि बापू को देश की आज़ादी से 18 साल पहले आभास था कि नेहरू के हाथों में ये राष्ट्र सुरक्षित रहेगा. उन्हें ये अनुभव भी हो रहा था कि जवाहरलाल वक्त से कहीं आगे की सोचते हैं. क्या ही संयोग है कि दोनों ही बातें कालांतर में सच निकलीं. चौतरफा आलोचनाओं और राजनैतिक विरोधियों का निशाना बनते रहे नेहरू की सफलता इसी बात में है कि आज भी ना तो वो अपने विरोधियों और ना ही समर्थकों के लिए अप्रासंगिक हुए हैं. देश की ओर आखें तरेर रहीं चुनौतियों और उन चुनौतियों को पैदा करनेवालों के अभ्युदय का अहसास उन्हें दशकों पहले से था.
हारी हुई कांग्रेस को लेना चाहिए नेहरू की बातों से सबक
पंडित नेहरू ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद ही समझ लिया था कि कांग्रेसी सुविधाभोगी जीवन जीने लगे हैं. वो देख रहे थे कि राज्यों में कांग्रेस सरकारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं. उन्हें ये भी ध्यान में आया कि देश के सबसे निचले तबके की समस्याओं पर तो अब भी गौर नहीं किया जा रहा. इसी सोच में डूबते-उतराते उन्होंने 3 जून 1949 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जो खत लिखा वो हार से हताश वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष को भी पढ़ना चाहिए. इसमें उनके काम का काफी कुछ है. वो सूत्र भी जो कांग्रेस को राख से फिनिक्स की तरह खड़ा कर सकती है.
‘गांव के लोगों से हमें वही पुराना इंसानी और निजी रिश्ता कायम करना होगा, जो रिश्ता एक जम़ाने में कांग्रेस के लोग बड़े कारगर ढंग से बनाया करते थे. हमारे लोगों को गांव और दूसरी जगहों पर जाना चाहिए. लोगों को हालात के बारे में और हमारी मजबूरियों के बारे में बताना चाहिए. अगर कोई रिश्ता दोस्ताना और इंसानी ढंग से बन जाए तो वह बहुत दूर तक जाता है. लगता है, ज़मीनी स्तर के ये निजी ताल्लुकात हम खो बैठे हैं. अब बहुत कम लोग उस तरह ज़मीन पर उतर रहे हैं, जैसे वे पहले उतरा करते थे.’

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