लोकसभा चुनाव के परिणाम बिहार में एक बार फिर नए राजनीतिक समीकरण के संकेत दे रहे हैं। 25 साल पुराना मंडलवाद अब अपने नए स्वरूप में प्रभाव दिखाने लगा है। बेशक, जातिवाद बिहार की राजनीति का अभिन्न अंग है, लेकिन जातियों की गिनती कर अपना राजनीतिक वजूद दिखाने वाले नेताओं के लिए लोकसभा का परिणाम जहां एक सबक है, वहीं विधानसभा के लिए एक संकेत भी है।
मोदी और नीतीश की जोड़ी जहां सहज और मजबूत रही है, वहीं लालू की गैर मौजूदगी में विपक्ष को एकजुट रखने वाला सक्षम नेतृत्व नहीं मिला। कई लोगों का यह भी मानना है कि अगर नीतीश 2013 में राजग नहीं छोड़ते तो ये परिणाम 2014 में ही आ सकता था। नेतृत्वहीन विपक्ष के सामने आज सबसे बड़ा संकट यही है कि वो किस दल और नेता के नेतृत्व में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी करे। विपक्ष के सामने कमोबेश परिस्थिति 2014 जैसी ही है। तब विपक्ष के पास नीतीश और लालू जैसा नेतृत्व था जिसने महागठबंधन बनाकर भाजपा को कड़ी चुनौती दी थी।
आज विपक्ष के पास इसका अभाव है। 2014 के जिस परिणाम को लेकर राजद अब तक जदयू पर तंज कस रहा था, उसकी स्थिति आज उससे भी बदतर हो चुकी है। पार्टी इस चुनाव में खाता तक नहीं खोल पाई। महागठबंधन का नेतृत्व भी प्रभावहीन रहा। सीटों के बंटबारे को लेकर घटक दलों में जो खटास पैदा हुई है वो विधानसभा चुनाव तक महागबंधन के स्वरूप और वजूद दोनों पर सवाल खड़े करती है।
ResultWithMolitics- https://www.molitics.in/election/resultलोकसभा के परिणाम ने जहां राजद को कमजोर किया है, वहीं काग्रेस के सामने अवसर पैदा किया है। विधानसभा में राजद के 80 विधायक हैं, जबकि कांग्रेस के 27 और हम का एक विधायक हैं। ऐसे में रालोसपा और वीआइपी जैसी पार्टियों के सामने संकट है। 2015 में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी कोई कमाल नहीं दिखा पाए थे, इस चुनाव में तो खाता ही नहीं खुला। जबकि कांग्रेस ने विधानसभा में 27 सीटें जीती थीं।