वो ‘बदकिस्मत सोफा’ जिस पर बैठनेवाले हर शख्स को मिली दिल दहलाने वाली मौत!

कई तस्वीरें आपका ध्यान बरबस ही खींच लेने की क्षमता रखती हैं. आज एक ऐसी ही तस्वीर की बात. यहां जो तस्वीर लगी है उसमें आपको एक साथ तीन प्रधानमंत्री बैठे दिख रहे हैं. दो पाकिस्तान के और एक भारत की.
ये ऐतिहासिक तस्वीर साल 1972 के जून महीने की है. पाकिस्तान 1971 की जंग हार चुका था. भीषण युद्ध के बाद भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पराक्रम की वजह से बांग्लादेश नाम का नया देश दुनिया के नक्शे पर उभर आया था. भारत के कब्ज़े में 93 हजार पाकिस्तानी सैनिक थे जिन्हें छुड़ाने का जिम्मा तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के कंधों पर था.भुट्टो एक सम्मानजनक समझौते की तलाश में हिमाचल प्रदेश के शिमला पहुंचे थे. दौरे पर उनकी पत्नी आनेवाली थीं लेकिन बीमार होने के कारण ऐसा मुमकिन नहीं हो सका. तब भुट्टो ने अमेरिका से गर्मी की छुट्टियां बिताने घर आई अपनी 19 साल की बेटी बेनज़ीर से साथ चलने को कहा.
ये तस्वीर उसी मुलाकात की गवाह है. इस तस्वीर में दिख रहे सोफे को ‘बदकिस्मत सोफा’ कहा जाता है. बदकिस्मत सोफा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस पर बैठी तीनों शख्सियतों की मौत अप्राकृतिक थी. अगर इन्हें हत्या कहा जाए तो बेहतर होगा.
ज़ुल्फिकार अली भुट्टो- जिस पर किया भरोसा उसी ने दिया दगा
ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई की थी. पाकिस्तान लौटकर उन्होंने कराची के सिंध मुस्लिम लॉ कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी पकड़ ली, लेकिन किस्मत को उन्हें सियासत की राह पर ले जाना था. नतीजतन उनकी मुलाकात पाकिस्तान के बड़े चेहरों इस्कंदर मिर्ज़ा और अयूब खान से हुई. मिर्ज़ा 1956 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और अयूब खान मेजर जनरल बने थे. दो साल बाद ही अयूब खान ने मिर्ज़ा का तख्तापलट कर दिया जिसमें उनका साथ भुट्टो ने दिया. अयूब ने भुट्टो को महज़ 30 साल की उम्र में मुल्क का वाणिज्य मंत्री बनाया. वक्त गुज़रा तो भुट्टा का करियर और चमका. 1963 में उन्हें विदेशमंत्री बनाया गया.
समाजवादी पाकिस्तान का ख्वाब रखनेवाले भुट्टो के अयूब खान से मतभेद शुरू हुए थे कि 1965 की जंग हो गई. हार के बाद अयूब खान ने भारतीय पीएम लालबहादुर शास्त्री से ऐतिहासिक ताशकंद समझौता किया. समझौते को भुट्टो ने नहीं माना और विदेश मंत्री पद से इस्तीफा देकर पीपीपी नाम की अपनी पार्टी का गठन कर लिया.
“इस्लाम हमारा विश्वास है, लोकतंत्र हमारी नीति है, समाजवाद हमारी अर्थव्यवस्था है” की सोच के साथ पीपीपी ने काम शुरू किया. 1968 में चौतरफा मुसीबत से घिरे अयूब खान की विदाई हो गई और जनरल याह्या खान ने पाकिस्तान की सत्ता संभाल ली. दो साल बाद 1970 का चुनाव हुआ जिसमें पश्चिमी पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी बनकर पीपीपी उभरी मगर पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान का झंडा बुलंद हुआ. शेख ने बांग्लादेश की आज़ादी का नारा उठाया और बदले में उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा.

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