Kanhaiya की हार - क्या चाहता है बिहार?

गिरिराज सिंह - चुनाव लड़ने के लिए वे नवादा की सीट चाहते थे। लेकिन पार्टी ने बेगुसराय से चुनाव लड़ने को भेजा गया तो रूठ गए। हाईकमान ने दबाव बढ़ाया तो मानना पड़ा। चुनाव भी लड़े। प्रचार के शुरुआती दिनों में फीके-फीके भी लगे। उनके सामने थे फायर ब्राण्ड नेता कन्हैया कुमार और महागठबंधन के तनवीर हसन। कन्हैया को गठबंधन से टिकट मिलने की संभावना थी। पर मिली नहीं। कन्हैया की लड़ाई शुरू से ही मुश्किल थी। एक तरफ बीजेपी का प्रतिद्वंद्वी दूसरी तरफ महागठबंधन के तनवीर हसन। मुकाबला सीधे सीधे मोदी और तेजस्वी यादव से था। लेकिन कन्हैया लड़े। और ऐसा लड़े कि प्रचार के दिनों से वोटिंग तक शीर्ष पर रहे। प्रकाश राज से लेकर जावेद अख़्तर , स्वरा भास्कर, जिग्नेश नेवाणी, सब पहुँचे कन्हैया के प्रचार के लिए। संभावना लगी कि शायद जेएनयू के इस पूर्व छात्र को जीत मिल जाए। पर संभावानाएँ बादल में छिप गई। औऱ मतदाताओं का रडार उन्हें पकड़ नहीं पाया। ज़मीनी रिपोर्ट्स भी कन्हैया के हक में दिखा। लेकिन जो उल्टा दिखा वो परिणाम। लोगों ने कन्हैया कुमार के उपर तरज़ीह दी गिरिराज सिंह को। गिरिराज जो मोदी की रैली में न जाने वालों को पाकिस्तान भेज रहे थे - उन्हें बेगुसराय के लोगों ने अपनाया है। कम से कम चुनाव परिणाम यही कहते हैं। गिरिराज ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान कोई विज़न पेश किया हो - ऐसा नहीं है। नीतीश और बीजेपी के साथ चल रही बिहार सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि मामले में अभूतपूर्व सफलता हासिल की हो - ऐसा भी नहीं। केंद्र सरकार ने बिहार के लिए कुछ अतुल्यनीय किया हो - ऐसा भी नहीं है। बल्कि मुज़्फफरपुर शेल्टर होम में बच्चियों के साथ बलात्कार और सियासी गठजोड़ ने बिहार को जबर्दस्त तरीके से शर्मसार किया। अन्य प्रदेशों में बिहारवासियों के साथ ज़्यादतियों में कमी नहीं आई। बिहार के मतदाताओं ने अपनी उम्मीद नीतीश और भाजपा में जताई है। मतलब ये है कि बिहार में और बेगुसराय में भी वोटिंग मुद्दों पर नहीं हुई है। वोटिंग हुई है चेहरे पर, मीडिया द्वारा बनाई गई छवि पर, राष्ट्रवाद के उन्माद पर।

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